लोकगीतों में छत्तीसगढ की पारंपरिक नारी

छत्तीसगढ आरंभ से ही धान का कटोरा रहा है यहां महिलायें पुरूषों के साथ कंधे में कंधा मिलाते हुए कृषि कार्य करती रही हैं । कृषि कार्य महिला और पुरूष दोनों के सामूहिक श्रम से सफल होता है जिसके कारण हमेशा दोनों की स्थिति समान ही रही है, खेतों में दोनों के लिए अलग अलग कार्य नियत हैं । नारी और पुरूष के श्रम से ही छत्तीसगढ में धान के फसल लहलहाये हैं । इसकी इसी आर्थिक समृद्धि के कारण वैदिक काल से लेकर बौद्ध कालीन समयों तक छत्तीससगढ सांस्कृतिक व सामाजिक रूप से भी उन्नति के शिखर में रहा है । छत्तीसगढ के बहुचर्चित राउत नाच में एक दोहा प्राय: संपूर्ण छत्तीसगढ में बार बार गाया (पारा) जाता है जो छत्तीसगढ में नारियों की स्थिति को स्पष्ट‍ करती है और इस दोहे को नारी सम्मान व समानता के सबसे पुराने लोक साक्ष्य के रूप में स्वीकारा जा सकता है ।‘नारी निंदा झन कर दाउ, नारी नर के खान रे । नारी नर उपजावय भईया, धुरू पहलाद समान रे ।।‘यह दोहा नारी के सम्मान को उसी तरह से परिभाषित करती है जिस तरह से संस्कृत के यत्र नारी पूज्यंतें तत्र .... वाक्यांशों का महत्व है ।

छत्तींसगढ की पारिवारिक परंपरा के इतिहास पर नजर डालने से यह ज्ञात होता है कि यहां संयुक्त परिवार की परम्पंरा रही है जो आज तक गावों में देखने को मिलती है । संयुक्त परिवार में आंसू भी हैं तो मुस्कान भी हैं, यहां परिवार के सभी सदस्य हिल मिल कर रहते हैं और कृषि कार्य करते हैं । बडे परिवार में मुखिया के कई बेटे बहू एक साथ रहते हैं । जहां वय में कुछ बडी कन्या बालिकायें परिवार के छोटे बच्चों का देखरेख उस अवसर पर बेहतर करती हैं जब उनके अभिभावक खेतों में काम से चले जाते हैं । इस अवसर पर छोटे बच्चों को सम्हालने के लिए नारीसुलभ वात्सल्य प्रवृत्ति के कारण बालिकायें छोटे भाई बहनों का देखरेख बेहतर करती हैं एवं पेज पसिया पकाती है और मिलजुल कर खाती है । यहीं से परिवार में नारी के प्रति विशेष श्रद्धा एवं सम्मान का बीजोरोपण आरंभ होता है । अपने से बडी बहन से प्राप्तम स्नेह व प्रेम के कारण भावी पीढी के मन में नारी के प्रति स्वाभाविक सम्मान स्वमेव जागृत हो जाता है ।

पुराने समय में बालिका अवस्था में ही छत्तीसगढ में बालविवाह की प्रथा के कारण उनका विवाह भी कर दिया जाता था । इससे परिवार में दुलार करने वाली एवं दुलार पाने वाली बेटी को दूसरे के घर में भेजे जाने का दुख पूरे परिवार को होता था । मॉं अपनी छोटे उम्र की बेटी के बिदा के अवसर पर गाती है ‘कोरवन पाई पाई भांवर गिंजारेव, पर्रा म लगिन सधाये हो, नान्हें म करेंव तोर अंगनी मंगनी, नान्हें म करेंव बिहाव वो ।‘बेटी इतनी छोटी है कि उसे एक दिन के लिये भी उसके पति के घर में भेजने पर सभी को दुख होता है । यद्धपि विवाह बाद कन्या को मॉं बाप अपने घर वापस ले आते हैं फिर वय: संधि किशोरावस्था में उसका पति उसे कृषि कार्य में हाथ बटाने या घर में चूल्हा चौका करने के उद्देश्य: से गवना करा कर लाता है जहां वह सारी उम्र के लिए आ जाती है । कन्या को यह नया परिवेश तत्काल रास नहीं आता, इसीलिये गीत फूटते हैं ‘काखर संग मैं खेलहूं दाई काखर संग मैं खाहूं ओ’ । खेलने खाने की उम्र में बहू शव्द और दायित्व का भार उसे रास नहीं आता । ससुराल में उसका अपना कहने के लिए एकमात्र पति ही रहता है जिसे वह अपना मित्र मानती है और उसके साथ बालिका वधु की भांति खेलती है धीरे धीरे वह पारिवारिक दायित्वों को सम्हालते हुए सांसारिक व्यवहार को सीखती है ।

शिक्षण प्रशिक्षण के इस खेल में संयुक्त परिवार के कारण कई पारिवारिक रिश्तेरदारों से सामना होता है, रेगिंग भी होती है जिसमें प्राचार्य के रूप में उसकी सास हर कदम पर उसे रोक टोंक कर सामाजिक बनाती है वहीं नंनद, जेठानियॉं व देवरानियों से स्वाभाविक प्रतिस्पर्धा के कारण उसकी खट पट चलती है पर उन सब के प्रति स्नेग व सम्मान की घूंटी भी वह इसी पाठशाला से पाती है । पुत्रवत देवर को अपनी व्यथा सुनाती बहु कहती है ‘सास गारी देवय, नंनद मुह लेवय देवर बाबू मोर ...’ । श्वसुराल में छोटे ननद देवरों के प्रति भाई बहन की भांति प्यार उडेलने का जजबा छत्तीसगढ की नारियों की परम्परा रही है । ‘छोटका देवर मोर बेटवा बरोबर’ कहने का तात्पर्य विशद है यह गीत यहां की नारियों के वात्सल्य को चित्रित करती है । नंनदों से खटपट के बावजूद भाभी पुत्र जन्म पर उन्हें मनपसंद साडी और सोने का ‘कोपरा’ देने की निष्छरल कामना रखती है वहीं क्षणिक क्रोधवश सास, नंनद व देवरानी, जेठानी के प्रसूता अवस्था में साथ नहीं दिये जाने पर अपने मायके से मॉं, बहन व भाभियों से अपनी प्रसूता कराने ‘कांकें पानी’ बनाने का गीत भी गाती है ।

इस संयुक्त परिवार की परिस्थितियों में परिवार के नारियों के बीच स्वाभाविक प्रतिस्पर्धा एवं जलन की भावना भी अंदर अंदर पनपते रहती है । ननद और भावज के बीच छुटपुट झडपें व असंतोष गीतों में प्रकट होती हैं । ननद अपने विवाह के बाद घर छूट जाने के दुख पर गाती है । ‘दाई ददा के इंदरी जरत हे, भउजी के जियरा जुडाय हो’ । मां पिता अपनी कमवय पुत्री को पराया घर भेज कर दुखी हैं पर भाभी रंगरेली नंनद को अपने घर से दूर भेजकर अपनी स्वतंत्रता के लिए खुश है क्योंकि उसे पता है कि छोटी ननद बहुत रंगरेली है सास को बात बात में चुगली लगाती है । ‘छोटकी नंनदिया बड रंगरेली हो, सास मेर लिगरी लगाय ।‘ इसी संयुक्त परिवार में नारी को नारी के द्वारा प्रतारण का भी उल्लेख मिलता है जो वर्चस्व की अंदरूणी लडाई है । नई आई वधु पर सब अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं कभी कभी तो यह दबाव इतना अधिक बढ जाता है कि उसे कहना पडता है कि ‘ठेंवत रहिथे ननंद जेठानी, लागथे करेजवा म ठेस, महुरा खा के मैं सुत जातेंव, मिट जाय मोर कलेश ।‘ इस पारिवारिक राजनीति व दमन के कष्ट को सहते हुए भी वधु अपने परिवार के हित की बात ही सोंचती है और कामना करती है कि अपनों से बडों को सम्मान और छोटों को स्नेह देती रहे । छोटी ननदों व देवरानियों पर तो उसका स्नेक अपार रहता है क्योंकि जो कष्ट उसने इस संयुक्त परिवार में शुरूआती दिनों में भोगें हैं वह उसके बाद आई बहुओं को न हो इसलिये वह देवरानियों का हर वक्त ध्यान रखती है उन्हें उचित आसन सम्मान देती है । ‘गोबर दे बछरू गोबर दे, चारो खूंट ला लीपन दे, चारो देरनियां ला बईठन दे ।‘

छत्तीसगढ में संयुक्त परिवार के साथ साथ रख्खी, बिहई जैसे बहुपत्नी‍ प्रथा का भी चलन रहा है जिसके कारण यहां के कुछ गीतों में नारी रूदन नजर आता है । सौतिया डाह में जो गीत मुखरित हुए है वह हृदय को तार तार कर देते हैं । सौतिया डाह का दर्द पत्नी के संपूर्ण जीवन में कांटे की तरह चुभता है तभी तो वह ‘मोंगरा’ में कहती है ‘पीपर के झार पहर भर, मधु के दुई पहर हो, सउती के झार जनम भर, सेजरी बटौतिन हो ।‘ एक लोकोक्ति में कहा गया कि ‘पीपर के पाना हलर हईया, दूई डौकी के डउका कलर कईया’ । लोकोक्तियों नें अपना प्रभाव समाज में छोडा है और अब यह प्रथा कही कहीं अपवाद स्वरूप ही समाज में है और धीरे धीरे बहु पत्नी प्रथा समाप्ति की ओर है । इस दुख के अतिरिक्त नारी जीवन में अन्यान्य विषम परिस्थितियां होती है जिससे वह लडते हुए आगे बढती है इसीलिये एक लोक गीतों में छत्तीसगढ की नारी ‘मोला तिरिया जनम झनि देय‘ का आर्तनाद करती है तो मन संशय से घिर जाता है कि यहां नारी की स्थिति ऐसी भी थी जिससे नारियों को अपने नारी होने की पीडा का अनुभव हुआ और उसने नारी के रूप में पुन: जन्म न देने के लिये इश्वर से पार्थना करना पडा । नारी के इस रूदन को आधुनिक युग में कहानियों व उपन्यासों में भी व्यक्त करने की कोशिसें की गई है । हमने नारी के इस दुख के पहलुओं को यहां के पारंपरिक गीतों और गाथाओं में कई बार तलाशने का प्रयत्न किया तो दुख के इस पडले से ज्यादा सुख एवं सम्मान का पडला हमें भारी नजर आया ।

संजीव तिवारी

कवि गोष्ठियों को ‘’भजन मंडलियॉं’’ मत बनाइये

तुलसीदास : ’’कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहँ हित होई (वही कीर्ति, रचना तथा सम्‍पत्ति अच्‍छी है, जिससे गंगा नदी के समान सबका हित हो)’’
सम सामयिक चेतना की छंद धर्मी, स्व . रामेश्वर गुरू तथा स्व. विश्वंभर दयाल अग्रवाल पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त मासिक पत्रिका ‘’संकल्प रथ’’ के जुलाई 2008 के संपादकीय में आदरणीय राम अधीर जी वर्तमान परिवेश में देश के गली कूचों पर धडा धड आयोजित होते कवि सम्मेलनों के संबंध में देश के ख्यात कवियों व साहित्य कारों के विचार कि आज के कवि सम्मेलन तो ‘’लाफ्टर शो’’ हो गए हैं, पर कहते हैं - ’’मुझे उनकी बातों से सहमत होना पडता है, किन्तु ऐसी खरी-खोटी टिप्पणी करने वाले ये गीतकार दो कौडी के हास्य कवियों के साथ मंचों पर क्यों बैठते हैं ? इसके पीछे उनकी धन-लोलुपता है । जबकि चुटकुलेबाजी में माहिर और विदेशों तक में जाने वाले कवियों नें हिन्दी कविता को द्रौपदी बनाकर रख दिया है । ऐसी दशा में नामवर गीतकारों को ऐसे मंचों का बहिष्कार करना चाहिये । जिन पर बहुत ही घटिया दर्जे के हास्य कवियों का जमवाडा हो । परन्तु , नहीं उन्हें तो पैसा चाहिये । मैं जहां तक समझता हूं हास्य-व्यंग के कवियों को हम नहीं सुधार सकते परन्तु नितांत ही चौथे दर्जे के श्रोताओं को सुधारना जरूरी है जो सबसे आगे बैठते हैं और कविता को मूंगफली खाते-खाते सुनते हैं । सवाल है कि कूसूरवार कौन है- आप या वे घटिया दर्जे के हास्य कवि ?’’
आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल : ‘’कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत् के बीच क्रमश: उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्‍यत्‍व की उच्‍च भूमि पर ले आती है ।’’


श्री राम अधीर जी के सवाल का जवाब देना हमारे लिये लाजमी भले ही न हो पर, उनके इस सवाल पर चिंतन आवश्यक है । आज कविता के स्तर कवि सम्मेलनों में परोसे जाने वाली फूहडता व नाटकीय भव्यता एवं इनकी बारंबारता को देखते हुए ही संपादक नें इसे ‘’भजन मंडली’’ मत बनाओ कहा है, और इन आयोजनों के कर्णधारों पर बरसते हुए वे कहते हैं - ’’मतलब यह कि जिन्हें कुछ लिखने-पढने से मतलब नहीं उनको आप कवि बनाने की ठेकेदारी कर रहे हैं, तो फिर यही उचित रहेगा कि गीत, गजल को मरने दीजिये । किसी की रचना को आपने कमजोर कह दिया तो वह नाराज हो जायेगा, यही डर आपको खाये जा रहा है तो गीत-गजल को बर्बाद करने वालों का आपकी ओर से अभिनन्दन होना चाहिये ।‘’

अजीत कुमार सिन्‍हा : ‘’वह उस तरह का साहित्‍य भी रचने लगता है, जो बहुत बार, शायद निकलता तो उसी के भीतर से है, पर खुद उसके भी अंतर में पहुँच नहीं पाता । औरों की बात उठाना यहॉं इसलिये मौजूं नहीं जान पडता, क्‍योंकि ऐसा कवि ‘उपजहि अनत, अनत छबि लहहीं (रचना उत्‍पन्‍न हो कवि के मन में, पर शोभा पाए अन्‍य लोगों के मन में) को बेमानी समझकर, रचना को एक ऐसा इंद्रजाल मानने लगा है, जो न कहीं उत्‍पन्‍न हो, न कहीं फैले, लेकिन ‘वाह’वाह’ चारो तरफ से सुनाई दे ।‘

आजकल इन भजन मंडलियों में शिरकत करने के लिये लालायित अनेकों कवि भी कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो गए हैं, दो शब्दों की तुकबंदी की या आडे तिरछे भावों को एक साथ मिलाकर काकटेल तैयार किया कागज में उकेरा और हो गए कवि, अब झेलो इन्हें । वर्तमान कविता पर हाल ही में प्रकाशित कृति ‘’इधर की हिन्दीं कविता’’ के लेखक अजीत कुमार सिन्हा जी जो अग्रज पीढी की महिला गीत-कवयित्री स्व.सुमित्रा कुमारी सिन्हा के प्रतिभासंपन्न सुपुत्र हैं, नें अपने लेख ‘गांव के लोगों तक कैसे पहुँची कविता’ पर समीक्षकों के दायित्व पक्ष पर जो विचार व्यक्त, करते हैं उसकी आज अहम आवश्यकता है - ’’बहरहाल, कवि क्या लिखे और कैसे लिखे  – तुलसीदास और शेखर की तरह अथवा केशवदास और पुंडरीक की तरह । इसके बारे में, न मैं कुछ कह सकने की स्थिति में हूँ, न यह अधिकार लेना चाहता हूं । लेकिन सोंचता जरूर हूं कि कविता के समीक्षक पर इसकी जिम्मेदारी है कि आज की कविता की विशेषता का विवेचन ऐसी भाषा में और इस ढंग से करें कि कविता का सौंदर्य अधिक से अधिक लोगों के लिए उजागर हो सके ।‘’

इस विषय पर चर्चा करते हुए हमारे एक ब्लाग पाठक मित्र कहते हैं कि यह बात तो तुम्हारे हिन्दी ब्‍लाग जगत में भी हो सकता है । तब वहां भी ऐसे समीक्षकों के टिपियाने की आवश्य‍कता पडेगी नहीं तो वहां भी कविता के नाम पर आरती संग्रह प्रकाशित होने लगेंगें । हमने कहा अभी हिन्‍दी ब्लाग में ऐसी स्थिति नहीं आई है और जब आयेगी तब तक समीक्षक लोग भी ब्‍लाग जगत में आ जायेंगें । क्‍या सोंचते हैं आप ????.

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...