हरेली, टोनही और अंधविश्‍वास : यादों के झरोखों से

आधुनिक संदर्भो में हरेली छत्‍तीसगढ में पर्यावरण जागरण के हेतु से मनाया जाने वाला त्‍यौहार है पर जडो तक फैले अंधविश्‍वास के कारण अधिसंख्‍यक जनता के लिये यह त्‍यौहार तंत्र मंत्र एवं तथाकथित अलौकिक ज्ञान के 'रिवीजन' का त्‍यौहार है. इस संबंध में राजकुमार जी नें पिछले दिनों अपने पोस्‍ट में छत्‍तीसगढ के बहुचर्चित टोनही के संबंध में लिखा. हम भी इस टोनही के संबंध में बचपन से बहुत कुछ सुनते आये हैं. टोनही के संबंध में किवदंतियों से लेकर साक्षात अनुभव के साथ ही इसके बहाने नारी प्रतारणा के किस्‍से छत्‍तीसगढ में सर्वाधिक देखने को मिलते हैं. शासन द्वारा टोनही निवारण अधिनियम बनाना एवं इसे लागू करना इस बात का सबूत है कि छत्‍तीसगढ में इस समस्‍या की पैठ गहरे तक है. टोनही के मिथक को तोडने के साथ साथ अंधश्रद्धा निर्मूलन के लिये हमारे ब्‍लागर साथी एवं देश के ख्‍यात वनस्‍पति शास्‍त्री डॉ. पंकज अवधिया जी अपने मित्रों के साथ निरंतर प्रयासरत है.
Srcid=7500;Adty=1;Width=468;Height=60;Skin=0;

गांव से जुडे प्रत्‍येक व्‍यक्ति के साथ टोनही के कुछ न कुछ अनुभव या फिर कहें अनूभूति रही है. मेरे जीवन का आधा हिस्‍सा गांवों में गुजरा है और मैं भी इससे अछूता नहीं रहा हूं. बहुत सारे व्‍यर्थ और विश्‍वास न किये जा सकने वाले बकवास के साथ ही मुझे एक घटना याद आ रही है. सन् 1984-85 की बात है हम अपने दोस्‍तों के साथ अपने गांव के किनारे से बहती शिवनाथ नदी के किनारे हरेली की रात लगभग दस बजे तक बैठे गप्‍पें लडा रहे थे, उस समय तक हमारे गांव में बिजली की किरण विकास की गाथा कहते आई नहीं थी. गांव में रात को दस बजे का समय यानी आधी रात का समय होता है. साथियों में कुछ लाठी भांजने के हुनर को और कुछ मंत्रों को 'लहुटाने' (दुहराने) हेतु नदी किनारे के कछारू मैदान और नदी तट से लगे मरघट में अपने अपने उस्‍ताद और गुरू के साथ चले गए थे. हम जिन्‍हें इन सबमें दिलचस्‍पी नहीं थी उफनते नदी के तट में बैठ कर उन दोस्‍तों पर छींटाकसी करते अपनी बातों में मशगूल थे. अंधेरा गहरा था थोडी बहुत बिजली चमक रही थी और हवा कुछ तेज चल ही थी बाशि बंद थी.

इसी समय हमारे बीच दो तीन मांत्रिक मित्र दौंडते हुए आये, उन्‍होंनें हमें नदी के उस पार हांथों के इशारे से कुछ दिखाया. नदी के उस पार तट में ही बार बार 'बंब-बंग' (तेजी से उठते-बुझते) कोई चीज थी. उसने उसे टोनही कहा. हम लोग फिर हंसने लगे पर वह लपट जब निरंतर उपस्थित रही एवं मांत्रिक मित्रों नें विश्‍वास के साथ कहा कि वो टोनही है और लाश 'जगाने' आई है. लोग कहते हैं कि टोनही जब 'झूपती' (तांत्रिक क्रिया करते हुए नृत्‍य करती) है तो अपने मुंह में जडी डाल लेती है, उसके नृत्‍य और मंत्र बुदबुदाने के कारण उसके मुंह से लार बहने लगता है वह लार ही 'बंग-बंग' 'बरती' है. यह बात सत्‍य थी कि जहां पर वह लपट जलती बुझती थी उसी जगह पर पहले दिन किसी लाश को दफनाया गया था और हम सबने उस दिन नहाने के समय नदी तट के पार से इसे देखा था. फिर भी हमें विश्‍वास ही नहीं हो रहा था और हम सब टोनही के अस्तित्‍व पर पुन: हंसने लगे और मांत्रिक मित्रों के साथ इसी बात पर तकरार कुछ बढ गई, बात हिम्‍मत पे अटक गई. इसी बीच हमारे एक नाविक मित्र नें तट पर बंधा नाव तैयार कर दिया कि चलो देखकर आते हैं. हां-नां के बाद नाविक के साथ दो मांत्रिक, मैं और मेरे दो चचेरे भाई उस पार जाने के लिये नाव में चढ गये, हम सबके पास एवरेडी टार्च थी.

हम टारगेट स्‍थल से लगभग आधा पौन किलोमीटर नदी के बहाव के विपरीत नदी में आगे बढने लगे, उफनती नदी के उस पार यदि जाना है तो जहां दूसरी ओर नांव को 'झोंकाना है' (किनारे लगाना है) उससे बहाव और नदी के वेग को देखते हुए अनुमान लगाकर नाव को पहले इसी किनारे पर विपरीत दिशा में आगे ले जाना होता है फिर नाव को धारा में डाल दिया जाता है और पैंतालीस अंश का कोण बनाते हुए नाव पतवार के जोर से दूसरे किनारे के टारगेट स्‍थल पर पार लग जाती है एकदम सटीक मीटर भर की चूक नहीं होती. जब तक हम धारा के विपरीत चलते रहे उस पार जल रही वह रौशनी इस तरह जल बुझ रही थी जैसे नाच रही हो और मांत्रिक दोस्‍त उसके हर रौशनी में चहक रहे थे. ओ देख, ये देख. और जैसे ही हमने नाव को बीच धारा में डाला रौशनी दूर होने लगी, नांव तो छूट चुकी थी, हमारे उस पार जाने में लगभग आधा घंटे लग गए होंगें तब तक रौशनी का नामों निशान नहीं था. हम सब नाव से उतर कर टार्च की रौशनी के सहारे उस जगह तक गए जहां लाश दफनाई गई थी वहां किसी भी प्रकार के ताजा पूजा के चिन्‍ह नहीं मिले, हम टार्च की रौशनी दूर दूर तक मार के देख रहे थे पर मांत्रिक दोस्‍तों के अनुसार टोनही अपना काम करके चली गई थी और हमारे अनुसार से यह कोई भ्रम था. नदी पार कर हम वापस अपने अपने घर आ गए. उस दिन के बाद गांव में एवं यहां वहां तथाकथित टोनहियों को 'झूपते' कई बार देखा गया पर हमें इस पर विश्‍वास नहीं रहा. या यूं कहें कि आत्‍मबल के सामने टोनही टिक नहीं पाई.

मेरे पिता तंत्र-मंत्र आदि में विश्‍वास रखते थे और लोगों का कहना है कि वे इस विद्या में पारंगत थे. उनके जीते जी लोगों का सोंचना था कि उन्‍होंनें अब तक अपना कोई चेला नहीं बनाया है इसलिये लोगों नें यह धारणा बना ली थी कि मेरे पिता मुझे वह तंत्र ज्ञान देने वाले हैं या दे दिया है. किशोरवय में उत्‍सुकता वश मैंनें पिता के कई ऐसे काम किये हैं जो अजीब रहे या तथकथित तंत्र साधना से जुडे हुए थे. मुझे याद है एक बार वे मुझे मेरे अम्बिकापुर प्रवास के समय अम्बिकापुर जेल के पीछे स्थित शमशान से किसी पांसी लगाई कुंवारी 'बरेठिन' (धोबिन) के टांग की हड्डी मंगा लिये थे और मैं उत्‍सुकतावश एवं दोस्‍तों में रौब गांठने के उद्देश्‍य से वहां से चार टांग की हड्डी खोद लाया था. वहां की मिट्टी रेतीली थी और नाले के कटाव के कारण हड्डियां बिखरी हुई थी मैंनें अंदाज से हड्डियां उठा लिया था. वहां मुझे एक छोटी लगभग 90 प्रतिशत साबूत खोपडी भी मिली थी जो बहुत दिनों तक मेरे पास रही फिर बाद में मेरे पिता नें उसे 'तथाकथित' पैशाचिक क्रिया के बाद शिवनाथ के हवाले किया था. इन सबके कारण लोगों को विश्‍वास हो चला था कि मैं भी इस विद्या में दक्ष हूं. मेरे नानूकूर के बावजूद गांव में आज भी यह झूठ बरकरार है. मेरे गांव में टोनही मेरे सामने 'झूप' नहीं पाती.

बढिया जोक है ना.

संजीव तिवारी

11 वीं सदी से लुट रहा है बस्‍तर ...

प्रदेश के गठन के पूर्व परिदृश्‍य में छत्‍तीसगढ का नाम आते ही देश के अन्‍य भागों में रह रहे लोगों के मन में छत्‍तीसगढ की जो छवि प्रस्‍तुत होती थी उसमें बस्‍तर अंचल के जंगलों से भरी दुर्गम व आदिम दुनिया प्रमुख रूप से नजर आती थी। अंग्रेजों के समय से देशी-विदेशी फोटोग्राफरों नें बस्‍तर की आदिम दुनियां और घोटुल जैसे पवित्र परम्‍पराओं को कुछ इस तरह से प्रचारित किया था कि बरबस उस पर लोगों का ध्‍यान जाये। लोगों की नजर इस सुरम्‍य अंचल को लगी और अब स्थिति कुछ ऐसी है कि सर्वत्र विद्यमान संस्‍कृति व परंम्‍परांओं के संरक्षण व संवर्धन की आवश्‍यकता पड रही है।

Srcid=7500;Adty=1;Width=468;Height=60;Skin=0;



विगत दिनों दैनिक छत्‍तीसगढ में एक समाचार पढने को मिला जिसके अनुसार बस्‍तर के बैलाडीला में 1065 ई. में चोलवंशी राजा कुलुतुन्‍द नें पहली बार यहां के लोहे को गलाकर अस्‍त्र शस्‍त्र बनाने का कारखाना बनाया था। निर्मित हथियारों को बैलगाडियों से तंजाउर भेजा जाता था, बहुत बडी मात्रा में निर्मित हथियारों के बल पर चोलवंशियों नें पूर्वी एशियाई देशों में 11 वी शताब्दि के मध्‍यकाल में अपना साम्राज्‍य स्‍थापित कर लिया था।

यानी लौह अयस्‍क खोदने के लिये नन्‍दराज पर्वत सहित समूचे बस्‍तर की खुदाई सदियों से समय समय पर की जाती रही है, बस्‍तर का लोहा, बस्‍तर का हीरा, बस्‍तर की वन सम्‍पदा सबके काम आई, लडाईयां लडे गये, अकूत धन संग्रह किये गये और की‍र्तिमान स्‍थापित किये गये। बस्‍तर का आदिवासी अपना सब कुछ लुटाता रहा. सहनशीलता की पराकाष्‍ठा पर समय समय पर रक्तिम विद्रोहों में भी शामिल होता रहा किन्‍तु उसके हाथ कुछ भी तो नहीं आया।


जल पर उद्योगपतियों और एनजीओ की नजर है

जंगल नक्‍सलियों के कब्‍जे में है

जमीन का अब क्‍या करेंगें उन्‍हें रहना कैम्‍पों में है


उसके पास सिर्फ और सिर्फ उसका लंगोट है. आजकल उसने इसके भी लुट जाने के डर से उपर से लुंगी पहन लिया है.

संजीव तिवारी

छत्‍तीसगढ में भी लालगढ जैसे केन्‍द्रीय संयुक्‍त आपरेशन क्‍यूं नहीं

छत्तीसगढ में नक्सली तांडव को देखते हुए सचमुच में प्रत्येक व्यक्ति के मुह से अब बरबस निकल रहा है कि अब पानी सिर से उतर चुका है. किन्तु इस समस्या से निबटना यदि इतना आसान होता तो पिछले कई दसकों से फलते फूलते इस अमरबेल को कब का नेस्तानाबूत कर दिया गया होता. बरसों से छत्तीतसगढ के लोग देख रहे हैं, उनकी बोली गोली है वे किसी राजनैतिक समाधान में विश्वास रखते ही नहीं। नक्सलियों का स्वरूप हिंसा है, बिना हिंसा के उनका अस्तित्व ही नहीं है। उनके सिद्धांतों के अनुसार ‘सर्वहारा के अधिनायकत्व में क्रांति को निरंतर जारी रखना’ व ‘आक्रमण ही आत्मरक्षा का असली उपाय है’ और क्रांति व आक्रमण संयुक्त रूप से हिंसा के ध्योतक हैं। सिद्धांतों और वादों की घूंटी पीते-पिलाते हिंसा को अपना धर्म मानते नक्सली राह से भटक गये हैं और अब आर्गनाईज्ड क्राईम कर रहे हैं जिसमें वसूली इनका सबसे बडा धंधा हो गया है।

इस धंधे की साख बरकरार रखने एवं अपने आतंक को प्रदर्शित करने के लिए निरीह लोगों व पुलिस वालों की बेवजह हत्यायें की जा रही है। सामान्य जनता तो यहां तक कहती है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जिनके पास पैसे हैं वे इन्हें बेखौफ-बेरोकटोक जंगलों के सडकों में आने जाने के लिए पैसे देते हैं। ऐसा कई बार सुनने में आता है एवं लोगों की स्वाभाविक प्रथम अभिव्यक्ति रहती है कि नेता, व्यापारी, ठेकेदार वनविभाग के कर्मचारी से लेकर अधिकारी तक नक्सलियों को पैसे देकर अपनी खैरियत सिक्योर करते हैं। जो इन्हें पैसे नहीं देते उनकी मौत एरिया कमांडरों की गोलियों से हो जाती है। वसूली से प्राप्त इन पैसों से मैदानी इलाकों में बैठे इनके आका-काका माओ और मार्क्सो के सिद्धांतों पर धनियां बोंते पूंजीपतियों की भांति आराम फरमाते हैं और नक्सली स्वयं सर्वहारा के रूप में इनके लिये खून बहाते वसूली करते हैं। विगत दिनों झारखण्ड के एक नक्सली नेता का इंटरव्यू दैनिक छत्तीसगढ के मुख्य पृष्ट पर छपा था जिसमें उन्होंनें स्वींकार किया था कि उनके आय का मुख्य जरिया वसूली है उसमें उसने वसूली के रकम को करोडो में बताया था। मीडिया, पुलिस एवं जनमानस से जो बातें उभरकर सामने आ रही है उसका सार यही है। इन आपराधिक संगठनों के संविधान विरोधी कार्य पर शीध्रातिशीध्र नियंत्रण आवश्यक है। राज्‍य सरकार के मत्‍थे सारी जिम्‍मेदारी डाल देनें से केन्‍द्र बरी नहीं हो जाता छत्‍तीसगढ में भी लालगढ जैसे केन्‍द्रीय संयुक्‍त आपरेशन की आवश्‍यकता है। 

.

.
छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...