विलक्षण धनुर्धर एवं मंचीय योद्धा : कोदूराम वर्मा

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‘अगासदिया’ के संपादक व प्रसिद्ध कहानीकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी नें वर्तमान में देश के विलक्षण धनुर्धर एवं मंचीय योद्धा कोदूराम वर्मा के समग्र अवदानों को केन्‍द्र में रखकर उन पर रजत जयंती विशेषांक प्रकाशित किया है, जिसमें रमेश नैयर, डॉ.डी.के.मंडरीक, डॉ.विमल कुमार पाठक, डॉ.पी.सी.लाल यादव, सुशील भोले, घनाराम ढिण्‍ढे एवं अन्‍य साहित्‍यकारों व लोककलाकारों द्वारा लिखे गए लेख समाहित हैं । क्षेत्र के साहित्‍य व कला जगत में इस विशेषांक के प्रति गजब के आर्कषण को देखते हुए पत्रिका के अंश हम यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं :-

............ शव्‍द के सहारे बाण चलाने के कई चर्चित प्रसंग हैं, लेकिन शब्‍द भेदी बाण कोई आज भी चला सकता है, यह बहुतेरे मान नहीं पाते, लेकिन भिभौरी गांव के प्रसिद्ध कलाकार कोदूराम को जिन्‍होंने बाण चलाते हुए देखा हैं वे इस विलक्षण कला को देखते हुए हजारों वर्ष की यात्रा कर आते हैं । शव्‍दभेदी बाण चलाने वालों का आख्‍यान बहुत सीमित है, कम धनुर्धर हुए हैं जिन्‍हें शव्‍दभेदी बाण चालान में सिद्धि प्राप्‍त हुई, भिभौंरी गांव के 83 वर्षीय चुस्‍त दुरूस्‍त कलाकार कोदूराम वर्मा आज भी पूरे कौशल के साथ सोत्‍साह शव्‍द भेदी बाण चलाते हैं और दर्शक ठगे से रह जाते हैं । ............

............ विद्यार्थी जीवन में पृथ्‍वीराज चौहान के शव्‍दभेदी बाण संचालन व चंदबरदाई की कविता – चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्‍ट प्रमाण/ता उपर सुल्‍तान है मत चूको चौहान । का प्रसंग और द्रौपदी के स्‍वयंवर में अर्जुन द्वारा नीचे तेल के कढाई में उपर घूमती हुई मछली की परछाई देखकर उसके आंख का सहज संधान करने की बात कल्‍पना प्रतीत होती थी या उस पर विश्‍वास नहीं होता था । जब पहली बार कोदूराम वर्मा को शब्‍दभेदी बाण संधान करते देखा तो मैं ही क्‍या हजारों की भीड नें दांतो तले अंगुली दबा ली । धनुर्विद्या निष्‍णात होना एक अलग बात है, छत्‍तीसगढ के बस्‍तर क्षेत्र में आदिवासी तो इस कला में माहिर हैं, धनुष बाण चलाने की यहां प्राचीन परंपरा है किन्‍तु शब्‍द भेदी बाण का संधान देखना एक नया और अनोखा अनुभव है । ............

............ कलाकार के आंखों में पट्टी बांधकर, गलियों में घुमाते हुए मंच पर लाया गया । रात्रि में पेट्रोमेक्‍स के उजाले में चल रहा था कार्यक्रम, लकडी के सहारे लटक रहे धागे को मंच के नजदीक बैठे लोग ही देख पा रहे थे । सहसा धनुष बाण उठा कर धागा को निशाना बनाया गया, स्‍पर्श बाण संधान द्वारा धागा के टूटते ही तालियों की आवाज गूंजी । कलाकार की आंखों की पट्टी खुलने पर ही मैं जान पाया कि ये तो मेरे मामा जी हैं ‘कोदू मामा’ । ............

............ 83 वर्ष की आयु में श्री कोदूराम वर्मा की सक्रियता, सृजनशीलता और अपने आप को परिष्‍कृत करते रहने की ललक देखता हूं तो मन करता है कुछ समय उनके पास रह कर उस संजीवनी की खोज करूं, जो उनकी शख्सियत को गतिमान रखती है । कोदूराम जी धनुर्धर हैं शब्‍दभेदी बाण चलाते हैं, उनके धनुष के अदभुत संधान का साक्षातकार करके ओलंपिक तीरंदाज लिम्‍बाराम को मैनें उनको नमन करके यह कहते हुए सुना कि कोदूराम जी की धनुर्विद्या के सामने हम लोग क्‍या हैं, भारत के तीरंदाजों को उनसे प्रशिक्षण प्राप्‍त करना चाहिए । ............

............ इस विधा के कारण उन्‍हें प्रदेश के साथ ही देश में विशेष ख्‍याति मिला है । ..... दूरदर्शन एवं अनेक चैनलों व विदेशी चैनलों के द्वारा भी उनकी इस बाण विद्या की वीडियोग्राफी की गई तथा उन्‍हें अपने अपने स्‍तर पर प्रसारित किया गया ।............

............ कोदूराम केवल बाण ही नहीं चलाते, वे लोकमंच के विलक्षण कलाकार हैं इस समय वे 83 वर्ष के हैं, लगातार कई घण्‍टे वे झालम करमा दल के तगडे युवा आदिवासी साथियों के साथ करमा नृत्‍य करते हैं । उन्‍हें आज भी चश्‍मा नहीं लगा है, पीत वस्‍त्रधारी, सन्‍यासी से दिखने वाले कोदूराम वर्मा का करमा दल देश के शीर्ष करमा नृत्‍य दल है वहीं खंजरी पर कबीर भजन गाने वाले वे छत्‍तीसगढ के सिद्ध कलाकारों में से एक हैं । ............

............ छत्‍तीसगढ में कायाखण्‍डी भजनो अर्थात ब्रह्मानंद, कबीर व तुलसीदास के गीतों को तंबूरा (एकतारा), करताल व खंजेरी लोकवाद्यों के माध्‍यम से लोक धुनों में गाने की सुदीर्ध परम्‍परा है । कोदूराम खुद तंबूरा व करताल बजाकर गाते हैं और रागी खंजेरी बजाकर उनके साथ स्‍वर मिलाता है । ............

............ छत्‍तीसगढ का लोकनाट्य नाचा तो विश्‍व प्रसिद्ध हैं इसकी दो शैलियां है, पहला खडे साज और दूसरा बैठक साज, आज का बैठक साज नाच, खडे साज नाच का ही परिष्‍कृत रूप है । तब खडे साज में नाचा के सारे कलाकार रात भर खडे खडे ही नाचते गाते और बाजा बजाते थे । मिट्टी तेल के भभका (मशाल) से ही रोशनी का काम लिया जाता था । मंच भी साधारण होता था तब नाचा कलाकार बिना ध्‍वनि व्‍यवस्‍था के टीप (उंची आवाज) में गाकर दर्शकों का मनोरंजन करते थे और नाचा के माध्‍यम से समाज के लिए सार्थक संदेश छोड जाते थे, कोदूराम वर्मा उसी पीढी के लोककलाकार हैं जिन्‍होंने नाचा को अपनी कला का आधार बनाया ............ वे लोककला के ऋषि हैं जो देना जानते हैं, लेना नहीं । ............

............ छत्‍तीसगढ में न कला की कमी है न कलाकार की, जरूरत है तो उन्‍हें परखने की, कोदूराम वर्मा केवल कायाखंडी भजनों के गायक या खडे साज नाचा के कलाकार ही नहीं हैं, वरन छत्‍तीसगढ के सुप्रसिद्ध लोकनृत्‍य करमा के भी पारंगत कलाकार हैं । करमा पहले गांव गांव में नाचा जाता था, मांदर की मोहक थाप पर पावों में घुंघरू बांधे युवकों का दल झूम झूम कर नाचता था तो धरती भी उमंगित हो जाती और गांव की गलियां करमा गीतों से गूंजती तथा जनमानस आह्लादित हो जाता था – ‘नई तो जावंव रे दिवानी नई जांवव ना, बिना बलाए तोर दरवाजा नई तो जाववं ना ‘ अब गांवों में भी करमा की स्‍वर लहरियां कम हो चुकी है ऐसे उल्‍लास और आनंद के प्रतीक करमा गीत व नृत्‍य को संरक्षित व संर्वधित करने में भी कोदूराम का योगदान है । ............

............ उनके पास कई रचनाओं का भी संग्रह है जो वर्तमान में किसी भी किताब में प्रकाशित रूप में उपलब्‍ध नहीं हैं । इसी अप्रकाशित रचनाओं में से सूरदास जी की रचना सांवरिया गिरधारी लाल जी, गोवर्धन गिरधारी .. को जब उन्‍होंने देश के प्रतिष्ठित सांस्‍कृतिक धरोहर केन्‍द्र ‘भारत भवन’ में प्रस्‍तुत किया तो वहां के अधिकारी आश्‍चर्य चकित रह गए । ............

............ किसी सृजनशील व्‍यक्ति को भोलेपन की क्षमता विकसित करनी चाहिए, जो कथित पढेलिखे और विद्वान लोग हैं उसमें भोलेपन की जगह चतुराई अधिक होती है, उनकी वृत्ति छिद्रान्‍वेषी ही होती है । ..... कोदूराम वर्मा ऐसे बुद्धिजीवियों की जगत में नहीं हैं जो सत्‍य के और मनुजता के क्षरण का विस्‍तार कर रहे हैं, इस मायने में वे कबीर के निकट हैं । वह एक भोले भाले आराधक और साधक हैं, इनकी साधना इस समाज को कुछ देती है वह चतुर बुद्धिजीवियों के सैकडों अखाडों और वाक् चातुर्य में पारंगत संगठन नहीं दे पाते । भारतीय समाज में चेतना का स्‍पंदन कोदूराम जैसे साधकों के द्वारा ही संचारित होता है । ............

साभार ‘अगासदिया’ संपादक – डॉ.परदेशी राम वर्मा, एल.आई.जी. 18, आमदी नगर, हुडको, भिलाई 490009 (छ.ग.)
प्रस्‍तुति - संजीव तिवारी

छत्‍तीसगढ का जसगीत

छत्‍तीसगढ में पारंपरिक रूप में गाये जाने वाले लोकगीतों में जसगीत का अहम स्‍थान है । छत्‍तीसगढ का यह लोकगीत मुख्‍यत: क्‍वांर व चैत्र नवरात में नौ दिन तक गाया जाता है । प्राचीन काल में जब चेचक एक महामारी के रूप में पूरे गांव में छा जाता था तब गांवों में चेचक प्रभावित व्‍यक्ति के घरों मै इसे गाया जाता था ।आल्‍हा उदल के शौर्य गाथाओं एवं माता के श्रृंगार व माता की महिमा पर आधारित छत्‍तीसगढ के जसगीतों में अब नित नये अभिनव प्रयोग हो रहे हैं, हिंगलाज, मैहर, रतनपुर व डोंगरगढ, कोण्‍डागांव एवं अन्‍य स्‍थानीय देवियों का वर्णन एवं अन्‍य धार्मिक प्रसंगों को इसमें जोडा जा रहा है, नये गायक गायिकाओं, संगीत वाद्यों को शामिक कर इसका नया प्रयोग अनावरत चालु है ।

पारंपरिक रूप से मांदर, झांझ व मंजिरे के साथ गाये जाने वाला यह गीत अपने स्‍वरों के ऊतार चढाव में ऐसी भक्ति की मादकता जगाता है जिससे सुनने वाले का रोम रोम माता के भक्ति में विभोर हो उठता है । छत्‍तीसगढ के शौर्य का प्रतीक एवं मॉं आदि शक्ति के प्रति असीम श्रद्धा को प्रदर्शित करता यह लोकगीत नसों में बहते रक्‍त को खौला देता है, यह अघ्‍यात्मिक आनंद का ऐसा अलौकिक ऊर्जा तनमन में जगाता है जिससे छत्‍तीसगढ के सीधे साधे सरल व्‍यक्ति के रग रग में ओज उमड पडता है एवं माता के सम्‍मान में इस गीत के रस में लीन भक्‍त लोहे के बने नुकीले लम्‍बे तारों, त्रिशुलों से अपने जीभ, गाल व हाथों को छेद लेते हैं व जसगीत के स्‍वर लहरियों में थिरकते हुए ‘बोलबम’ ‘बोलबम’ कहते हुए माता के प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए ‘बाना चढाते’ हैं वहीं गांव के महामाया का पुजारी ‘बैइगा’ आनंद से अभिभूत हो ‘माता चढे’ बम बम बोलते लोगों को बगई के रस्‍सी से बने मोटे रस्‍से से पूरी ताकत से मारता है, शरीर में सोटे के निशान उभर पडते हैं पर भक्‍त बम बम कहते हुए आनंद में और डूबता जाता है और सोंटे का प्रहार मांदर के थाप के साथ ही गहराते जाता है ।

छत्‍तीसगढ के हर गांव में ग्राम्‍या देवी के रूप में महामाया, शीतला मां, मातादेवाला का एक नियत स्‍थान होता है जहां इन दोनों नवरात्रियों में जंवारा बोया जाता है एवं नौ दिन तक अखण्‍ड ज्‍योति जलाया जाता है, रात को गांव के पुरूष एक जगह एकत्र होकर मांदर के थापों के साथ जसगीत गाते हुए महामाया, शीतला, माता देवाला मंदिर की ओर निकलते हैं –

अलिन गलिन मैं तो खोजेंव, मइया ओ मोर खोजेंव
सेऊक नइ तो पाएव, मइया ओ मोर मालनिया
मइया ओ मोर भोजलिया.........

रास्‍ते में माता सेवा जसगीत गाने वाले गीत के साथ जुडते जाते हैं, जसगीत गाने वालों का कारवां जस गीत गाते हुए महामाया मंदिर की ओर बढता चला जाता है । शुरूआत में यह गीत मध्‍यम स्‍वर में गाया जाता है गीतों के विषय भक्तिपरक होते हैं, प्रश्‍नोत्‍तर के रूप में गीत के बोल मुखरित होते हैं -

कउने भिंगोवय मइया गेहूंवा के बिहरी
कउने जगावय नवराते हो माय......
सेऊक भिंगोवय मइया गेहूंवा के बिहरी
लंगुरे जगावय नवराते हो माय......

जसगीत के साथ दल महामाया मंदिर पहुंचता है वहां माता की पूजा अर्चना की जाती हैं फिर विभिन्‍न गांवों में अलग अलग प्रचलित गीतों के अनुसार पारंपरिक छत्‍तीसगढी आरती गाई जाती है -
महामाय लेलो आरती हो माय
गढ हींगलाज में गढे हिंडोलना लख आवय लख जाय
माता लख आवय लख जाय
एक नहीं आवय लाल लंगुरवा जियरा के प्राण आधार......

जसगीत में लाल लंगुरवा यानि हनुमान जी सांतों बहनिया मां आदिशक्ति के सात रूपों के परमप्रिय भाई के रूप में जगह जगह प्रदर्शित होते हैं जहां माता आदि शक्ति लंगुरवा के भ्रातृ प्रेम व उसके बाल हठ को पूरा करने के लिये दिल्‍ली के राजा जयचंद से भी युद्ध कर उसे परास्‍त करनें का वर्णन गीतों में आता हैं । जसगीतों में दिल्‍ली व हिंगलाज के भवनों की भव्‍यता का भी वर्णन आता है -
कउन बसावय मइया दिल्‍ली ओ शहर ला, कउन बसावय हिंगलाजे हो माय
राजा जयचंद बसावय दिल्‍ली शहर ला, माता वो भवानी हिंगलाजे हो माय

कउने बरन हे दिल्‍ली वो शहर हा, कउने बरन हिंगलाजे हो माय
चंदन बरन मइया दिल्‍ली वो शहर हा, बंदन बरन हिंगलाजे हो माय

आरती के बाद महामाया मंदिर प्रांगण में सभी भक्‍त बैठकर माता का सेवा गीतों में प्रस्‍तुत करते हैं । सभी देवी देवताओं को आव्‍हान करते हुए गाते हैं :-

पहिली मय सुमरेव भइया चंदा-सुरूज ला
दुसरे में सुमरेंव आकाश हो माय......

सुमरने व न्‍यौता देने का यह क्रम लंबा चलता है ज्ञात अज्ञात देवी देवताओं का आहवान गीतों के द्वारा होता है । गीतों में ऐसे भी वाक्‍यों का उल्‍लेख आता है जब गांवों के सभी देवी-देवताओं को सुमरने के बाद भी यदि भूल से किसी देवी को बुलाना छूट गया रहता है तो वह नाराज होती है गीतों में तीखें सवाल जवाब जाग उठते हैं :-

अरे बेंदरा बेंदरा झन कह बराइन में मैं हनुमंता बीरा
मैं हनुमंता बीरा ग देव मोर मैं हनुमंता बीरा
जब सरिस के सोन के तोर गढ लंका
कलसा ला तोर फोर हॉं, समुंद्र में डुबोवैं,
कलसा ला तोरे फोर हां .......

भक्‍त अपनी श्रद्धा के फुलों से एवं भक्ति भाव से मानस पूजा प्रस्‍तुत करते हैं, गीतों में माता का श्रृंगार करते हैं मालिन से फूल गजरा रखवाते हैं । सातों रंगो से माता का श्रृंगार करते हैं :-

मइया सांतों रंग सोला हो श्रृंगार हो माय.....
लाल लाल तोरे चुनरी महामाय लालै चोला तुम्‍हारे हो माय......
लाल हावै तोर माथे की टिकली लाल ध्‍वजा तुम्‍हारे हो माय....
खात पान मुख लाल बाल है सिर के सेंदूर लाल हो माय.....
मइया सातों रंग........

पुष्‍प की माला में मोंगरा फूल माता को अतिप्रिय है । भक्‍त सेउक गाता है :-

हो माय के फूल गजरा, गूथौ हो मालिन के धियरी फूल गजरा
कउने माय बर गजरा कउने माय बर हार, कउने भाई बर माथ मटुकिया
सोला हो श्रृंगार .....................
बूढी माय बर गजरा धनईया माय बर हार, लंगुरे भाई बर माथ मटुकिया
सोला हो श्रृंगार .....................

माता का मानसिक श्रृंगार व पूजा के गीतों के बाद सेऊक जसगीत के अन्‍य पहलुओं में रम जाते हैं तब जसगीत अपने चढाव पर आता है मांदर के थाप उत्‍तेजित घ्‍वनि में बारंबारता बढाते हैं गीत के बोल में तेजी और उत्‍तेजना छा जाता हैं –

अगिन शेत मुख भारत भारेव, भारेव लखन कुमारा
चंदा सुरूज दोन्‍नो ला भारेव, तहूं ला मैं भारे हौं हां
मोर लाल बराईन, तहूं ला मैं भरे हंव हां .........

गीतों में मस्‍त सेऊक भक्ति भाव में लीन हो, वाद्य यंत्रों की धुनों व गीतों में ऐसा रमता है कि वह बम बम के घोष के साथ थिरकने लगता है, क्षेत्र में इसे देवता चढना कहते हैं अर्थात देवी स्‍वरूप इन पर आ जाता है । दरअसल यह ब्रम्‍हानंद जैसी स्थिति है जहां भक्‍त माता में पूर्णतया लीन होकर नृत्‍य करने लगता है सेऊक ऐसी स्थिति में कई बार अपना उग्र रूप भी दिखाने लगता है तब महामाई का पुजारी सोंटे से व कोमल बांस से बने बेंत से उन्‍हें पीटता है एवं माता के सामने ‘हूम देवाता’ है ।

भक्ति की यह रसधारा अविरल तब तक बहती है जब तक भगत थक कर चूर नहीं हो जाते । सेवा समाप्ति के बाद अर्धरात्रि को जब सेऊक अपने अपने घर को जाते हैं तो माता को सोने के लिये भी गीत गाते हैं -
पउढौ पउढौ मईयां अपने भुवन में, सेउक बिदा दे घर जाही बूढी माया मोर
दसो अंगुरी से मईया बिनती करत हौं, डंडा ओ शरण लागौं पायें हो माय ........

आठ दिन की सेवा के बाद अष्‍टमी को संध्‍या ‘आठे’ में ‘हूम हवन’ व पूजा अर्चना पंडित के .द्धारा विधि विधान के साथ किया जाता है । दुर्गा सप्‍तशती के मंत्र गूंजते हैं और जस गीत के मधुर धुन वातावरण को भक्तिमय बना देता है । नवें दिन प्रात: इसी प्रकार से तीव्र चढाव जस गीत गांए जाते हैं जिससे कि कई भगत मगन होकर बाना, सांग चढाते हैं एवं मगन होकर नाचते हैं । मंदिर से जवांरा एवं जोत को सर में उढाए महिलाएं कतारबद्ध होकर निकलती है गाना चलते रहता है । अखण्‍ड ज्‍योति की रक्षा करने का भार बइगा का रहता है क्‍योंकि पाशविक शक्ति उसे बुझाने के लिये अपनी शक्ति का प्रयोग करती है जिसे परास्‍त करने के लिये बईगा बम बम के भयंकर गर्जना के साथ नीबू चांवल को मंत्रों से अभिमंत्रित कर ज्‍योति व जवांरा को सिर पर लिए कतारबद्ध महिलाओं के उपर हवा में फेंकता है व उस प्रभाव को दूर भगाता है । गीत में मस्‍त नाचते गाता भगतों का कारवां नदी पहुंचता है जहां ज्‍योति व जवांरा को विसर्जित किया जाता है । पूरी श्रद्धा व भक्ति के साथ सभी माता को प्रणाम कर अपने गांव की सुख समृद्धि का वरदान मांगते हैं, सेऊक माता के बिदाई की गीत गाते हैं -

सरा मोर सत्‍ती माय ओ छोडी के चले हो बन जाए
सरा मोर सत्‍ती माय वो ..................

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...