छत्‍तीसगढ के प्रसिद्व राउत नाच के कुछ दोहे भावार्थ सहित

आवत देवारी ललहू हिया, जावत देवारी बड़ दूर।
जा जा देवारी अपन घर, फागुन  उडावे  धूर ।।

भावार्थ - दीवाली का त्‍यौहार जब आता है तब हृदय हर्षित हो जाता है, और जब दिवाली आकर चली जाती है तो उसका इंतजार बहुत कठिन होता है, साल भर उसका इंतजार करना पडता है। हे दीपावली, उत्‍सवधर्मी हमने आनंद मना लिया अब तुम जावो और फागुन को अपनी धूल उडाने दो यानी हमें होली की तैयारी में मगन होने दो।


भांठा देखेंव दुमदुमिया, उल्‍हरे देखेंव गाय हो।
ओढे देखेंव कारी कमरिया, ओही नंनद के भाय हो।।

(भांठा - उंची सपाट भूमि, दुमदुमिया - बिना कीचड का सूखा, भाय - भाई)
भावार्थ - अपने पति का परिचय देनें की काव्‍यात्‍मक प्रस्‍तुति तुलसीदास जी नें सीता के मुख से रामचरित मानस में जैसे की है वैसे ही छत्‍तीसगढी महिला अपने पति का परिचय दे रही है। गांव के बाहर भांठा में गायों की भीड है वहां काले कम्‍बल ओढा हुआ जो छबीला पुरूष है वही मेरी नंनद के भईया अर्थात मेरे पति हैं।

धन गोदानी भुईया पावा, पावा हमर असीस।
नाती पूत लै घर भर जावे, जीवा लाख बरीस।।

भावार्थ - आर्शिवचन देते हुए कहता है कि आपका घर धन,गायों  और भूमि सम्‍पत्ति से परिपूर्ण रहे, आप हमारा आशीष प्राप्‍त करें। आपका घर नाती-पोते से भर जाए और आप लाखो वर्ष जींए। यह अंत: करण से शुभकामना देना है।

(चित्र नई दुनिया, रायपुर से साभार)


मुख्‍यमंत्री रमन सिंह पारंपरिक रावत नाच श्रृंगार के साथ



 

(चित्र रूपेश यादव, रायपुर से साभार)
शेष फिर कभी ...

संजीव तिवारी

छत्‍तीसगढ की दीपावली मडई, गोवर्धन पूजा और रावत नाच

छत्‍तीसगढ के ग्रामीण मजदूर कमाने खाने लद्दाख के बरफबारी से बंद हुए सडकों को साफ करने से लेकर आसाम के चाय बागानों तक एवं दिल्‍ली के कालोनी निर्माण से लेकर मुम्‍बई के माल निर्माण तक संपूर्ण देश में कार्य करने जाते हैं, किन्‍तु दीपावली में वे अपने-अपने गांव लौट आते हैं। वहां की हिन्‍दी एवं सस्‍ती आधुनिक संचार यंत्रों के साथ छत्‍तीसगढी मिश्रित बटलर हिन्‍दी बोलते इन लोगों को इसी दिन का इंतजार रहता हैं। उत्‍सवधर्मी इन भोले भाले लोगों के साथ दीपावली मनाने हम भी हर साल गांव चले आते हैं। वहां गांव की सांस्‍कृतिक परंपराओं का आनंद लेते हैं।


कई गांवों में रावत नाच के साथ 'मडई' भी चलता है। मडई लम्‍बे खडे बांस में साडी-धोती और बंदनवार को बांधकर बनाया जाता है। इस मडई को गांव के मडईहा परिवार के लोग मन्‍नत मांगने के लिए बनाते हैं एवं गांव में दीपावली से लेकर 'मडई' मनाए जाने तक बनाए रखते हैं। जब भी रावत नाच पार्टी के साथ इन मडईहा परिवार को रावत नाच उत्‍सव या मातर आदि का निमत्रण दिया जाता है ये मडई रावत नाच के पीछे पीछे अपनी लम्‍बी पताका लिए मौजूद रहता है।
छत्‍तीसगढ में दीपावली की रात गउरा उत्‍सव के रूप में मनाया जाता है, यहां गांवों में दीपावली का असली मजा दीपावली के दूसरे दिन ही आता है, गावों में इस दिन को गोवर्धन पूजा के रूप में मनाया जाता है। कृषि प्रधान इस प्रदेश में पशुधन के महत्‍व को रेखांकित करने वाला यह त्‍यौहार गायों के श्रृंगार और पूजन का त्‍यौहार है। इस त्‍यौहार का संपूर्ण प्रतिनिधित्‍व यादव - ग्‍वालों (रावत) के समुदाय के हाथों रहता है, गांव में 'बाजा लगाने' (रावत नाच के साथ वाद्य यंत्र बजाने के लिए वाद्यकों के समूह एवं नृत्‍य करने के लिए स्‍त्री के रूपधारी पुरूषों को निश्चित पारिश्रमिक पर तय करना। इस पारिश्रमिक की व्‍यवस्‍था सामूहिक सहयोग से की जाती है) से लेकर मातर मनाने तक चलने वाला यह लगभग पंद्रह दिनो का उत्‍सव होता है। बाजे के साथ श्रृंगार किये हुए ग्‍वालों का समूह घर घर जाकर नृत्‍य करता है जिसे 'जोहारना' कहा जाता है 'ठाकुर जोहारे आयेन .... जैसे दोहों के साथ, रावत नाच प्रस्‍तुत किया जाता है।

भगवान कृष्‍ण के द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाकर बृजवासियों और गोधन की रक्षा करने की स्‍मृति को जीवंत बनाने के लिए गोवर्धन पूजा किया जाता है। ग्‍वालों का विश्‍वास है कि वे यदुवंशी कृष्‍ण के वंशज है इसलिए वे परंपरागत रूप से इस त्‍यौहार को मनाते आ रहे हैं जो संपूर्ण छत्‍तीसगढ में मनाया जाता है। इस दिन सुबह गायों की पूजा की जाती है और उन्‍हें 'खिचडी' खिलाई जाती है। संध्‍या गांव के सहडा देव (जो सांढ देवता के रूप में पूज्‍य होता है)के पास गोवर्धन पर्वत के प्रतीक के रूप में गाय के गोबर से गोवर्धन भगवान की प्रतिकृति बनाई जाती है, एवं ग्‍वालों की पत्नियां उसकी पूजा करती हैं।

इधर ग्‍वाले बाजे गाजे के साथ अपने पारंपरिक रावत नाच नाचते हुए गांव के प्रत्‍येक घर जा-जा कर घरवालों को 'गोवर्धन पूजा' हेतू बुलाते हैं। जब गोधुली बेला में सारा गांव सहडा देव के पास इकत्रित हो जाता है ग्‍वाले गोवर्धन देव में नारियल अर्पित कर पूजा करते हैं और छोटे बछडे के पावों से उस गोवर्धन की प्रतिकृति को रौंदवाते हैं। इसके बाद गांव के सभी गायों को उस गोवर्धन की प्रतिकृति से गुजारा जाता है। गोवर्धन की प्रतिकृति को इस तरह से गायों के खुरों से रौंदवाने को देखकर हर बार मेरे मन में बचपन में सुने किस्‍से के अनुसार इंद्र का वह कोप जीवंत हो उठता है जब बृजवासियों एवं गायों पर भीषण वर्षा करके इंद्र नें अपना तूफानी कहर बरपाया था और नंदकिशोर नें कंदुक सम विशाल गोवर्धन पर्वत को तर्जनी उंगली में उठाकर इनकी रक्षा की थी। जहां तक मुझे लगता है कि इन ग्‍वालों के द्वारा 'गोवर्धन खुदवाना' इंद्र का मान मर्दन करना ही है, कभी इन पहलुओं पर विस्‍तृत लिखूंगा।


गोवर्धन खुंदवाने के बाद गोवर्धन की प्रतिकृति के बिखरे गोबर को बडे बुर्जुगों के माथे पर लगा कर आर्शिवाद ली जाती है। अजब प्रेम है यहां का, बेमोल गोबर को माथे में लगाकर सम्‍मान करने की इस परंपरा का सम्‍मान इस प्रदेश के सभी रहवासियों को करना ही चाहिए।



हे ग्राम्‍य देवी, हमारे स्‍नेह की बाट जोहते इन ग्रामीण बच्‍चों की चेहरों में मुस्‍कान और इनकी आंखों में दीपों की आभा देखने हम हर दीपावली आते ही रहेंगें।

संजीव तिवारी

छत्‍तीसगढी तिहार - पोला और किसानों की पीड़ा

आज छत्‍तीसगढ़ में पोला पर्व मनाया जा रहा है. पोला पर्व प्रतिवर्ष भाद्र कृष्ण पक्ष अमावस्या को मनाया जाता है. पूरे देश में भयंकर सूखे की स्थिति को देखते हुए सब तरफ त्‍यौहारों की चमक अब फीकी रहने वाली है. फिर भी हर हाल में अपने आप को खुश रखने के गुणों के कारण भारतीय किसान अपनी-अपनी क्षेत्रीय संस्‍कृति के अनुसार अपने दुख को बिसराने का प्रयत्‍न कर रहे हैं.

छत्‍तीसगढ़ में अभी कुछ दिनों से हो रही छुटपुट वर्षा से किसानों को कुछ राहत मिली है किन्‍तु सौ प्रतिशत उत्‍पादन का स्‍वप्‍न अब अधूरा ही रहने वाला है. फिर भी अंचल में पर्वों का उत्‍साह बरकरार है. छत्‍तीसगढ़ में एक कहावत है 'दहरा के भरोसा बाढ़ी खाना' यानी भविष्‍य में अच्‍छी वर्षा और भरपूर पैदावार की संभावना में उधार लेना,  वो भी लिये रकम या अन्‍न का ढ़ेढ गुना वापस करने के वचन के साथ. किसान गांव के महाजन से यह उधार-बाढ़ी लेकर भी त्‍यौहारों का मजा लूटते हैं. पोरा के बाद तीजा आता है और गांव की बेटियां जो अन्‍यत्र व्‍याही होती है उन्‍हें मायके लाने का सिलसिला पोला के बाद आरंभ हो जाता है. बहन को या बेटी को मायके लिवा लाने के लिये कर्ज लिये जाते हैं, ठेठरी - खुरमी बनाने के लिए कर्ज लिये जाते हैं और '‍तीजा के बिहान भाय सरी-सरी लुगरा' बहन-बेटियों को साड़ी भेंट की जाती है वो भी उसके मनपसंद, तो इसके लिये भी कर्ज. फिर भी मगन किसान. मैं भी जड़ों से किसान हूं इस कारण उनकी पीड़ा मुझे सालती है किन्‍तु इसके बावजूद उनके एक दूसरे के प्रति प्रेम व त्‍यौहारों के बहाने खुशी जाहिर करना वर्तमान यंत्रवत जीवन में बिसरते  और बिखरते आपसी संबंधों को बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है.

आप सभी को पोला पर्व की हार्दिक शुभकामनांए ..............

छत्‍तीसगढ़ी तिहार : तीजा - पोरा पढ़ें संजीत त्रिपाठी जी के ब्‍लाग 'आवारा बंजारा' में .

संजीव तिवारी   

आस्‍था की व्‍यावसायिकता या जड़ों की कीमत

सुबह घर से आफिस के लिये निकलने से लेकर रात को घर के लिये वापस आफि़स से निकलते तक श्रीमति जी नें बीसियों बार याद दिलाया कि घर आते समय बाजार से पूजा का सामान लेते आना, कल हलषष्‍ठी है.
छत्‍तीसगढ में पिछले रविवार से कुछ अच्‍छी बारिश हो रही है जो आज तक धीरे धीरे चल रही थी. हम आफिस से इंदिरा मार्केट दुर्ग पहुंचे, देखा रिमझिम बारिश के बावजूद मार्केट के पहले से ही छतरियों का रेला लगा हुआ था. जैसे तैसे गाडी पार्क कर हम थैला हाथ में लेकर आगे बढ़े. मार्केट के बाहर ही 'खमरछठ' (हलषष्‍ठी को छत्‍तीसगढ़ में खमरछठ कहा जाता है) के पूजा सामान बेचनें वाले 'पसरा' फैलाये बैठे थे. पसहर चांवल (ऐसा अन्‍न जो गांव में तालाबों के किनारों में स्‍वमेव ही उगता है और जिसे पकने पर सूप से झाड़ कर इकत्रित कर, कूट कर चांवल बनाया जाता है), महुये के फल, पत्‍ते, उसी के लकड़ी के दातौन व बिना जुते हुए भूमि से स्‍वाभाविक रूप से उगे शाक वनस्‍पतियों के पांच प्रकार की भाज़ी इत्‍यादि के बाजार सजे थे. लोग उन्‍हें खरीदने पिल पडे थे.

कौड़ी के मोल इन चीजों को हमने भी बहत ज्‍यादा कीमत में खरीदा. फिर डेयरी में लाईन लगा कर गाय के दूध उत्‍पादों के स्‍थान पर हलषष्‍ठी में प्रयोग होने वाले भैंस के दूध, दही और घी खरीदा. फिर याद आया कि पूजा सामानों के साथ चांवल और भाजी तो लिया पर बिना हल जुते उगे मिर्च को लेना रह गया. पूरा बाजार पुन: छान मारा पर वह मिर्च कहीं नहीं मिला. जब बाजार से बाहर निकल रहा था तभी एक 'पसरे' में वह मिर्च दिखा, मटर के दानों जैसा. लोगों की भीड वहां भी थी. हमने कीमत पूछा तो उसने बतलाया कि दस रूपये का एक. मुझे लगा कुछ गलत सुन लिया हूँ, पुन: पूछा तो 'पसरे' वाली बाई ने कुछ तुनकते हुए कहा कि हॉं दस रूपये का एक है.लोग मुट्ठी भर शेष बचे उस छोटे-छोटे मिर्च को छांट-छांट कर खरीद रहे थे. मैंनें सोंचा कि यदि कुछ पल और रूका तो पूरा मिर्च बिक जायेगा. सो मैंनें भी छांटकर तीन मिर्च लिये और चुपचाप तीस रूपया उसके हाथ में धर दिये.

हमें अपने गांव के दिन याद हैं वहां ये सब सामान सहज रूप से उपलब्‍ध हो जाते थे, बहुत ही कम कीमत में. पर शहर, गांवों के सहज चीजों की कीमत तभी जानती है जब उसकी आवश्‍यकता हो या वह आस्‍था से जुड जाए. कुछ भी हो, आस्‍था जड़ों से पैदा होती है और जड़ों से जुड़ने के लिये कीमत कोई मायने नहीं रखती.

संजीव तिवारी

छत्‍तीसगढ़ के इस त्‍यौहार के संबंध में पढ़ें मेरी पुरानी पोस्‍ट -
बहुराचौथ व खमरछट : छत्‍तीसगढ़ के त्‍यौहार

(यह पोस्‍ट आदरणीय रवि रतलामी जी द्वारा प्रदत्‍त नया मंगल फोंट से लिखा गया है)

हरेली, टोनही और अंधविश्‍वास : यादों के झरोखों से

आधुनिक संदर्भो में हरेली छत्‍तीसगढ में पर्यावरण जागरण के हेतु से मनाया जाने वाला त्‍यौहार है पर जडो तक फैले अंधविश्‍वास के कारण अधिसंख्‍यक जनता के लिये यह त्‍यौहार तंत्र मंत्र एवं तथाकथित अलौकिक ज्ञान के 'रिवीजन' का त्‍यौहार है. इस संबंध में राजकुमार जी नें पिछले दिनों अपने पोस्‍ट में छत्‍तीसगढ के बहुचर्चित टोनही के संबंध में लिखा. हम भी इस टोनही के संबंध में बचपन से बहुत कुछ सुनते आये हैं. टोनही के संबंध में किवदंतियों से लेकर साक्षात अनुभव के साथ ही इसके बहाने नारी प्रतारणा के किस्‍से छत्‍तीसगढ में सर्वाधिक देखने को मिलते हैं. शासन द्वारा टोनही निवारण अधिनियम बनाना एवं इसे लागू करना इस बात का सबूत है कि छत्‍तीसगढ में इस समस्‍या की पैठ गहरे तक है. टोनही के मिथक को तोडने के साथ साथ अंधश्रद्धा निर्मूलन के लिये हमारे ब्‍लागर साथी एवं देश के ख्‍यात वनस्‍पति शास्‍त्री डॉ. पंकज अवधिया जी अपने मित्रों के साथ निरंतर प्रयासरत है.
Srcid=7500;Adty=1;Width=468;Height=60;Skin=0;

गांव से जुडे प्रत्‍येक व्‍यक्ति के साथ टोनही के कुछ न कुछ अनुभव या फिर कहें अनूभूति रही है. मेरे जीवन का आधा हिस्‍सा गांवों में गुजरा है और मैं भी इससे अछूता नहीं रहा हूं. बहुत सारे व्‍यर्थ और विश्‍वास न किये जा सकने वाले बकवास के साथ ही मुझे एक घटना याद आ रही है. सन् 1984-85 की बात है हम अपने दोस्‍तों के साथ अपने गांव के किनारे से बहती शिवनाथ नदी के किनारे हरेली की रात लगभग दस बजे तक बैठे गप्‍पें लडा रहे थे, उस समय तक हमारे गांव में बिजली की किरण विकास की गाथा कहते आई नहीं थी. गांव में रात को दस बजे का समय यानी आधी रात का समय होता है. साथियों में कुछ लाठी भांजने के हुनर को और कुछ मंत्रों को 'लहुटाने' (दुहराने) हेतु नदी किनारे के कछारू मैदान और नदी तट से लगे मरघट में अपने अपने उस्‍ताद और गुरू के साथ चले गए थे. हम जिन्‍हें इन सबमें दिलचस्‍पी नहीं थी उफनते नदी के तट में बैठ कर उन दोस्‍तों पर छींटाकसी करते अपनी बातों में मशगूल थे. अंधेरा गहरा था थोडी बहुत बिजली चमक रही थी और हवा कुछ तेज चल ही थी बाशि बंद थी.

इसी समय हमारे बीच दो तीन मांत्रिक मित्र दौंडते हुए आये, उन्‍होंनें हमें नदी के उस पार हांथों के इशारे से कुछ दिखाया. नदी के उस पार तट में ही बार बार 'बंब-बंग' (तेजी से उठते-बुझते) कोई चीज थी. उसने उसे टोनही कहा. हम लोग फिर हंसने लगे पर वह लपट जब निरंतर उपस्थित रही एवं मांत्रिक मित्रों नें विश्‍वास के साथ कहा कि वो टोनही है और लाश 'जगाने' आई है. लोग कहते हैं कि टोनही जब 'झूपती' (तांत्रिक क्रिया करते हुए नृत्‍य करती) है तो अपने मुंह में जडी डाल लेती है, उसके नृत्‍य और मंत्र बुदबुदाने के कारण उसके मुंह से लार बहने लगता है वह लार ही 'बंग-बंग' 'बरती' है. यह बात सत्‍य थी कि जहां पर वह लपट जलती बुझती थी उसी जगह पर पहले दिन किसी लाश को दफनाया गया था और हम सबने उस दिन नहाने के समय नदी तट के पार से इसे देखा था. फिर भी हमें विश्‍वास ही नहीं हो रहा था और हम सब टोनही के अस्तित्‍व पर पुन: हंसने लगे और मांत्रिक मित्रों के साथ इसी बात पर तकरार कुछ बढ गई, बात हिम्‍मत पे अटक गई. इसी बीच हमारे एक नाविक मित्र नें तट पर बंधा नाव तैयार कर दिया कि चलो देखकर आते हैं. हां-नां के बाद नाविक के साथ दो मांत्रिक, मैं और मेरे दो चचेरे भाई उस पार जाने के लिये नाव में चढ गये, हम सबके पास एवरेडी टार्च थी.

हम टारगेट स्‍थल से लगभग आधा पौन किलोमीटर नदी के बहाव के विपरीत नदी में आगे बढने लगे, उफनती नदी के उस पार यदि जाना है तो जहां दूसरी ओर नांव को 'झोंकाना है' (किनारे लगाना है) उससे बहाव और नदी के वेग को देखते हुए अनुमान लगाकर नाव को पहले इसी किनारे पर विपरीत दिशा में आगे ले जाना होता है फिर नाव को धारा में डाल दिया जाता है और पैंतालीस अंश का कोण बनाते हुए नाव पतवार के जोर से दूसरे किनारे के टारगेट स्‍थल पर पार लग जाती है एकदम सटीक मीटर भर की चूक नहीं होती. जब तक हम धारा के विपरीत चलते रहे उस पार जल रही वह रौशनी इस तरह जल बुझ रही थी जैसे नाच रही हो और मांत्रिक दोस्‍त उसके हर रौशनी में चहक रहे थे. ओ देख, ये देख. और जैसे ही हमने नाव को बीच धारा में डाला रौशनी दूर होने लगी, नांव तो छूट चुकी थी, हमारे उस पार जाने में लगभग आधा घंटे लग गए होंगें तब तक रौशनी का नामों निशान नहीं था. हम सब नाव से उतर कर टार्च की रौशनी के सहारे उस जगह तक गए जहां लाश दफनाई गई थी वहां किसी भी प्रकार के ताजा पूजा के चिन्‍ह नहीं मिले, हम टार्च की रौशनी दूर दूर तक मार के देख रहे थे पर मांत्रिक दोस्‍तों के अनुसार टोनही अपना काम करके चली गई थी और हमारे अनुसार से यह कोई भ्रम था. नदी पार कर हम वापस अपने अपने घर आ गए. उस दिन के बाद गांव में एवं यहां वहां तथाकथित टोनहियों को 'झूपते' कई बार देखा गया पर हमें इस पर विश्‍वास नहीं रहा. या यूं कहें कि आत्‍मबल के सामने टोनही टिक नहीं पाई.

मेरे पिता तंत्र-मंत्र आदि में विश्‍वास रखते थे और लोगों का कहना है कि वे इस विद्या में पारंगत थे. उनके जीते जी लोगों का सोंचना था कि उन्‍होंनें अब तक अपना कोई चेला नहीं बनाया है इसलिये लोगों नें यह धारणा बना ली थी कि मेरे पिता मुझे वह तंत्र ज्ञान देने वाले हैं या दे दिया है. किशोरवय में उत्‍सुकता वश मैंनें पिता के कई ऐसे काम किये हैं जो अजीब रहे या तथकथित तंत्र साधना से जुडे हुए थे. मुझे याद है एक बार वे मुझे मेरे अम्बिकापुर प्रवास के समय अम्बिकापुर जेल के पीछे स्थित शमशान से किसी पांसी लगाई कुंवारी 'बरेठिन' (धोबिन) के टांग की हड्डी मंगा लिये थे और मैं उत्‍सुकतावश एवं दोस्‍तों में रौब गांठने के उद्देश्‍य से वहां से चार टांग की हड्डी खोद लाया था. वहां की मिट्टी रेतीली थी और नाले के कटाव के कारण हड्डियां बिखरी हुई थी मैंनें अंदाज से हड्डियां उठा लिया था. वहां मुझे एक छोटी लगभग 90 प्रतिशत साबूत खोपडी भी मिली थी जो बहुत दिनों तक मेरे पास रही फिर बाद में मेरे पिता नें उसे 'तथाकथित' पैशाचिक क्रिया के बाद शिवनाथ के हवाले किया था. इन सबके कारण लोगों को विश्‍वास हो चला था कि मैं भी इस विद्या में दक्ष हूं. मेरे नानूकूर के बावजूद गांव में आज भी यह झूठ बरकरार है. मेरे गांव में टोनही मेरे सामने 'झूप' नहीं पाती.

बढिया जोक है ना.

संजीव तिवारी

11 वीं सदी से लुट रहा है बस्‍तर ...

प्रदेश के गठन के पूर्व परिदृश्‍य में छत्‍तीसगढ का नाम आते ही देश के अन्‍य भागों में रह रहे लोगों के मन में छत्‍तीसगढ की जो छवि प्रस्‍तुत होती थी उसमें बस्‍तर अंचल के जंगलों से भरी दुर्गम व आदिम दुनिया प्रमुख रूप से नजर आती थी। अंग्रेजों के समय से देशी-विदेशी फोटोग्राफरों नें बस्‍तर की आदिम दुनियां और घोटुल जैसे पवित्र परम्‍पराओं को कुछ इस तरह से प्रचारित किया था कि बरबस उस पर लोगों का ध्‍यान जाये। लोगों की नजर इस सुरम्‍य अंचल को लगी और अब स्थिति कुछ ऐसी है कि सर्वत्र विद्यमान संस्‍कृति व परंम्‍परांओं के संरक्षण व संवर्धन की आवश्‍यकता पड रही है।

Srcid=7500;Adty=1;Width=468;Height=60;Skin=0;



विगत दिनों दैनिक छत्‍तीसगढ में एक समाचार पढने को मिला जिसके अनुसार बस्‍तर के बैलाडीला में 1065 ई. में चोलवंशी राजा कुलुतुन्‍द नें पहली बार यहां के लोहे को गलाकर अस्‍त्र शस्‍त्र बनाने का कारखाना बनाया था। निर्मित हथियारों को बैलगाडियों से तंजाउर भेजा जाता था, बहुत बडी मात्रा में निर्मित हथियारों के बल पर चोलवंशियों नें पूर्वी एशियाई देशों में 11 वी शताब्दि के मध्‍यकाल में अपना साम्राज्‍य स्‍थापित कर लिया था।

यानी लौह अयस्‍क खोदने के लिये नन्‍दराज पर्वत सहित समूचे बस्‍तर की खुदाई सदियों से समय समय पर की जाती रही है, बस्‍तर का लोहा, बस्‍तर का हीरा, बस्‍तर की वन सम्‍पदा सबके काम आई, लडाईयां लडे गये, अकूत धन संग्रह किये गये और की‍र्तिमान स्‍थापित किये गये। बस्‍तर का आदिवासी अपना सब कुछ लुटाता रहा. सहनशीलता की पराकाष्‍ठा पर समय समय पर रक्तिम विद्रोहों में भी शामिल होता रहा किन्‍तु उसके हाथ कुछ भी तो नहीं आया।


जल पर उद्योगपतियों और एनजीओ की नजर है

जंगल नक्‍सलियों के कब्‍जे में है

जमीन का अब क्‍या करेंगें उन्‍हें रहना कैम्‍पों में है


उसके पास सिर्फ और सिर्फ उसका लंगोट है. आजकल उसने इसके भी लुट जाने के डर से उपर से लुंगी पहन लिया है.

संजीव तिवारी

छत्‍तीसगढ में भी लालगढ जैसे केन्‍द्रीय संयुक्‍त आपरेशन क्‍यूं नहीं

छत्तीसगढ में नक्सली तांडव को देखते हुए सचमुच में प्रत्येक व्यक्ति के मुह से अब बरबस निकल रहा है कि अब पानी सिर से उतर चुका है. किन्तु इस समस्या से निबटना यदि इतना आसान होता तो पिछले कई दसकों से फलते फूलते इस अमरबेल को कब का नेस्तानाबूत कर दिया गया होता. बरसों से छत्तीतसगढ के लोग देख रहे हैं, उनकी बोली गोली है वे किसी राजनैतिक समाधान में विश्वास रखते ही नहीं। नक्सलियों का स्वरूप हिंसा है, बिना हिंसा के उनका अस्तित्व ही नहीं है। उनके सिद्धांतों के अनुसार ‘सर्वहारा के अधिनायकत्व में क्रांति को निरंतर जारी रखना’ व ‘आक्रमण ही आत्मरक्षा का असली उपाय है’ और क्रांति व आक्रमण संयुक्त रूप से हिंसा के ध्योतक हैं। सिद्धांतों और वादों की घूंटी पीते-पिलाते हिंसा को अपना धर्म मानते नक्सली राह से भटक गये हैं और अब आर्गनाईज्ड क्राईम कर रहे हैं जिसमें वसूली इनका सबसे बडा धंधा हो गया है।

इस धंधे की साख बरकरार रखने एवं अपने आतंक को प्रदर्शित करने के लिए निरीह लोगों व पुलिस वालों की बेवजह हत्यायें की जा रही है। सामान्य जनता तो यहां तक कहती है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जिनके पास पैसे हैं वे इन्हें बेखौफ-बेरोकटोक जंगलों के सडकों में आने जाने के लिए पैसे देते हैं। ऐसा कई बार सुनने में आता है एवं लोगों की स्वाभाविक प्रथम अभिव्यक्ति रहती है कि नेता, व्यापारी, ठेकेदार वनविभाग के कर्मचारी से लेकर अधिकारी तक नक्सलियों को पैसे देकर अपनी खैरियत सिक्योर करते हैं। जो इन्हें पैसे नहीं देते उनकी मौत एरिया कमांडरों की गोलियों से हो जाती है। वसूली से प्राप्त इन पैसों से मैदानी इलाकों में बैठे इनके आका-काका माओ और मार्क्सो के सिद्धांतों पर धनियां बोंते पूंजीपतियों की भांति आराम फरमाते हैं और नक्सली स्वयं सर्वहारा के रूप में इनके लिये खून बहाते वसूली करते हैं। विगत दिनों झारखण्ड के एक नक्सली नेता का इंटरव्यू दैनिक छत्तीसगढ के मुख्य पृष्ट पर छपा था जिसमें उन्होंनें स्वींकार किया था कि उनके आय का मुख्य जरिया वसूली है उसमें उसने वसूली के रकम को करोडो में बताया था। मीडिया, पुलिस एवं जनमानस से जो बातें उभरकर सामने आ रही है उसका सार यही है। इन आपराधिक संगठनों के संविधान विरोधी कार्य पर शीध्रातिशीध्र नियंत्रण आवश्यक है। राज्‍य सरकार के मत्‍थे सारी जिम्‍मेदारी डाल देनें से केन्‍द्र बरी नहीं हो जाता छत्‍तीसगढ में भी लालगढ जैसे केन्‍द्रीय संयुक्‍त आपरेशन की आवश्‍यकता है। 

सर्वश्रेष्‍ठ टिप्‍पणीकार ब्‍लागर डॉ.चंद्रकुमार जैन

एक अप्रैल को प्रकाशित छत्‍तीसगढ के एक समाचार पर बरबस निगाहें जम गई क्‍योंकि समाचार हमारे ब्‍लाग जगत के प्रिय, राष्ट्रपति-पदक एवं छत्तीसगढ़ राज्य शिखर सम्मान से विभूषित  डॉ.चंद्रकुमार जैन जी से संबंधित था । डॉ.जैन के ब्‍लाग का अवलोकन मैं उनके दूसरे पोस्‍ट से ही कर चुका था उसके बाद मेरे नेट पर सक्रिय रहने तक लगभग प्रत्‍येक दिन मैं उनके ब्‍लाग का अवलोकन करता था एवं अपेक्षा करता था कि उनकी टिप्‍पणी मुझे मिले, उनकी दो चार टिप्‍पणिया मुझे आर्शिवाद के रूप में प्राप्‍त भी हुई हैं फिर मैं अनियमित रहने लगा सो उनके ब्‍लाग का अवलोकन नियमित नहीं कर पाया । उनके संबंध में मुझे पहले-पहल संजीत त्रिपाठी जी नें यह जानकारी दी कि वे उनके पुराने पोस्‍टों पर भी टिप्‍पणियां कर रहे हैं और संजीत जी नें मुझसे उनका फोन नम्‍बर भी मांगा, किन्‍तु मैं इन मामलों में बिल्‍कुल मस्‍त मौला हूं ब्‍लागों के उदगम समय से निरंतर अवलोकन करने के बावजूद भी ब्‍लागर से तात्‍कालिक संबंध बना पाने में किंचित सुस्‍त । अत: मेरे पास उनका नम्‍बर नहीं था । बाद में संजीत जी को उनका नम्‍बर भी मिला और अजीत वडनेरकर सहित सभी ब्‍लाग मित्रों से संजीत जी की बातें भी होती रही है ।

छत्‍तीसगढ के साहि‍त्तिक बिरादरी में डॉ.जैन जी का नाम सम्‍मान से लिया जाता है, सो उनके संबंध में संक्षिप्‍त जानकारी मुझे थी । उनके ब्‍लाग की कविताओं एवं दमदार टिप्‍पणियों नें उनका पूर्ण परिचय करा दिया था। उनके संबंध में छपे समाचार को देखकर उत्‍सुकता हुई और मन हुआ कि इस खुशी को मित्रों के साथ बांटा जाए । समाचार ज्‍यों का त्‍यों प्रस्‍तुत है –

राजनांदगांव, 1 अप्रैल । कालेज के डॉ.चंद्रकुमार जैन को अंतरजाल के लोकप्रिय सर्च इंजन गूगल के नियमित पाठक समूह का सदस्‍य बनाया गया है । इसके साथ ही सतत् सार्थक लेखन करते हुए समसामयिक विमर्श में शसक्‍त और प्रभावशाली हस्‍तक्षेप के आधार पर उन्‍हें वर्ष 2008-09 का सर्वश्रेष्‍ठ टिप्‍पणीकार घोषित किया गया है । गौरतलब है कि भोपाल, नई दिल्‍ली, मुम्‍बई, बैंगलूर, कोलकाता सहित विदेशों में रहने वाले कई भारतीय कवि लेखक तथा पत्रकारों नें डॉ.चुद्रकुमार जैन की मर्मस्‍पर्शी लेखनी, कथन शैली के अलावा उनकी संक्षिप्‍त सारगर्भित और व्‍यंजना गुण युक्‍त टिप्‍पणियों को मील का पत्‍थर करार दिया है । प्रिंट और इलैक्‍ट्रानिक मीडिया से ढाई दशक से राष्‍ट्रीय स्‍तर पर जुडे अजित वडनेरकर नें इन तमाम खूबियों का जिक्र करते हुए डॉ. जैन का परिचय नेट पर जारी किया है । उधर प्रख्‍यात कवि-लेखक उदय प्रकाश नें भी डॉ.जैन को संदेश प्रेषित कर उनकी लीक से अलग क्षमता की सराहना की है ।
डॉ.चंद्रकुमार जैन जी को हमारी भी बहुत बहुत शुभकामनायें ।

पुछल्‍ला -

देश के प्राय: सभी समाचार पत्रों में अब ब्‍लागों के संबंध में नियमित स्‍तंभ प्रकाशित हो रहे हैं जिनमें से छत्‍तीसगढ में भी कुछ समाचार पत्र आते हैं किन्‍तु छत्‍तीसगढ से सक्रिय ब्‍लागों का जिक्र छत्‍तीसगढ के प्रिंट मीडिया वाले बहुत कम करते हैं या करना ही नहीं चाहते ।  यहां मैं आदरणीय अनिल पुसदकर जी से क्षमा सहित कहना चाहूंगा कि कुछ फीचर विभाग के तथाकथित पत्रकार  भले ही हिन्‍दी ब्‍लागों के समाग्रियों को कापी कर या फिर उसके विषय वस्‍तु का सहारा लेकर समाचार या कवर स्‍टोरी को रंग दे देंगें किन्‍तु एकाध समाचार पत्र को छोडकर अधिकतम समाचार पत्र वाले संदर्भो  की जानकारी ही नहीं देंते।  ऐसी परिस्थितियों में डॉ.जैन के इस समाचार को समाचार पत्र में पढ कर खुश होना लाजमी है ।

बैल ने खाये 15 हजार रूपए

खबर है कि छत्‍तीसगढ के नक्‍सल प्रभावित क्षेत्र के दुर्गूकोंदल इलाके के गांव कोडेकुर्से में एक किसान लक्ष्‍मण चुरेन्‍द्र ने अपने खेतों के फसलों को बेंचकर बैंक में पैसा जमा करवाया था । अपनी पत्‍नी के इलाज के लिये उसने विगत दिनों बैंक से बीस हजार रूपया निकाला और गांव जाकर अपनी पत्‍नी को दे दिया । उसकी पत्‍नी उसी समय घर के बैल को बांधने लग गई पैसे को उसने अपने आंचल में बांध लिया, बैल, रूपये उसकी आंचल से मुह मार कर खाने लगा, बैल के मुंह से बडी मुस्किल से लक्ष्‍मण की बीबी पांच हजार छीन पाई बाकी के पंद्रह हजार बैल हजम कर गया ।

बस्‍तर में राजकीय अनुदान व सहायता के संबंध में पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी जी का आंकलन था कि दिल्‍ली से सहायता के रूप में चला सौ रूपया, बस्‍तर के आदिवासियों के हाथों तक पहुंचते पहुंचते अट्ठारह रूपये रह जाता है । यानी बाकी के 82 रूपये आदिवासियों के हित के लिए  स्‍वांग रचने वाले नेता, अफसर व एनजीओ खा जाते हैं, । अब इस बैल को कौन समझाये कि जो नोट इसने खाये वो सरकारी सहायता के नहीं थे आदिवासी के मेहनत से कमाये नोट थे ।


पुछल्‍ला -
पिछले दिनों पूर्व गृह राज्‍य मंत्री चिन्‍मयानंद जी के साथ पूरे एक दिन बिताने को मिला । चर्चा में यह भी 'ज्ञात' हुआ कि पिछले विधान सभा चुनाव में उनके प्रयास से बस्‍तर के ग्‍यारह सीट रमन के झोली में पडे और रमन की सरकार बन सकी । अब जो भी हो कम से कम एक दिन उनके साथ रहने पर बस्‍तर के मौजूदा हालात पर केन्‍द्रीय गृह मंत्रालय की सोंच की आंशिक जानकारी प्राप्‍त हुई । फिर कभी इस मसले पर विस्‍तृत लिखुगा, तब तक के लिए इस माईक्रो पोस्‍ट से अपनी निरंतरता कायम रखने का प्रयास कर रहा हूं । 
  
संजीव तिवारी

.

.
छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...