छत्‍तीसगढी तिहार - पोला और किसानों की पीड़ा

आज छत्‍तीसगढ़ में पोला पर्व मनाया जा रहा है. पोला पर्व प्रतिवर्ष भाद्र कृष्ण पक्ष अमावस्या को मनाया जाता है. पूरे देश में भयंकर सूखे की स्थिति को देखते हुए सब तरफ त्‍यौहारों की चमक अब फीकी रहने वाली है. फिर भी हर हाल में अपने आप को खुश रखने के गुणों के कारण भारतीय किसान अपनी-अपनी क्षेत्रीय संस्‍कृति के अनुसार अपने दुख को बिसराने का प्रयत्‍न कर रहे हैं.

छत्‍तीसगढ़ में अभी कुछ दिनों से हो रही छुटपुट वर्षा से किसानों को कुछ राहत मिली है किन्‍तु सौ प्रतिशत उत्‍पादन का स्‍वप्‍न अब अधूरा ही रहने वाला है. फिर भी अंचल में पर्वों का उत्‍साह बरकरार है. छत्‍तीसगढ़ में एक कहावत है 'दहरा के भरोसा बाढ़ी खाना' यानी भविष्‍य में अच्‍छी वर्षा और भरपूर पैदावार की संभावना में उधार लेना,  वो भी लिये रकम या अन्‍न का ढ़ेढ गुना वापस करने के वचन के साथ. किसान गांव के महाजन से यह उधार-बाढ़ी लेकर भी त्‍यौहारों का मजा लूटते हैं. पोरा के बाद तीजा आता है और गांव की बेटियां जो अन्‍यत्र व्‍याही होती है उन्‍हें मायके लाने का सिलसिला पोला के बाद आरंभ हो जाता है. बहन को या बेटी को मायके लिवा लाने के लिये कर्ज लिये जाते हैं, ठेठरी - खुरमी बनाने के लिए कर्ज लिये जाते हैं और '‍तीजा के बिहान भाय सरी-सरी लुगरा' बहन-बेटियों को साड़ी भेंट की जाती है वो भी उसके मनपसंद, तो इसके लिये भी कर्ज. फिर भी मगन किसान. मैं भी जड़ों से किसान हूं इस कारण उनकी पीड़ा मुझे सालती है किन्‍तु इसके बावजूद उनके एक दूसरे के प्रति प्रेम व त्‍यौहारों के बहाने खुशी जाहिर करना वर्तमान यंत्रवत जीवन में बिसरते  और बिखरते आपसी संबंधों को बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है.

आप सभी को पोला पर्व की हार्दिक शुभकामनांए ..............

छत्‍तीसगढ़ी तिहार : तीजा - पोरा पढ़ें संजीत त्रिपाठी जी के ब्‍लाग 'आवारा बंजारा' में .

संजीव तिवारी   

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...