बहुराचौथ व खमरछठ : छत्‍तीसगढ के त्‍यौहार

भाद्रपद (भादो) का महीना छत्‍तीसगढ के लिए त्‍यौहारों का महीना होता है, इस महीने में धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्‍तीसगढ में किसान धान के प्रारंभिक कृषि कार्य से किंचित मुक्‍त हो जाते हैं । हरेली से प्रारंभ छत्‍तीसगढ का बरसात के महीनों का त्‍यौहार, खमरछठ से अपने असली रूप में आता है । इसके बाद छत्‍तीसगढ में महिलाओं का सबसे बडा त्‍यौहार तीजा पोला आता है जिसके संबंध में संजीत त्रिपाठी जी आपको जानकारी दे चुके हैं ।

छत्‍तीसगढ का त्‍यौहार खमरछठ या हलषष्‍ठी भादो मास के छठ को मनाया जाता है, यह त्‍यौहार विवाहित संतानवती महिलाओं का त्‍यौहार है । यह त्‍यौहार छत्‍तीसगढ के एक और त्‍यौहार बहुराचौथ का परिपूरक है । बहुरा चौथ भादो के चतुर्थी को मनाया जाता है यह गाय व बछडे के प्रसिद्व स्‍नेह कथा जिसमें शेर के रूप में भगवान शिव गाय का परीक्षा लेते हैं, पर आधारित संतान प्रेम का उत्‍सव है इस दिन भी महिलायें उपवास रखती हैं एवं उत्‍सव मनाती हैं ।

बहुरा चौथ के दो दिन बाद छठ को खमरछठ आता है, यह त्‍यौहार कुटुम्‍ब प्रेम का त्‍यौहार है । इस दिन प्रचलित रीति के अनुसार महिलायें हल चले हुए स्‍थान में नहीं जाती, हल चले हुए स्‍थान से उत्‍पन्‍न किसी भी प्रकार के अन्‍न या फल का सेवन इस दिन नहीं किया जाता । प्रात काल उठ कर महिलायें महुआ या करंज के पेड का दातून करती हैं, खली एवं नदी किनारे की चिकनी मिट्टी से सिर धोकर तैयार होती है । गांव के किसी प्रतिष्ठित व्‍यक्ति के घर के आंगन में 4 बाई 6 फिट का एक छोटा गड्ढा खोदा जाता है, जिसे ‘सगरी खनना’ कहा जाता है । उससे निकले मिट्टी से उसका पार बनाते हुए उसे तालाब का रूप दिया जाता है । उस तालाब के किनारे नाई ठाकुर द्वारा लाये गये कांसी के फूल, परसा के डंगाल व बेर की डंगाल व फूल आदि लगा कर उसे सजाया जाता है ।

दोपहर में पूरे गांव की महिलायें उस स्‍थान पर उपस्थित होती हैं एवं पारंपरिक रूप से छ: पान या परसे के पन्‍ने पर रक्‍त चंदन से शक्ति देवी का रूप बनाया जाता है, जिसकी पूजा विधि विधान से की जाती है उक्‍त बनाये गये देवी को निर्मित तालाब में चढाकर लाई, महुआ के फल, दूध, दही, मेवा व छुहारा आदि चढाया जाता है । पूजा के बाद पंडित जी से पारंपरिक रूप से प्रचलित पुत्र व कुटुम्‍ब प्रेम, ममत्‍व को प्रदर्शित करने वाले छ: कथा का महिलायें श्रवण करती हैं एवं छठ देवी का आर्शिवाद लेकर अपने अपने घर को जाती हैं । घर में जाकर सफेद मिट्टी में नये कपडे के तुकडे को भिंगो कर अपने पुत्र पुत्रियों के पीठ पर प्‍यार से पुचकारते हुए छ: बार मारती हैं ।

इस दिन महिलायें बिना हल चले स्‍थान से उत्‍पन्‍न अन्‍न ही ग्रहण करती हैं इसलिए तालाब के किनारे स्‍वत: उत्‍पन्‍न धान का चांवल वनाया जाता है जिसे पसहर कहते हैं । पसहर का चांवल व विभिन्‍न प्रकार के भजियों से निर्मित सब्‍जी एवं भैंस के दूध, दही व धी को फलाहार प्रसाद के रूप ग्रहण किया जाता है इस दिन गाय के दूध दही का प्रयोग भी वर्जित होता है । घर में बनाये गये भोजन मे से छ: दोने तैयार कर एक पत्‍तल में रख जाता है जिसमें से एक दोना गौ माता के लिए एक जल देवी के लिए निकाला जाता है बाकी बचे चार दोनो को प्रसाद के रूप में परिवार मिल बांट कर खाते है, महिलायें खासकर अपने व अपने परिवार के बच्‍चों को अपने पास बिठा कर दुलार से इस भोजन को खिलाती हैं । इस दिन गांव में माहौल पूर्णतया उल्‍लासमय रहता है ।

छत्‍तीसगढ में संयुक्‍त परिवार की परंपरा रही है, यहां की मिट्टी में आपसी भाईचारा कूट कूट कर भरा है, इसी भाव को प्रदर्शित करता यह त्‍यौहार महिलाओं में परिवार के पुत्र पुत्रियों के बेहतर स्‍वास्‍थ्‍य व ऐश्‍वर्यशाली जीवन की कामना के भाव को जगाता है ।

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...