छत्‍तीसगढ में भी लालगढ जैसे केन्‍द्रीय संयुक्‍त आपरेशन क्‍यूं नहीं

छत्तीसगढ में नक्सली तांडव को देखते हुए सचमुच में प्रत्येक व्यक्ति के मुह से अब बरबस निकल रहा है कि अब पानी सिर से उतर चुका है. किन्तु इस समस्या से निबटना यदि इतना आसान होता तो पिछले कई दसकों से फलते फूलते इस अमरबेल को कब का नेस्तानाबूत कर दिया गया होता. बरसों से छत्तीतसगढ के लोग देख रहे हैं, उनकी बोली गोली है वे किसी राजनैतिक समाधान में विश्वास रखते ही नहीं। नक्सलियों का स्वरूप हिंसा है, बिना हिंसा के उनका अस्तित्व ही नहीं है। उनके सिद्धांतों के अनुसार ‘सर्वहारा के अधिनायकत्व में क्रांति को निरंतर जारी रखना’ व ‘आक्रमण ही आत्मरक्षा का असली उपाय है’ और क्रांति व आक्रमण संयुक्त रूप से हिंसा के ध्योतक हैं। सिद्धांतों और वादों की घूंटी पीते-पिलाते हिंसा को अपना धर्म मानते नक्सली राह से भटक गये हैं और अब आर्गनाईज्ड क्राईम कर रहे हैं जिसमें वसूली इनका सबसे बडा धंधा हो गया है।

इस धंधे की साख बरकरार रखने एवं अपने आतंक को प्रदर्शित करने के लिए निरीह लोगों व पुलिस वालों की बेवजह हत्यायें की जा रही है। सामान्य जनता तो यहां तक कहती है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जिनके पास पैसे हैं वे इन्हें बेखौफ-बेरोकटोक जंगलों के सडकों में आने जाने के लिए पैसे देते हैं। ऐसा कई बार सुनने में आता है एवं लोगों की स्वाभाविक प्रथम अभिव्यक्ति रहती है कि नेता, व्यापारी, ठेकेदार वनविभाग के कर्मचारी से लेकर अधिकारी तक नक्सलियों को पैसे देकर अपनी खैरियत सिक्योर करते हैं। जो इन्हें पैसे नहीं देते उनकी मौत एरिया कमांडरों की गोलियों से हो जाती है। वसूली से प्राप्त इन पैसों से मैदानी इलाकों में बैठे इनके आका-काका माओ और मार्क्सो के सिद्धांतों पर धनियां बोंते पूंजीपतियों की भांति आराम फरमाते हैं और नक्सली स्वयं सर्वहारा के रूप में इनके लिये खून बहाते वसूली करते हैं। विगत दिनों झारखण्ड के एक नक्सली नेता का इंटरव्यू दैनिक छत्तीसगढ के मुख्य पृष्ट पर छपा था जिसमें उन्होंनें स्वींकार किया था कि उनके आय का मुख्य जरिया वसूली है उसमें उसने वसूली के रकम को करोडो में बताया था। मीडिया, पुलिस एवं जनमानस से जो बातें उभरकर सामने आ रही है उसका सार यही है। इन आपराधिक संगठनों के संविधान विरोधी कार्य पर शीध्रातिशीध्र नियंत्रण आवश्यक है। राज्‍य सरकार के मत्‍थे सारी जिम्‍मेदारी डाल देनें से केन्‍द्र बरी नहीं हो जाता छत्‍तीसगढ में भी लालगढ जैसे केन्‍द्रीय संयुक्‍त आपरेशन की आवश्‍यकता है। 

.

.
छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...