11 वीं सदी से लुट रहा है बस्‍तर ...

प्रदेश के गठन के पूर्व परिदृश्‍य में छत्‍तीसगढ का नाम आते ही देश के अन्‍य भागों में रह रहे लोगों के मन में छत्‍तीसगढ की जो छवि प्रस्‍तुत होती थी उसमें बस्‍तर अंचल के जंगलों से भरी दुर्गम व आदिम दुनिया प्रमुख रूप से नजर आती थी। अंग्रेजों के समय से देशी-विदेशी फोटोग्राफरों नें बस्‍तर की आदिम दुनियां और घोटुल जैसे पवित्र परम्‍पराओं को कुछ इस तरह से प्रचारित किया था कि बरबस उस पर लोगों का ध्‍यान जाये। लोगों की नजर इस सुरम्‍य अंचल को लगी और अब स्थिति कुछ ऐसी है कि सर्वत्र विद्यमान संस्‍कृति व परंम्‍परांओं के संरक्षण व संवर्धन की आवश्‍यकता पड रही है।

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विगत दिनों दैनिक छत्‍तीसगढ में एक समाचार पढने को मिला जिसके अनुसार बस्‍तर के बैलाडीला में 1065 ई. में चोलवंशी राजा कुलुतुन्‍द नें पहली बार यहां के लोहे को गलाकर अस्‍त्र शस्‍त्र बनाने का कारखाना बनाया था। निर्मित हथियारों को बैलगाडियों से तंजाउर भेजा जाता था, बहुत बडी मात्रा में निर्मित हथियारों के बल पर चोलवंशियों नें पूर्वी एशियाई देशों में 11 वी शताब्दि के मध्‍यकाल में अपना साम्राज्‍य स्‍थापित कर लिया था।

यानी लौह अयस्‍क खोदने के लिये नन्‍दराज पर्वत सहित समूचे बस्‍तर की खुदाई सदियों से समय समय पर की जाती रही है, बस्‍तर का लोहा, बस्‍तर का हीरा, बस्‍तर की वन सम्‍पदा सबके काम आई, लडाईयां लडे गये, अकूत धन संग्रह किये गये और की‍र्तिमान स्‍थापित किये गये। बस्‍तर का आदिवासी अपना सब कुछ लुटाता रहा. सहनशीलता की पराकाष्‍ठा पर समय समय पर रक्तिम विद्रोहों में भी शामिल होता रहा किन्‍तु उसके हाथ कुछ भी तो नहीं आया।


जल पर उद्योगपतियों और एनजीओ की नजर है

जंगल नक्‍सलियों के कब्‍जे में है

जमीन का अब क्‍या करेंगें उन्‍हें रहना कैम्‍पों में है


उसके पास सिर्फ और सिर्फ उसका लंगोट है. आजकल उसने इसके भी लुट जाने के डर से उपर से लुंगी पहन लिया है.

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...