कचरा टैक्‍स कितना उचित


छत्तीसगढ़ शासन द्वारा हाल ही में नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के द्वारा बनाई गई उप विधि ठोस अपशिष्ट (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं, 2010 को प्रदेश के सभी नगर पालिक निगमों को अंगीकार करने के लिये प्रेषित किया गया है। रायपुर व भिलाई नगर पालिक निगमों सहित कई नगर पालिक निगमों में इस उप विधि को मेयर इन काउंसिल के द्वारा सामान्य सभा में पास करा कर लागू किया जा रहा है। भारतीय संविधान के अनुसार किसी भी स्थाननीय नगर प्रशासन का मूल कर्तव्य रहवासियों को मूल नागरिक सुविधा उपलव्ध कराना होता है जिसके लिये स्थानीय नगर प्रशासन जनता से न्यूनतम शुल्क लेकर अधिकतम सुविधा मुहैया कराती है। अपने कामकाज के संचालन के लिये विधि में उपलब्ध करारोपण अधिकार के तहत वह अपनी वित्तीय व्यतवस्था करती है। समय-समय पर राज्य सरकार नगर पालिक निगम अधिनियम के प्रावधानों के तहत निगमों में करारोपण के लिये उपविधियों का निर्माण करती है और निगम अपनी सुविधानुसार इसे अंगीकार करती हैं, करारोपण कम या ज्यादा कर सकती है या अस्वीकार भी कर सकती हैं। 

इसी क्रम में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं, 2010 बनाई गई है। इसके अनुसार सरकार के द्वारा निगम क्षेत्रों के लिये जो शुल्क निर्धारित किये गए हैं उसका अवलोकन करते हुए यह स्पष्ट होता है कि वे न्यूनतम कतई नहीं है। इस उपविधि के प्रभाव में लाये जाने के पूर्व भी निगम द्वारा कचरे के निबटान हेतु कार्य किया जा रहा था। यह कार्य सभी नगर पालिक निगम के लिए पर्याप्त था। किन्तु समझ से परे है कि ऐसी क्या आवश्यकता हुई जो जनता के सर पे इस तरह भारी करों का बोझ डालने का निर्णय लिया गया। इसके परिपेक्ष्य में सिंगापुर और मलेशिया यात्राओं का असर मूल है। सरकार सिंगापुर व मलेशिया जैसी स्वच्छ नगरीय निकाय की परिकल्पना कर रही है जहॉं के निवासियों का प्रति व्यक्ति आय साढ़े तीन लाख रूपये प्रति वर्ष है, वहॉं की मूल आर्थिक आधार पर्यटन है और उन्हें अपने नगरों के सौंदर्य पर विशेष ध्यान देना उनकी आवश्यकता है इसलिये वहां साफ सफाई का व्यय अधिक है जबकि भारत में एक सामान्य व्यक्ति को 32.00 रूपये प्रति दिन कमाना भी दूभर है ऐसे में साफ सफाई का पूरा भार उस व्यक्ति पर डाल देना अनुचित है।

यह कर निगम क्षेत्र के अधिसंख्यक जनता के प्रति अतिरिक्त एवं अन्यायपूर्ण है अब निगम क्षेत्र में रहने वाले झ़ुग्गी-झोपड़ी निवासी को भी रू. 720.00 प्रति वर्ष निगम को देना पड़ेगा जबकि उसे मुश्किल से दो वक्त की रोटी मिल रही है। निगम गरीबों के मुह से निवाला छीन कर अपना बजट सुदृढ़ करे यह युक्तिसंगत नहीं है। यदि इस उपविधि को नगर पालिक निगम में लागू किया जाना अत्यावश्यक जान पड़ता है तो भी इतना भारी करारोपण अलोकतांत्रिक है इसके बदले में न्यूनतम राशि नगर पालिक निगमों को तय करनी चाहिए। यद्धपि प्रस्तुत उपविधियों को लागू करने या नहीं करने का स्वैच्छिक अधिकार निगम के पास सुरक्षित है। 

नगर पालिक निगम द्वारा प्रस्तावित सेवा शुल्क अनुसूची के अनुसार 500 वर्ग फिट से कम प्लिंथ क्षेत्रफल वाले निवासियों से रू. 240.00 प्रति वर्ष लिया जाना है। इसी तरह 1000 वर्ग फिट से ज्यादा के निवास भवनों पर 1200.00 प्रति वर्ष निर्धारित है। इसके साथ ही सभी गृहों के लिए सम्पत्ति कर के साथ समेकित कर के नाम से अतिरिक्त रू. 600.00 प्रति वर्ष पूर्व से ही लिया जा रहा है। इस उपविधि के अनुसार प्रस्तावित व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर निर्धारित शुल्कों पर भी नजर डालें, ऐसे रेस्टारेंट जिसमें 25 से 50 कुर्सियां हो उसे 12000.00 प्रति वर्ष व 25 से कम कुर्सियों पर 6000.00 प्रति वर्ष इसमें हमारे मुहल्ले के सभी चाय दुकान भी आ जायेंगें। होटल व लाजों पर 12000.00 से 180000.00 प्रति वर्ष करारोपण निर्धारित किया गया है जबकि प्रदेश में होटल व्यवसाय लगभग ठप्प पड़ा हुआ है, सरकार द्वारा प्रदेश में पर्यटन हेतु पर्यटकों के नहीं लुभा पाने के कारण यह जैसे तैसे चल रहे इस व्यवसाय को इस करारोपण से तगड़ा झटका लगेगा। शैक्षणिक संस्थाओं के लिये नियत कचरा टैक्स भी कम नहीं है स्कूल हेतु 60000.00, महाविद्यालय हेतु 24000.00 प्रति वर्ष नियत है। चिकित्सा्लय एवं नर्सिंग होम के लिये 60000.00 से 120000.00 प्रति वर्ष नियत है, दुकान व व्यावसायिक परिसरों हेतु क्षेत्रफल के अनुसार 100 से 500 वर्ग फिट से अधिक पर 1200.00 से 18000.00 प्रति वर्ष एवं व्यावसायिक परिसरों पर 1.50 प्रति वर्ग फिट तय किया गया है जिसके अनुसार शहर के बड़े व्यावसायिक परिसर व शापिंग माल के लिये लाखों रूपये सालाना कचरा टैक्स वसूला जायेगा।

यह सेवा शुल्क मूलत: व्यवसायियों के लिये बहुत भारी है, दुकान, काम्पकलेक्स, रेस्तरां एवं होटल संचालकों के लिये नियत किये गए शुल्क अत्यधिक हैं, रेस्तेरां संचालक अपना कचरा स्वियं ही इकट्ठा करते हैं एवं उसका विधिवत निबटान करते हैं ऐसी स्थिति में उन पर भारी शुल्कों का दायित्व मंदी के इस दौर में व्यावसायिक घाटे का सबब बनने वाला है। इन बढे शुल्कों का भुगतान कर पाने में असमर्थ व्यवसायी के साथ ही साथ इस व्ययवसाय से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जुड़े हजारों अन्य जन पर भी बेरोजगारी का संकट आने वाला है। छत्तीसगढ़ की छवि को व्यावसायिक प्रसिद्धि दिलाने में यहां के व्यावसायिक परिसरों की अहम भूमिका है, आज व्यवसाय से सरकार को अत्यधिक राजस्व लाभ भी प्राप्त हो रहा है। नये उपविधि के तहत् निगम क्षेत्र के वाणिज्यिक परिसरों हेतु नियत रू. 1.50 प्रति वर्ग फिट/ प्रतिमाह का दर भी अनुचित है। निगम क्षेत्र के सभी वाणिज्यिक परिसर कचरा निबटान के लिये अपने निजी संसाधनों का प्रयोग कर रहे है। उन्हें नगर पालिक निगम द्वारा पूर्व से ही सम्पत्ति कर के बढ़े हुए दर पर भुगतान करना पड़ रहा हैं। निगम क्षेत्र के अधिकतम वाणिज्यिक परिसर को परिसर प्रबंधकों नें किराये/पट्टे पर दे रखा है और वर्तमान में उनके पास केवल सार्वजनिक उपयोग के पैसैज व सीढ़ी आदि हैं ऐसे में यदि वाणिज्यिक परिसर प्रबंधन से 1.50 प्रति वर्ग फिट/ प्रतिमाह के दर से शुल्क निर्धारित किया जाता है तो यह उनके लिये भारी होगा। 

प्रस्तावित उपविधि के अनुसार संकलित शुल्क के मद से कचरे के निबटान हेतु किसी ठेकेदार को ठेका दिये जाने का प्रावधान है जबकि निगम के पास पूर्व में ही कचरे के निबटान के लिये अतिरिक्त बजट एवं प्रस्ताव रहा है जिससे पूर्व में ही कचरे का समुचित निबटान सुचारूरूप से होता आया है। इस उपविधि के विरूद्ध हमारी विशेष आपत्ति यह है कि ठेकेदारों के आय में वृद्धि के हेतु से जनता पर यह अतिरिक्ति करारोपण क्यूं किया जा रहा है जबकि कचरे का निबटान के लिये पूर्व से ही योजना एवं व्यह निधारित हैं। इस उपविधि को लागू करने के उद्देश्य से जो नगर पालिक निगमों के द्वारा जो सेवा शुल्को निर्धारित किया गया है वह अव्यवहारिक प्रतीत होता है एवं जल्द बाजी में सरकार के द्वारा नगर पालिक निगम को वित्तीय स्वायत्‍तता देने के उद्देश्य से जनता पर मनमाना करारोपण का अधिकार दे दिया जाना प्रतीत होता है।

नगर पालिक निगम अधिनियम, 1956 की धारा 429 के अनुसार प्रस्तावित उपविधि पर विचार करने के दिनांक से छ: सप्ताह पूर्व दो स्थानीय समाचार पत्र में आशय की सूचना प्रकाशित किया जाना आवश्यक है। इसी तरह उक्त उपविधि की मुद्रित प्रतिलिपि नगर पालिक निगम के कार्यालय में सूचना-पत्र के प्रकाशन के दिनांक से एक माह तक की अवधि के लिए जनता के अवलोकनार्थ रखना भी आवश्यकक है, यदि इन नियमों का पालन नगर पालिक निगमों के द्वारा नहीं किया गया है तो यह उपविधि संज्ञान में लाए जाने पर अप्रभावी मानी जावेगी। विधिवत सूचना-पत्र का प्रकाशन नहीं किये जाने एवं नगर पालिक निगम में उपविधि के मुद्रित प्रति के नहीं रखे जाने के कारण, क्षेत्र की जनता इस पर विधि के अनुरूप आपत्ति या सुझाव भी नहीं दे पा रही है और क्षेत्र की जनता के मौलिक अधिकारों का खुलेआम हनन हो रहा है। जनता को दावा-आपत्ति-सुझाव का अवसर दिये बिना पारित इस उपविधि का कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं है फिर भी उपविधि प्रभावी होने के कगार पर है। इसकी जानकारी नहीं होने के कारण जनता इस उपविधि के विरोध में कोई आवाज बुलंद नहीं कर पा रही है एवं सरकार चुपके चुपके कचरा टैक्स के एवज में पैसा वसूलने का अपना जाल कसते जा रही है।

व्यापक जन हित में ठोस अपशिष्ट (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं, 2010 को सरकार को रद्द करना चाहिए यह जनता के उपर अनावश्यक करारोपण है। हमारा मानना है कि निगम क्षेत्र में सफाई अति आवश्यक है और इसमें हम सबको सहयोग करना चाहिये यह हमारा नैतिक दायित्व भी है किन्तु निगम द्वारा इस दायित्व का सारा भुगतान जनता व व्यवसायियों पर डाला जा रहा है जो कि अनुचित एवं अलोकतांत्रिक है। हमारा सुझाव है कि परिसर में उत्पन्न कचरे की मात्रा के अनुसार कर लिया जाये एवं ठेकेदारों को उसी अनुपात में भुगतान किया जाये। 

संजीव तिवारी

भिलाई-दुर्ग साहित्यिक बिरादरी द्वारा श्रीलाल शुक्ल को भावभीनी श्रद्धाँजलि

राग दरबारी के यशस्वी लेखक श्रीलाल शुक्ल (31 दिसम्बर 1925-28 अक्टूबर 2011) के दुःखद् निधन से शोकाकुल भिलाई-दुर्ग के संस्कृतिकर्मियों द्वारा उनके चित्र पर सभी उपस्थितों ने सिंघई विला, भिलाई में 30 अक्टूबर, 2011 को श्रद्धा-सुमन अर्पित किये। जन सांस्कृतिक मंच के संरक्षक व विख्यात समालोचक डॉ. सियाराम शर्मा की अध्यक्षता में सम्पन्न श्रद्धाँजलि व स्मरण सभा में वरिष्‍ठ साहित्यकार डॉ. नलिनी श्रीवास्तव ने स्मृति-दीप प्रज्वलित कर सभा की शुरूआत की। भिलाई इस्पात संयंत्र के पूर्व जनसम्पर्क व राजभाषा प्रमुख अशोक सिंघई ने सभा का संचालन किया तथा उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुये कहा कि मृत्यु से मात्र दस दिनों पूर्व 45वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत पद्मभूषण श्रीलाल शुक्ल बहुपठ्य लेखक थे। हिन्‍दी भाषा के गद्य के टिकाऊ विकास में उनका योगदान अद्वितीय है। प्रेमचंद द्वारा गढ़ी भाषा को उन्होंने और अधिक विस्तार देते हुये जनोन्मुख बनाया। उन्हें मिले समस्त सम्मान व्यंग्य की धारा को मिले सम्मान व स्वीकृतियाँ हैं। परसाईजी के बाद व्यंग्य विधा में श्रीलाल शुक्ल ने गंभीर काम किया और अपनी वरेण्य विधा व्यंग्य की प्रतिष्‍ठा बढ़ाई श्रीवृद्धि की है।

प्रखर आलोचक डॉ. सियाराम शर्मा ने अध्यक्षीय श्रद्धाँजलि में उन्हें एक ‘क्लैसिक राइटर’ निरूपित करते हुये कहा कि औपनिवेशिक भारत का जटिल चित्र प्रेमचंद के ‘गोदान’ में, आजादी के बाद बदलते ग्रामीण स्वरूप का चित्रण रेणु के ‘मैला आँचल’ में और साठवें दशक का यथार्थपरक प्रमाणिक चित्रण हमें श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ में मिलता है। बड़ी रचनायें समय के साथ खुलती हैं। उनके समस्त लेखन में ‘राग दरबारी’ कालजयी तो है पर एक महान उपन्यास की जगह वह कई व्यंग्य-लेखों या हास्य-प्रहसनों का समुच्चय प्रतीत होता है जिसमें पात्र अपने-अपने खाँचों में कैद हैं। उनकी भाषा नई थी। उनके पास प्रेमचंद जैसी दृष्टि तो नहीं थी पर भाषा के संदर्भ में वे प्रेमचंद से एक कदम आगे ही नज़र आते हैं।

छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्‍दी साहित्य सम्मेलन के महामंत्री व वरिष्‍ठ व्यंग्यकार रवि श्रीवास्तव ने कहा कि राग दरबारी की अनेकों घटनायें अब घटती नज़र आ रही हैं। राजनीति की मूल्य-विहीनता, कदाचरण और बेशर्मी की जो कल्पनायें साठवें दशक में श्रीलाल शुक्ल ने की थी, वे सब अब साकार हैं।

वरिष्‍ठ व्यंग्य के सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर विनोद साव ने बताया कि श्रीलाल शुक्ल ने विपुल लेखन किया है। ‘राग दरबारी’ के अलावा ‘मकान’, ‘सूनी घाटी का सूरज’, ‘पहला पड़ाव’, ‘अज्ञातवास’ तथा ‘विश्रामपुर का संत’ आदि उनकी अत्यंत चर्चित रचनायें हैं। उनके अनेक व्यंग्य संग्रह हैं। निर्मल वर्मा, कमलेश्वर की श्रेणी के वे विशुद्ध गद्यकार थे। वे उत्कृष्‍ठ साक्षात्कार-देते थे। तद्भव के सम्पादक अखिलेश के साथ साक्षात्कार के रूप में उनकी लंबी बातचीत एक महत्वपूर्ण साहित्यिक दस्तावेज़ है। लेखकों में सभी प्रवक्ता नहीं होते, वे दुर्लभ लेखक-प्रवक्ता थे।

डॉ. नलिनी श्रीवास्तव ने कहा कि उनका लेखन उन्हें हमेशा जीवित रखेगा। वरिष्‍ठ साहित्यकार पत्रकार शिवनाथ शुक्ल ने कहा कि प्रेमचंद के बाद ग्रामीण परिवेश का इतना सुन्दर चित्रण और कहीं देखने नहीं मिलता। रेणु की धारा में होते हुये भी वे आँचलिकता से मुक्त थे। कवि विजय ‘वर्तमान’ ने बताया कि जब वे हाईस्कूल के छात्र थे, तभी उन्होंने डाक से मँगवाकर ‘राग दरबारी’ पढ़ी थी। उसे दुबारा एम.एस-सी. करने के बाद पढ़ा और अर्थ खुलते चले गये। सतीश कुमार चौहान ने कहा कि ‘सरिता’ में एक रचना पुरस्कृत हुई थी और जीवन के इस पहले पुरस्कार में मिली थी पुस्तक ‘राग दरबारी’। यह अनुभव मैं कभी नहीं भुला पाऊँगा। वरिष्‍ठ रंगकर्मी आनन्द अतृप्त ने संकल्प लिया कि उनके कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ पर एक पूर्णकालिक नाटक खेलूँगा। व्ही.व्ही.एन. प्रसाद राव ने बताया कि एक नाटक देखते समय उनकी बगल में बैठने का सुअवसर मिला था जिसमें मंच पर ही बारात का दृश्य साकार किया गया था। वह दृश्य और वह निकटता मेरी स्मृतियों में टँक गई है। कवि शिवमंगल सिंह एवं ‘संचार टुडे’ के सम्पादक डी.एस. अहलुवालिया ने भी अपने विचार व्यक्त किये।

इस अवसर पर बहुमत के सम्पादक विनोद मिश्र, शायर मुमताज़, ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ के सम्पादक प्रदीप भट्टाचार्य, सांगीतिक संस्था ‘गुँजन’ के अध्यक्ष शैलेन्द्र श्रीवास्तव, कवि राजा राम रसिक, पत्रकार प्रशान्त कानस्कर, समाजसेवी ओ.पी. शर्मा, भिलाई क्रिश्चियन कौंसिल के अध्यक्ष रेव्हरेण्ड अर्पण तरुण, पुनीत कुमार गुप्ता, सहित भिलाई-दुर्ग के साहित्यकार व साहित्यप्रेमी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।

कातिक महीना धरम के माया मोर

धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ प्रदेश के लोक जीवन में परम्परा और उत्सवधर्मिता का सीधा संबंध कृषि से है। कृषि प्रधान इस राज्य की जनता सदियों से, धान की बुवाई से लेकर मिजाई तक काम के साथ ही उत्साह व उमंग के बहाने स्वमेव ही ढूंढते रही है, जिसे परम्पराओं नें त्यौहार का नाम दिया है। हम हरेली तिहार से आरंभ करते हुए फसलचक्र के अनुसार खेतों में काम से किंचित विश्राम की अवधि को अपनी सुविधानुसार आठे कन्हैंया, तीजा-पोरा, जस-जेंवारा आदि त्यौहार के रूप में मनाते रहे हैं। ऐसे ही कार्तिक माह में धान के फसल के पकने की अवधि में छत्तीसगढि़या अच्छा और ज्यादा फसल की कामना करता हैं और संपूर्ण कार्तिक मास में पूजा आराधना करते हुए माता लक्ष्मी से अपनी परिश्रम का फल मांगता हैं। छत्तीसगढ में कातिक महीने का महत्व महिलाओं के लिए विशेष होता है पूरे कार्तिक माह भर यहां की महिलायें सूर्योदय के पूर्व नदी नहाने जाती हैं एवं मंदिरों में पूजन करती हैं जिसे कातिक नहाना कहा जाता है। मान्यता है कि कार्तिक माह में प्रात: स्नान के बाद शिवजी में जल चढ़ाने से कुवारी कन्याओं को मनपसंद वर मिलता है। पारंपरिक छत्तीसगढ़ी बारहमासी गीतों और किवदंतियों में कार्तिक माह को धरम का माह कहा गया है जिसमें रातें उजली है एवं इस माह में स्वर्ग से लगातार आर्शिवाद बरसते हैं।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भी कार्तिक मास सनातन धर्मी लोगों के लिए महत्वपूर्ण मास है जो क्‍वांर के बाद आता है, क्‍वांर को आश्विन मास भी कहा जाता है, आश्विन आरोग्य के देवता अश्विनीकुमारों का प्रतीक मास है। यह मास किसानों के कृषि कार्य से थकित शरीर में नव उर्जा का संचार करता है। कार्तिक में धान गभोट की स्थिति में होता है इस समय में धान के दाने पड़ते हैं और धान की बालियां परिपक्व होती है। इस मास की इन्ही विशेषताओं को देखते हुए मान्‍यता है कि शरद पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा अमृत की वर्षा करता है। संपूर्ण देश की परम्परा के अनुसार छत्तीसगढ़ में भी शरद पुर्णिमा के दिन शाम को खीर (तसमई), पुरी बनाकर भगवान को भोग लगाए जाते हैं एवं खीर को छत पर रख कर चंद्रमा से अमृत वर्षा की कामना की जाती है। अश्विनीकुमार आरोग्य के दाता हैं और पूर्ण चंद्रमा अमृत का स्रोत। यही कारण है कि ऐसा माना जाता है कि इस पूर्णिमा को आसमान से अमृत की वर्षा होती है। छत्तीसगढ़ में इस दिन आंवला के वृक्ष के नीचे सुस्वादु भोजन बनाकर परिवार को खिलाया जाता है जो आधुनिक पिकनिक का आनंद देता है।

शरद् पूर्णिमा के बाद से आने वाले इस मास में दीपावली और देवउठनी एकादशी (छोटी दीपावली, तुलसी विवाह) आते हैं, इसी मास के अंत में कार्तिक पूर्णिमा को छत्‍तीसगढ़ के विभिन्‍न देवस्‍थानों में मेला भरता है। पून्‍नी मेला मेरे गांव के समीप शिवनाथ व खारून के संगम पर स्थित सोमनाथ में भी भरता है। कुल मिलाकर यह मास धार्मिक आस्‍था से परिपूर्ण मास होता है। गांवों में कार्तिक माह का उत्‍साह देखते बनता है, सूर्योदय के पहले महिलायें, किशोरियॉं और बालिकायें उठ जाती हैं और नदी या तालाब में नहाने जाती हैं, नदी-तालाबों के किनारे स्थित शिव के मंदिर में वे गीले कपड़े पहने ही जल चढ़ाती है और गीले कपड़े पहने ही घर आती हैं। सुबह के धुंधलके में वे प्राय: झुंड में रहती हैं और स्‍वभावानुसार बोलते रहती हैं जो प्रात: की नीरवता को दूर-दूर तक तोड़ती है। जब मैं गांव में रहता था तब इनकी बातों से नींद खुलती थी। गांव में समय के पहचान के लिए प्रात: 'सुकुवा' के उगने से लेकर 'पहट ढि़लाते' तक के समय में 'कातिक नहईया टूरी मन के उठती' जैसे शब्‍दों का भी प्रयोग होता रहा है।

प्रहर के इस अंतराल के पार होने के बाद 'पंगपगांने' पर ही मैं बिस्‍तर छोड़ता था और कातिक के 'रवनिया' का आनंद लेते हुए नदी की ओर निकल पड़ता था। छत्‍तीसगढ़ के गांवों में सामाजिक व्‍यावहारिकता के चलते 'डउकी घठौंधा' और 'डउका घठौंधा' होता है जहॉं पुरूष और महिलायें अलग अलग स्‍नान करती हैं। हम इन दोनों घाटों को पीछे छोड़ते हुए दूर शिवनाथ और खारून के गहरे संगम की ओर बढ़ चलते थे इससे हमारा प्रात: भ्रमण भी हो जाता था। तब 'डउकी घठौंधा' से गुजरते हुए महिलाओं को लंहगे से या छोटी घोती से 'छाती बांध' कर नहाते देखता था। कार्तिक में बरसात के बाद आने वाली दीपावली के पूर्व गॉंव में घरों के 'ओदर' गए 'भिथिया' को 'छाबनें' एवं 'लीप-पोत-औंठिया' के घर के कपड़ों की सफाई के लिए महिलाओं को बड़ी बाल्‍टी या डेचकी भर कपड़ों को 'कांचते' भी देखता था।

कभी इस बिम्‍ब का विस्‍तार और चिंतन दिमाग नें नहीं किया था, पिछले दिनों छत्‍तीसगढ़ी गीतों के जनगीतकार मुकुन्‍द कौशल जी से छत्‍तीसगढ़ी गज़लों के संबंध में लम्‍बी बातचीत हुई तो उन्‍होंनें अपना एक गज़ल सुनाया तब लगा कि कवि नें इस बिम्‍ब को किस तरह से भावमय विस्‍तार दिया आप भी देखें -

जम्‍मो साध चुरोना बोरेंव, एक साध के कारन मैं 
एक दिसा के उड़त परेवना, ठींया ला अमरा लेथें.

'माटी राख' डाल के 'बड़का बंगोनिया' में पानी के साथ गंदे कपड़े को आग में पकाने की क्रिया को 'चुरोना बोरना' कहा जाता है, अब गज़लकार कसी एक साध के कारण जम्‍मो साध का चुरोना डुबाने की बात कहता है क्‍योंकि गॉंव की महिला जानती है कि उसकी अनंत इच्‍छायें तो पूरी नहीं हो सकती कोई एक इच्‍छा ही पूरी हो जाए। उसने जो अपना कोई एक लक्ष्‍य रखा है कम से कम वही तो पूरा हो जाए (एक दिशा में उड़ते हुए कबूतर को उसका ठिकाना तो मिल जाए)।

हालांकि इस पोस्‍ट में नदी के किनारे से गुजरते हुए इस गज़ल के मूल अर्थ का कोई सामन्‍जस्‍य नहीं बैठता किन्‍तु विषयांतर से ग्रामीण जीवन की झलक को डालने का प्रयास कर रहा हूँ। नदी के किनारे के पेंड, पत्‍थर और घाट को विघ्‍नसंतोषी बताते हुए गज़लकार महिलाओं को अपने मन की बात ना कहने की ताकीद देता है। जो साथी गांव के जीवन को जानते हैं उन्‍हें ज्ञात है कि महिलायें नदी में नहाते हुए घर से गांव और संसार की बातें करती हैं, अपने साथ साथ नहाती महिलाओं से हृदय की बातें भी कहती हैं, इसी भाव को गज़लकार शब्‍द देता है-

अनदेखना हें अमली-बम्‍हरी नदिया के पथरा पचरी
सबके आघू मन के कच्‍चा लुगरा झन फरियाए कर.

कार्तिक पूर्णिमा पर किसी पत्रिका के लिए मैंनें इसे लिखा था आगे आलेखों की कड़ी थी भूमिका में पहला दो पैरा लिखा गया था। आज ड्राफ्ट में पड़े इसे देखकर इस पर चंद लाईना जोड़कर पब्लिश कर दिया। धरम के मास कार्तिक से लेकर श्री मुकुन्‍द कौशल जी की छत्‍तीसगढ़ी गज़ल तक लोक जीवन के इस जीवंतता का शहर में बैठकर सिर्फ कल्‍पना किया जा सकता है, हृदय में गॉंव बार-बार सोरिया रहा है फिर भी जीवन की व्‍यस्‍तता गॉंव के पुकार को अनसुना कर रही है।

संजीव तिवारी

नोट : छत्‍तीसगढ़ी के शब्‍दों पर माउस ले जाने से उसके हिन्‍दी अर्थ छोटे बक्‍से में वहीं दिखने लगेंगें. 

रविशंकर विश्‍वविद्यालय के पाठ्यक्रम में सम्मिलित छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास आवा अब नेट में उपलब्‍ध

पिछले वर्षों से मेरे ब्‍लॉग साथियों की लगातार शिकायत रही है कि मैं इस ब्‍लॉग में नियमित नहीं लिख रहा हॅूं। कई पुराने ब्‍लॉगर साथियों का ये कहना था कि आपने अभी तक अपने पोस्‍टों के अर्धशतक, शतक, पंचशतक आदि इत्‍यादि पुर जाने पर धमाकेदार पोस्‍ट भी नहीं ठेला है। मित्रों के इन बातों से मैं थोड़ा उत्‍साहित होता हूं, क्‍यूंकि मैं पोस्‍ट ठेलने के आंकड़ों का रोकड़-बही रखूं तो लगभग दो महीने में पांच सौ पोस्‍टों का आंकड़ा यूंही पूरा हो जाता है, किन्‍तु इस आंकड़े में अधिक संख्‍या मेरे द्वारा छत्‍तीसगढ़ के लेखकों के लिए उनके नाम से बनाए गए ब्‍लॉगपोस्‍टों में पब्लिश पोस्‍टों के ही होते हैं, इसी कारण मैं आंकड़ों की मार्केटिंग नहीं कर पाता। 

मेरे अजीज़ इस बिना ब्‍लॉग हलचल के किये जा रहे कार्यों को जानते हैं, और मुझे इसके लिये निरंतर प्रोत्‍साहन देते रहते हैं, इसी कारण मैं अपना समय व श्रम इसमें लगा पाता हॅूं। अब्‍लॉगी लोगों का कहना होता है यदि रचना की सीड़ी दे दी है तो ब्‍लॉग में पब्लिश करने में क्‍या समय व श्रम लगेगा, किन्‍तु यह तो ब्‍लॉगर से ही पूछो कितना समय लगता है। अब्‍लॉगर भाईयों के लिये मैं इस प्रक्रिया को संक्षिप्‍त में ही सही स्‍पष्‍ट कर दूं, ताकि उन्‍हें पता चल सके कि सीडी मिलने के बाद से वह नेट में पब्लिश होने तक किन किन प्रक्रियाओं से गुजरता है। 

कोई भी अब्‍लॉगर अपनी कृति के प्रकाशन के बाद पुस्‍तक प्रकाशक से कृति की सीडी मांगता है। प्रकाशक के द्वारा तैयार सीड़ी गैरयूनिकोडित होती है। एक्‍सपी के आने और विण्‍डोज 2008 के जाने के बाद आजकल ज्‍यादातर प्रकाशक श्रीलिपि और चाणक्‍य को छोड़कर अलग-अलग फोंटों में सामाग्री तैयार करते हैं। पुस्‍तक को सुन्‍दर बनाने के लिये वे एक ही पेज में अलग-अलग करेक्‍टर मैपिंग के अलग अलग फोंटों का भी प्रयोग करते हैं। यद्धपि नेट पर बहुत सारे आनलाईन व आफलाईन यूनिकोड परिवर्तक हैं इसके बाद भी अलग अलग फोंट के कारण रचना पूरी तरह परिवर्तित नहीं हो पाती। दूसरी बात यह है कि कई ऐसे फोंट हैं जिसके परिर्वर्तक मुफ्त में उपलब्‍ध भी नहीं है। यदि मुफ्त में उपलब्‍ध परिवर्तक से यूनिकोड परिवर्तित कर भी दिया गया तो कई शव्‍द हैं जो पूरी तरह परिर्वर्तित नहीं होते, तो पूरी फाईल के उन शब्‍दों को मैनवली ठीक करना पड़ता है। 

प्रकाशकों की सीडी में सबसे बड़ी समस्‍या यह होती है कि वे या तो क्‍वार्क या पेजमेकर में बनी होती है, प्रकाशक अपनी सुविधा के लिए एक कागज में चार पेज छापता है फिर उसे काटकर पुस्‍तक के रूप बाइंड करता है इसके कारण वह एक पेज में क्रमिक रूप से पेज नम्‍बर डालने के बजाए अलग अलग पेज छापता है। अब आप जब अपने कम्‍यूटर में उसे खोलते हो तो वह गारबेज दिखता है अब खोजो पेज नम्‍बर और जमाओ क्रम से ....। इसके लिये मुझ रवि श्रीवास्‍तव भईया ने जो सुझाव दिया था उसका प्रयोग मैं करता हूं, मैं पूरे फाईल का एचटीएमएल कनवर्सन करता हूं फिर उसे यूनिकोड परिवर्तित कर देता हूं पर इससे पेज नम्‍बर पता नहीं चल पाता क्‍योंकि प्रकाशक पेज नम्‍बर या तो अंग्रेजी में डालता है या किसी दूसरे फोंट से, और यह जब परिवर्तित होता है तो गारबेज दिखने लगता है। इसलिये आपको प्रिंटेड पुस्‍तक पकड़ कर एक एक पेज को जमाना पड़ता है, फिर तैयार हो पाता है यूनिकोडित पुस्‍तक की पाण्‍डुलिपि। 

अब इसे ब्‍लॉग में पब्लिश करना चुटकियों का खेल है, यद्धपि इसके बावजूद कई बार कुछ मात्राओं और शब्‍द बिखर जाते हैं जिन्‍हें एडिट पोस्‍ट से बाद में सुधारना होता है। तो इस तरह पाठकों के लिए किसी पूरे पुस्‍तक को परोसना संभव हो पाता है। इसी तरह की प्रक्रियाओं से गुजरते हुए ब्‍लॉग आकर लेता है जिसमें किसी कोने पर अपना नाम और अपने आरंभ ब्‍लॉग का लिंक डालकर मैं खिसक लेता हूं। पिछले माह से मैंनें डॉ.परदेशीराम वर्मा जी की पत्रिका अगासदिया के कुछ अंक व अन्‍य साहित्‍यकारों की कृतियों को ड्राफ्ट करके रखा हूं, जिन्‍हें कुछ दिनों में पब्लिश कर दूंगा। 

वर्तमान ब्‍लॉगिया परिपाटी में जताने की परम्‍परा को कायम रखते हुए मैंनें अब सोंचा है कि ऐसे प्रत्‍येक कार्यों के बाद एक पोस्‍ट अवश्‍य ठेला जाए ताकि लोगों को पता चल सके कि हम असक्रिय नहीं है। पिछले दिनों हमने पं.रविशंकर विश्‍वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल 225 पेज के संपूर्ण छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास आवा को ब्‍लॉग के रूप में उपलब्‍ध कराया है। आप चित्र को क्लिक करके आवा ब्‍लॉग में जा सकते हैं, जी चाहे तो वापस आकर यहॉं मुझे टिपिया सकते हैं।  

संजीव तिवारी 

उड़ने को बेताब है यह नया मेहमान


पिछले दिनों मैंनें एक पक्षी के संबंध में एक पोस्‍ट लिखा था और उसके चित्र व वीडियो पब्लिश किया था। वह पक्षी तब छोटा था, धीरे धीरे उसका विकास होता गया और वह अब उड़ने की तैयार कर रहा है। उस पोस्‍ट के पब्लिश करने के बाद टिप्‍पणी में इंडियन विलेज़ नें कहा कि यह कोयल नहीं 'महोक' है, जबकि अभय तिवारी जी नें बज में कहा कि ' इसके भूरे पंख देखकर ऐसा लग रहा है कि कहीं यह ग्रेटर कोकल का बच्चा तो नहीं?' उन्‍होंनें आगे कहा 'आँख उनकी भी लाल ही होती है.. किन्‍तु इसकी आंख काली है, लाल नहीं है। 



अभय भाई नें आगे कहा कि यह लिंक देखें: फ्लिकर , एक सज्जन के अनुसार कोयल का बच्चे की तस्वीर यहाँ देखें: ब्‍लाग पोस्‍ट, फोटो और यहाँ: जे बर्ड्स । जो भी हो, हम इसके अभी के चित्र यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं, आप देखें और बतावें कि यह कौन सा पक्षी है।


साथ ही यह भी बतावें कि क्‍या हम इसे इसके प्राकृतिक वातावरण में पुन: छोड़ सकेंगें या इसे इसी तरह अपने 'कोला बारी' में शरण देना पड़ेगा, किन्‍तु यदि यह अपने प्रकृतिक वातावरण में नहीं गया तो कालोनी में कुत्‍ते व बिल्लियां इसे मार डालेंगीं। साथ ही यह मनुष्‍य से अब इतना घुल मिल गया है कि मनुष्‍य से डरता नहीं ऐसे में यदि यह किसी शरारती व्‍यक्ति के पास प्‍यार से भी आयेगा तो वह उसे नुकसान पहुचायेगा और यह चुपचाप शरद कोकास जी की कविता में लिखे भाग्‍य सा सब स्‍वीकारता जायेगा - 
कोयल चुप है 
गाँव की अमराई में कूकती है कोयल 
चुप हो जाती है अचानक कूकते हुए

कोयल की चुप्पी में आती है सुनाई 
बंजर खेतों की मिट्टी की सूखी सरसराहट 
किसी किसान की आखरी चीख 
खलिहानों के खालीपन का सन्नाटा 
चरागाहों के पीलेपन का बेबस उजाड़

बहुत देर की नहीं है यह चुप्पी फिर भी 
इसमें किसी मज़दूर के अपमान का सूनापन है 
एक आवाज़ है यातना की 
घुटन है इतिहास की गुफाओं से आती हुई

पेड़ के नीचे बैठा है एक बच्चा 
कोरी स्लेट पर लिखते हुए 
आम का “ आ “ 
वह जानता है 
अभी कुछ देर में उसका लिखा मिटा दिया जायेगा 
उसके हाथों से 
जो भाग्य के लिखे को अमिट समझता है।

- शरद कोकास


अपडेट्स : 
इस पोस्‍ट के बाद फोन, टिप्‍पणियों एवं मेल से प्राप्‍त अनुमानों के अनुसार चर्चित लेखक अभय तिवारी जी का कहना है कि यह महोक है। विज्ञान लेखक  अरविन्‍द मिश्रा जी का कहना है कि यह ब्राहिनी काईट - खेमकरी है, चर्चा में जो लक्षण मैंनें जो इस पक्षी के अरविन्‍द जी को बताये उसके अनुसार यह बाज प्रजाति के पक्षी ब्राहिनी काईट - खेमकरी से मिलते हैं। बांधवगण के प्रकृति प्रेमी, बाघ प्रेमी, वाईल्‍ड लाईफ फोटोग्राफर सत्‍येन्‍द्र तिवारी जी का कहना है कि यह कोकल है और यह अभी बाल्‍य-किशोरावस्‍था में है, इसके आंखों का रंग उम्र के साथ लाल हो जायेगी। प्ररातत्‍वविद व छत्‍तीसगढ़ के संस्‍कृति के चितेरे बड़े भाई राहुल सिंह जी का कहना है कि यह महोक (ग्रेटर कोकल) बन कुकरा है। ललित शर्मा जी के आम के पेड़ में भी यह पक्षी है पर वे इसका नाम नहीं जानते, वे चाहते हैं कि इस विमर्श से उन्‍हें भी इसके संबंध में जानकारी मिलेगी। अब हम नेट पर उपलब्‍ध महोक के कुछ लिंक व फोटो यहां लगा रहे हैं आप भी देखें -


वीकि में उपलब्‍ध पेज ग्रेटर कोकल.  चित्र - बर्डिंग डॉट इन में ग्रेटर कोकल.  


Brahminy Starling


Greater Coucal


Brahminy Kite



[youtube http://www.youtube.com/watch?v=8BZ5Clbg7jc?hl=en&fs=1]
[youtube http://www.youtube.com/watch?v=4xO341E3cBY?hl=en&fs=1] [youtube http://www.youtube.com/watch?v=rWyE41oir6I?hl=en&fs=1]

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन

प्रकृति के चितेरे कवि महाकवि कालिदास नें एक पक्षी को एकाधिक बार 'विहंगेषु पंडित' लिखा और अँगरेजी के प्रसिद्ध कवि वर्ड्‌सवर्थ ने भी इसी पक्षी की आवाज से मोहित होकर कहा ', कुक्कु शेल आई कॉल दी बर्ड, ऑर, बट अ वान्डरिंग वॉयस? हॉं.. कोयल ही है यह पक्षी।  कोयल, कोकिल या कुक्कू इसका वैज्ञानिक नाम 'यूडाइनेमिस स्कोलोपेकस स्कोलोपेकस' है। गांव में और यहॉं शहर में भी रोज इससे दो-चार होते इसके शारिरिक बनावट से वाकिफ़ हूं। नर कोयल का रंग नीलापन लिए काला होता है, इसकी आंखें लाल व पंख पीछे की ओर लंबे होते हैं और मादा तीतर की तरह धब्बेदार चितकबरी भूरी चितली होती है। 


मेरे घर के आम पेड पर यह रोज कूकती है पर तब ये दिखाई नहीं देती, और मैं अंतर नहीं कर पाता मादा और नर कोयल के आवाज में। इनके आवाज में अंतर को स्‍पष्‍ट करने की लालसा इसलिये भी रही है कि सुभद्रा कुमारी चौहान कहती है कि 'कोयल यह मिठास क्या तुमने/ अपनी मां से पाई है? / मां ने ही क्या तुमको मीठी / बोली यह सिखलाई है?' छत्‍तीसगढ़ के कुछ लोकगीतों में कहा जाता है कि 'कोयली के गरतुर बोली ....'

कोयल पर अनेक कवियों नें कवितायें लिखी, गद्यकारों नें कोयल को अपने प्रकृति चित्रण में शामिल किया और कोयल हमारे साहित्‍य में गहरे से पैठ गई। नीड़ परजीविता के कारण कोयल के व्‍यवहार को अच्‍छा नहीं समझा जाता कहते हैं कि ये अपना घोसला नहीं बनाती और कौओं के घोंसले के अंडों को गिरा कर अपना अंडा दे देती है, कौंए कोयल के बच्चों को अपना बच्‍चा समझकर पालते हैं।  जब कोयल का बच्‍चा उड़ने योग्य हो जाता हैं तो अचानक चकमा उड़ जाता है। कोयल के बच्‍चे के साथ उस घोंसले में यदि कौए के बच्‍चे रहे तो यह सामर्थ होते ही उसे घोंसले के नीचे गिरा डालते हैं। 

अभिज्ञान शाकुंतलम में दुष्यंत के द्वारा नारियों के बुद्वि विवेक के संबंध में चर्चा करते हुए कोयल की इस प्रवृत्ति का कवि के द्वारा उल्‍लेख करना भी हमेशा समझ से परे रहा है। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता कोयल नें मुझे और दिग्‍भ्रमित कर दिया है 'डाल-डाल पर उड़ना गाना/ जिसने तुम्हें सिखाया है/ सबसे मीठे-मीठे बोलो/ यह भी तुम्हें बताया है।/ बहुत भली हो तुमने मां की/ बात सदा ही है मानी/ इसीलिए तो तुम कहलाती/ हो सब चिड़ियों की रानी।' दुष्‍यंत और सुभ्रदा कुमारी चौहान नें इसकी बोली से परे प्रवृत्ति पर ऐसा कहा है पर लोक मानस में बैठी कोयल के बच्‍चे की धूर्त प्रवृत्ति और साथ वाले बच्‍चों के प्रति विद्वेष की भावना के संबंध में पढ़ते हुए कभी सोंचा नहीं था कि ऐसा भी हो जायेगा कि कोयल का अपरिपक्‍व बच्‍चा ही किसी घोंसले से गिर जायेगा।

पिछले दिनों तेज अंधड़ के साथ बारिश के शांत होने पर भिलाई स्थित मेरे जनकपुरी के एक बड़े जामुन के पेंड के नीचे तीन पक्षी का बच्‍चा दिखा। घर में किसी नें भी इसे विशेष नहीं लिया दूसरे दिन सुबह तीन में से दो बच्‍चे गायब थे और एक बच्‍चा बरसात में भींगा कांपता हुआ टूटे डंगालों बीच दिखा। अपनी दया और व्‍यस्‍तता को देखते हुए चिडि़ये का यह बच्‍चा मुझे दुर्ग स्‍थानांतरित तर दिया गया। जब यह घर में आया तब इसके आकार को देखते हुए हम अनुमान नहीं लगा पा रहे थे कि यह किस पक्षी का बच्‍चा होगा, कभी हमें लगता कि यह चील का बच्‍चा होगा, कभी लगा नीलकंठ का बच्‍चा होगा और कभी कौंआ तो कभी कोयल। अब यह बच्‍चा किसी का भी हो, हमारे आश्रय में आ गया था इस कारण इसकी देखभाल आरंभ हो गई।

ड्रापर में दूध पिलाने पर यह मजे से उसी प्रकार दूध पीने लगा जैसे इसकी मॉं चोंच से दाना खिला रही हो। दो चार दिन के बाद इसे कुछ गाढ़ा खाद्य पदार्थ दाल चांवल और दलिया दिया जाने लगा। हम लोगों के इसके पास जाने पर यह तीखी आवाज में चीं-चूीं करते हुए मुह खोलता और हम इसे एक ड्रापर दूध पिला देते। धीरे-धीरे इसके पंख आने लगे और यह स्‍पष्‍ट हो गया कि यह कोयल है। अब रोज सुबह इसे घर में उपस्थित पेंडों पर एक-आध घंटे पर चढ़ा दिया जाता है और इसे प्रकृति से संबंध बनाने का अभ्‍यास डाला जाता है किन्‍तु पता नहीं क्‍यों यह पेंड में बैठे हुए एक कदम भी नहीं चलता। घर में भी यह कुछ भी चहलकदमी नहीं करता जबकि अब इसके पंख भी पूरे आ गए हैं। हम इसे उडा़ने के लिए लकड़ी में बैठाकर अभ्‍यास भी कराते हैं फिर भी यह उड़ता नहीं बल्कि डरपोक जैसे जोर से लकड़ी को पकड़े रहता है।
रश्मि प्रभाजी सुबह आँख खुलते ही कोयल की आवाज सुनकर गुनगुना उठती हैं, कोयल उनकी स्‍मृतियों में कविता बन के उतरती है और वे कहती हैं - सुनती हूँ कोयल की कूक/ मुझे कोई अपना याद नहीं आता/ मैं तो बस कोयल की मिठास/ और उसके बदलते अंदाज में खो जाती हूँ. उनकी अगली पंक्तियों में कोयल की मीठी आवाज और एक डाली से दूसरे डाली के सफर से रश्मि जी का पूरा दिन मीठा हो जाता है। मैं भी इंतजार कर रहा हूं कि कब यह एक डाली से दूसरे डाली में फुदके और अपने कोयलपन को सिद्ध करते हुए कूके। और मैं गुनगुनाउं ''कोयल बोली दुनिया डोली समझो दिल की बोली.... ' पर कविवर  केदारनाथ अग्रवाल जी 'कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह/ पंचम स्वर में चढ़कर बोला सन्नाटे में नेह' कहते हुए हुए हमें देह, नेह और कोयल के कूक को आपस में मिला देती है। 

मैं सोंच रहा हूँ मेरे घर में बैठे इस कोयल का भी एक ब्‍लॉग बना दूं ताकि इसकी आवाजों को प्रतिदिन रिकार्ड कर पोस्‍ट किया करूंगा पर बार बार रहीम अंकल मना कर रहे हैं, उनका कहना है कि बना भले लो पर पब्लिश अभी मत करना। कारण पूछने पर वे कहते हैं कि परिस्थितियां ऐसी है कि - पावस देखि रहीम मनकोइल साधे मौन। अब दादुर वक्ता भएहम को पूछत कौन। कविवर रहीम नें कहा कि वर्षा ऋतु में कोयल मौन धारण कर लेती है क्योंकि उस समय मेंढक बोलते हैं, और टर्र टर्र की आवाज में कोयल की सुरीली आवाज को कौन सुनेगा?

चलो मान लेते हैं रहीम अंकल की बात को, तब तक इंतजार करें मेरे 1808 वें नये ब्‍लॉग का ......

[youtube http://www.youtube.com/watch?v=Ok1z7TO61qY?hl=en&fs=1]

[youtube http://www.youtube.com/watch?v=QXQCkeEK2p0?hl=en&fs=1]

घर की ओर बढ़ती नदी

पिछले दिनों देश के अन्‍य हिस्‍सों में लगातार हो रही वर्षा के कारण नदी-तालाब लबालब भर गए थे और कई नदियॉं उफान पर थी। छत्‍तीसगढ़ में भी अन्‍य नदियों के साथ पहाड़ी और मैदानी इलाकों से शिवनाथ में भी लगातार जल भराव हो रहा था और महानदी के भरे होने के कारण शिवनाथ अपने किनारों को लीलती हुई फैल रही थी। लगातार हो रही वर्षा और नदी के जलस्‍तर में वृद्धि की खबरों के बीच बच्‍चों की चिंता को अपने अतीत के अनुभवों से हौसला दे रहा था। यहॉं दुर्ग में जहां मेरा घर है वह शिवनाथ के करीब है और पुलगांव नाले के डुबान क्षेत्र में है। सामान्‍यतया तेजी से विकसित होते दुर्ग शहर की इस कालोनी में बाढ़ या वर्षा से कोई प्रभाव नहीं पड़ता किन्‍तु ज्‍यादा वर्षा से पिछले पंद्रह सालों में यह क्षेत्र तीन बार डूब चुका है और कालोनी से रहवासियों को बाहर निकल कर अन्‍यत्र शरण लेना पड़ा है। इस समय नदी के उफान को देखते हुए संभावना यही बन रही थी कि कालोनी डूबेगी। 

मेरे जीवन में शिवनाथ का अहम स्‍थान रहा है, जिस गांव में मै जन्‍म लिया और अभी तक के जीवन का आधे से अधिक हिस्‍सा जहॉं बिताया वह इसी शिवनाथ के मैदानी किनारे में बसा हुआ है। मेरे गांव से लगभग डेढ़ किलोमीटर उपर शिवनाथ से खारून मिलती है जहां सोमनाथ नाम का देव-पर्यटन स्‍थल है। खारून के मिलने के बाद शिवनाथ और चौड़ी और बलवती हो जाती है। किनारे में बसे छोटे से कच्‍चे घरों वाले गांव में बचपन से लेकर जवानी तक कई भीषण बाढ़ों का सामना हमने किया है जिनमें 1994 में आई बाढ़ के संबंध में मैंनें एक पोस्‍ट भी लिखा था। आज भी मेरे पास मेरे गांव के बाढ़ से संबंधित भास्‍कर में प्रकाशित चित्रमय रिपोर्ट सुरक्षित है जो मेरी यादों को ताजा करती रहती है। 

बाढ़ों से निरंतर जूझने के कारण बाढ़ का भय मन में नहीं था किन्‍तु तब जान-माल-अन्‍न-धन के नुकसान पर कोई दृष्टि विकसित नहीं हो पाई थी। पारिवारिक दायित्‍वों के साथ संभावित बाढ़ नें मेंरे मन में चिंता जरूर पैदा कर दी थी कि कैसे करेंगें, घर के सारे सामान का डूबना निश्चित था। समय कुछ ऐसा था कि मुझे कम्‍पनी ला बोर्ड, मुम्‍बई में एक केस के सिलसिले में जाना था और इन्‍हीं तारीखों में शिवनाथ घर में घुसने को उतावली थी। आगे की कहानी चित्रों की जुबानी -

07.09.2011 सुबह
07.09.2011 सुबह
07.09.2011 दोपहर
07.09.2011 दोपहर
07.09.2011 शाम

08.09.2011 सुबह
रात भर ठहराव के बाद सुबह से धीरे-धीरे नदी क्षेत्र के भूजल स्‍तर को बढ़ाती हुई अपने किनारों की ओर सिमटने लगी, और हमारी गली बाढ़ से सुरक्षति बच गई।

वसुंधरा सम्मान से नवाजे गए गिरिजा शंकर


विगत 14 अगस्‍त को लोक जागरण के लिए वसुंधरा सम्मान से वरिष्ठ पत्रकार गिरजाशंकर व्यास को अलंकृत किया गया। लोक अस्मिता, ग्राम चेतना एवं शब्द सम्मान का पिछले दिनों 11वां आयोजन भिलाई के भिलाई निवास में सम्‍पन्‍न हुआ। वसुन्‍धरा सम्मान स्व. देवी प्रसाद चौबे की पुण्य स्मृति में दिया जाता है। इस वर्ष हुए कार्यक्रम में अतिथि के रुप में बीएसपी के मुख्‍य कार्यपालन अधिकारी पंकज गौतम, महापौर निर्मला यादव, पत्रकारिता विश्वविद्यालय रायपुर के कुलपति सच्चिदानंद जोशी व बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष रविन्द्रनाथ मिश्र उपस्थित थे। 


इस अवसर पर सम्मानित हुए वरिष्ठ पत्रकार गिरिजा शंकर ने अपने उद्बोधन में कहा कि मैं अपने परिवार के बीच सम्मानित होकर काफी गौरवान्वित हूं। उन्‍होंनें आगे कहा कि राजनीति और पत्रकारिता आज संकट के दौर से गुजर रही है। उन्होंने स्‍वीकारा कि पत्रकारिता को उन्‍होंनें सदैव एक मिशन के रुप लिया। उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि समाज में ‘वॉच डॉग’ के तौर पर पत्रकारिता को माना जाता है लेकिन जरूरत इस बात की है कि राजनीति और पत्रकारिता अब खुद के ‘वॉच डॉग’ बनें। अपने अंदर झांके, तब ही समाज में हम बदलाव की उम्मीद कर सकते हैं। इसके लिए मर चुकी संपादक संस्था को फिर जिंदा होना होगा।आगे उन्‍होंनें कहा कि आज पत्रकारिता में मूल्यों का संकट आ गया है। पत्रकारिता का बाजारीकरण हो गया है। राजनीति और पत्रकारिता दोनों संकट के दौर से गुजर रहा है। 


कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय के कुलपति सचिदानन्द जोशी ने अपने आधार वक्‍तव्‍य में सोसल मिडिया पर बाते कहते हुए विशद रूप से ट्विटर व फेसबुक प्रयोग का विश्‍लेषण करते हुए कहा कि संदेश का प्रचार-प्रसार नेट के माध्यम दिनों दिन फैलता ही जा रहा है जो सोसल मिडिया का ही कमाल है। सोसल मिडिया प्रिंटमिडिया के लिए बड़ी चुनौती है। इस मौके पर उन्होंने सोसल मिडिया के कई उदाहरण भी दिए। फेसबुक में युवा पीढ़ी की बढ़ती दिलचस्‍पी एवं एक कमरे में बैठकर बाहर संसार से जुड़ने की मनोवैज्ञानिकता पर उन्‍होंनें प्रकाश डाला। फेसबुक या ट्विटर वाल पर लिखे अपने वाक्‍याशों पर कमेंट नहीं आने, लाईक नहीं किये जाने पर उपजे कुंठाओं पर भी उन्‍होंनें चर्चा किया। सोसल मीडिया के सहारे एक से अनेक होते विचारों और वैचारिक सहयोग से होने वाले बदलावों में उन्‍होनें विश्‍वास जताया। अपने पूरे आधार वक्‍तव्‍य को उन्‍होंनें सोशल मीडिया खासकर ट्विटर व फेसबुक पर ही केन्द्रित किया था। एक ब्‍लॉगर होने के नाते मैं उनके वक्‍तव्‍य में हिन्‍दी ब्‍लॉगगिंग के संबंध में कुछ सुनना चाह रहा था किन्‍तु उन्‍होंनें वैकल्पिक मीडिया के इस विकल्‍प पर एक शव्‍द भी नहीं बोले। सचिदानन्द जोशी जी को प्रदेश के विभिन्‍न कार्यक्रमों में सुनने का अवसर हमें प्राप्‍त होते रहा है, भविष्‍य में इस संबंध में उनके विचारों का इंतजार रहेगा।

संजीव तिवारी   

कालम व प्रतिवेदनों में उलझता आम आदमी

पिछले पोस्‍ट में हमने दुर्ग में भूमि लेकर भवन बनवाने तक एक आम आदमी को होने वाली परेशानियों का जिक्र किया था। इसी क्रम में, जिले में इस माह से कलेक्‍टर दुर्ग के द्वारा भूमि माफियाओं पर शिकंजा कसने के लिए लागू एक नये नियम के संबंध में हम यहॉं चर्चा करना चाहते हैं। 

इस नये नियम के तहत् पंजीयन कार्यालय एवं तहसीलदार व पटवारियों को प्रेषित किए गए पत्रों के अनुसार भूमि क्रय-विक्रय के लिए विक्रय पंजीयन के पूर्व विक्रीत भूमि का पटवारी से 14 बिन्‍दु प्रतिवेदन प्राप्‍त करना होगा। जिसमें श्रीमान तहसीलदार महोदय का हस्‍ताक्षर होना आवश्‍यक कर दिया गया है। जिला पंजीयक के पास उपलब्‍ध पत्र के अनुसार निर्धारित 14 बिन्‍दु प्रपत्र के फोटो पहचान पत्र पर श्रीमान तहसीलदार का हस्‍ताक्षर निर्धारित है किन्‍तु विगत दिनों कई बार बदले जा रहे इस प्रपत्र से फोटो पहचान पत्र पर श्रीमन तहसीलदार का हस्‍ताक्षर हटा दिया गया है, कलेक्‍टर द्वारा जारी निर्धारित प्रपत्र में बदलाव की अभिस्‍वीकृति श्रीमान कलेक्‍टर से ली गई है या नहीं, इस बात की यथोचित जानकारी नहीं है किन्‍तु पटवारियों के द्वारा अपने तहसीलदार के द्वारा जारी मौखिक आदेशों का पालन किया जा रहा है। 

इस नियम के तहत् विक्रेता यदि अपनी भूमि विक्रय करना चाहता है तो क्रेता और विक्रेता दोनों पटवारी के समक्ष उपस्थित होकर अनुरोध करना होगा और पटवारी समय व सहोलियत के अनुसार विक्रीत स्‍थल का निरीक्षण करेगा। भूमि के भौतिक सत्‍यापन के बाद पंचनामें जैसी कार्यवाही कई पटवारी कर रहे हैं जिसमें क्रेता व विक्रेता से स्‍थल निरीक्षण प्रपत्र पर हस्‍ताक्षर के साथ भौतिक नाप जोख के समय उपस्थित दो व्‍यक्तियों से उसमें बतौर गवाह हस्‍ताक्षर भी कराए जा रहे हैं। 

आवासीय प्‍लाटों के लिए तो यह प्रक्रिया कम समय लेने वाली है किन्‍तु बड़े व्‍यावसायिक प्‍लाटों व कृषि रकबों के स्‍थल निरीक्षण में समय लग रहा है। पटवारियों के पास वैसे भी पहले से कार्य की अधिकता है ऐसे में स्‍थल निरीक्षण के उपरांत विक्रीत भूमि की सहीं चौहद्दी लिखने की अनिवार्यता के कारण 14 बिन्‍दु प्रपत्र मिलने में देरी हो रही है। पटवारियों के पास आवेदनों की कतारे लग रही है और पंजीयन कार्यालय के कर्मचारी खाली बैठे हैं। पटवारी कार्यालयों में लगी भीड़ को पूछने से अधिकाश लोग इस नये नियम से एकबारगी खफा नजर आ रहे हैं। इस संबंध में पटवारी का कहना है कि जिन बिक्रीशुदा भूमियों के भौतिक अस्तित्‍व में समस्‍या है, आवासीय प्‍लाटों का लेआउट प्‍लान नहीं है या ऐसे कृषि भूमि जिनका बटांकन नहीं हुआ है उनकी चौहद्दी 14 बिन्‍दु प्रपत्र में लिख पाना संभव नहीं है, इसी कारण ऐसे भूमि का 14 बिन्‍दु प्रतिवेदन बनाया नहीं जा रहा है। इसके साथ ही कृषि भूमि के विक्रेताओं की दलील है कि विक्रयशुदा जमीन उनके पिता या परपिता के द्वारा अर्जित भूमि है जो उन्‍हें वारिसान में प्राप्‍त हुआ है और वे उक्‍त भूमि में बरसों से काबिज है, राजस्‍व अभिलेखों में बटांकन यदि नहीं हुआ है तो इसमें उनकी कोई गलती नहीं है। उक्‍त भूमि के राजस्‍व अभिलेखों पर विक्रेता ही नाम लिखा हुआ है एवं उक्‍त भूमि के कब्‍जे और स्‍वत्‍व पर किसी भी प्रकार का कोई विवाद नहीं है। विक्रता के भूमि स्‍वामी हक की भूमि के मूल खसरे के यदि विभिन्‍न तुकड़े हुए है तो उन्‍हें राजस्‍व अभिलेखों में दर्ज कराने एवं नक्‍शा दुरूस्‍त कराने का दायित्‍व राजस्‍व अधिकारियों का है। जिसके वावजूद पटवारी व तलसीलदार के द्वारा 14 बिन्‍दु व फोटा परिचय में हस्‍ताक्षर नहीं किया जाना आश्‍चर्यजनक है। 

आवासीय प्‍लाटों के भौतिक अस्तित्‍व की समस्‍या तो सिद्ध है, भू माफियाओं नें आवासीय प्‍लाटों के नाम पर लूट मचाई है, एक प्‍लाट को चार-पांच लोगों को बेंचा है, फर्जी लेआउट प्‍लान बना कर पहले प्‍लाट बेंचे फिर लेआउट में दर्शाये रोड़ रास्‍ते की जमीन को भी बेंच खाए हैं, और भी बहुत सारे अवैध कार्य किए गए है। मूलत: इसी कारण यह नया नियम अस्तित्‍व में आया है किन्‍तु आधा-एक एकड़ या इससे बड़े कृषि खसरों के विक्रय में ज्‍यादातर एसी परेशानी नहीं है। एक एकड़ या इससे बड़े कृषि खसरों के विक्रय में इस 14 बिन्‍दु की अनिवार्यता उतनी नहीं नजर आती। किसानों से हो रही चर्चा में जो बात सामने आ रही है वह सही है कि ज्‍यादातर शहरी कृषि खसरों के कई कई तुकड़े हो चुके हैं किन्‍तु नक्‍शें में उनका बटांकन नहीं हुआ है, नक्‍शें में बटांकन नहीं होने के कारण पटवारी को सहीं नक्‍शा बनाने एवं भूमि की चौहद्दी लिखने में परेशानी आ रही है। यद्धपि भूमि स्‍वामी स्‍थल निरीक्षण के समय अपनी भूमि को चिन्हित कर रहा है फिर भी पटवारी नक्‍शें में बड़े रकबे के खसरे में हुए तुकड़े में विक्रता की भूमि एकदम सही कहां पर दर्ज किया जाय यह समस्‍या है। इसके साथ ही यदि नक्‍शे में विक्रता के रकबे की भूमि को नाप कर पटवारी द्वारा दर्शा भी दिया गया तो राजस्‍व विधियों के तहत उसे विधिवत राजस्‍व निरीक्षक के द्वारा लाल स्‍याही से अभिप्रमाणित किया जाता है तभी वह प्रभावी हो पाता है। तो पटवारी के नाप जोख का कोई मतलब नहीं, 14 बिन्‍दु बिना भरे लटका रहेगा और किसान पटवारी कार्यालय के चक्‍कर काटते रहेगा। ऐसे में वह निश्चित रूप से इस नये नियम को प्रशासनिक तानाशाही कह कर प्रचारित करेगा, जिसका सहारा भू-माफिया लेंगें और इसे जन आन्‍दोंलन का नाम देंगें। 

सुननें में यह आया है कि क्रय-विक्रय में इस 14 बिन्‍दु प्रपत्र की अनिवार्यता को समाप्‍त करने के लिए एक प्रतिनिधि मंडल लगातार जिले के कलेक्‍टर से विमर्श कर रहा है, और प्रतिनिधि मंडल के लोगों को पूर्ण विश्‍वास है कि कल यह नियम रद्द हो जायेगा। किन्‍तु यह 'कल' कब आयेगा यह अभी भविष्‍य के गर्त में है। प्रतिनिधि मंडल किन मुद्दों में अपना विरोध जता रही है इस बात की जानकारी एक जनता के हैसियत से मुझे नहीं है, समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचार व प्राप्‍त अन्‍य सूचनाओं के आधार पर इतना ज्ञात है कि इस प्रतिनिधि मंडल में कौन कौन लोग हैं। अपुष्‍ट सूचनाओं के तहत् इसमें दुर्ग के लैंडलार्ड गुप्‍ता-अग्रवाल परिवार के सदस्‍य हैं और स्‍थानीय तथाकथित नई राजनीतिक पार्टी से जुड़े कुछ नेता हैं। एक जनता के नजरिये से यदि मैं कहूं तो लैंडलार्ड गुप्‍ता अग्रवाल परिवार के सदस्‍यों के साथ इस प्रतिनिधि मंडल में राजनीति से जुडे के लोगों का होना बार बार खटक रहा है। 

मेरे विचार से पहली बात तो यह कि, जनता के मुद्दे राजनैतिक सोंच से कदापि हल नहीं किये जा सकते। दूसरी बात यह कि लोगों का यह भी कहना है कि इस प्रतिनिधि मंडल में ऐसे लोग भी हैं जो यहां भूमि के खरीदी-बिक्री व प्‍लाटिंग का कार्य बतौर व्‍यवसाय कर रहे हैं। जो भी भूमि के धंधे से सीधे तौर पर लाभ से जुड़ा व्‍यक्ति है वह इस मसले में निष्‍पक्ष रह ही नहीं सकता। इस बात का सबसे सटीक प्रमाण है कि प्रतिनिधि मंडल 14 कालम के अतिरिक्‍त उस प्रपत्र का भी विरोध कर रहा है जिसमें प्‍लाट काट कर बेंचने वाले भू-स्‍वामी से यह लिखवाया जाता है कि शेष रोड़-रास्‍ते की भूमि को मैं विक्रय नहीं करूंगा। प्रतिनिधि मंडल यदि किसानों को रिप्रेजेंट कर रही है तो उसे इस प्रपत्र के विरोध का कोई मतलब ही नहीं है, इस प्रपत्र का विरोध तो सिद्ध करता है कि हम प्‍लाट काट कर बेंचने वाले हैं। 

ऐसी स्थिति में 14 कालम का विरोध करने वाले किसानों से उनके विरोध का सही कारण जानना होगा, पिछले पंद्रह दिनों से दुर्ग तहसील के किसानों से मेरी लगातार हो रही चर्चा में मैंने जो मूल पाया है वह मात्र इतना ही है कि उनके खसरे को नक्‍शे में चढ़ाया नहीं गया है जिसे राजस्‍व की भाषा में बटांकन कहा जाता है। बटांकन नहीं होने के कारण पटवारी 14 बिन्‍दु कालम भर नहीं रहा है और किसान पैसे के लिये भटक रहा है। मेरे संपर्क में ग्राम पोटिया का एक किसान आया जिसके पिता अपोलों में भर्ती हैं उसे रूपयों की सक्‍त आवश्‍यकता है किन्‍तु बटांकन नहीं होने के कारण उसके भूमि का विक्रय पंजीयन नहीं हो पा रहा है, और उसके जमीन का क्रेता उसे बिना विक्रय पंजीयन और राशि नहीं दे रहा है। अब यदि समय पर पैसा नहीं मिलने के कारण उसके पिता की मृत्‍यु हो जाती है तो वह उन रकमों का क्‍या करेगा। दूसरे तरफ क्रेता की दलील है कि वह पहले भी विक्रेता को काफी रकम दे चुका है शेष राशि वह विक्रय पंजीयन के बाद ही देगा। अपने दलीलों पर क्रेता और विक्रेता दोनों सही है किन्‍तु बटाकंन नहीं होने के कारण 14 बिन्‍दु प्रपत्र बनने में हो रही देरी से एक किसान बेमौत मरता है तो उसकी जिम्‍मेदारी कौन लेगा।

यद्धपि मैं सीधे तौर पर भूमि क्रय-विक्रय के लाभों से जुड़ा हुआ नहीं हूं किन्‍तु दुर्ग सहित छत्‍तीसगढ़ के भू-संपदा संबंधी आर्थिक विकास का साक्षी रहा हूं। प्रदेश के रायपुर जिले में विक्रय पंजीयन के पूर्व 14 बिन्‍दु प्रतिवेदन की अनिवार्यता विगत तीन साल से अस्तित्‍व में है वहां अब यह व्‍यवहार में आ गया है और सरलता से क्रियान्वित हो रहा है। मुझे अपने जिले में 14 बिन्‍दु कालम की उपादेयता पर कोई संदेह नहीं है किन्‍तु उसके क्रियान्‍वयन में व्‍यवहारिक परेशानियों का भी ध्‍यान दिया जाना आवश्‍यक है, तभी जन हित में इसकी पूर्ण उपादेयता सिद्ध हो सकेगी। 

हम पाठकों की सुविधा के लिए 14 बिन्‍दु प्रतिवेदन अपलोड कर रहे हैं, जिसे आप यहॉं क्लिक कर डाउनलोड कर सकते हैं।

संजीव तिवारी   

पचास साल बाद फहराया जय स्‍तंभ में तिरंगा

आजादी मिलने के उपरांत भारत के राज्‍य एवं जिला मुख्‍यालयों में स्‍वतंत्रता दिवस के प्रतीक चिन्‍ह के रूप में जय स्‍तंभ का निर्माण कराया गया था, जिसमें आजादी के बाद एवं संविधान लागू किये जाने के बाद लगातार स्‍वतंत्रता व गणतंत्र दिवस में तिरंगा झंडा फहराया जाता है। छत्‍तीसगढ़ के दुर्ग जिला मुख्‍यालय में भी सन् 1947 में जय स्‍तंभ का निर्माण कराया गया जिसमें शुरूआती दौर में चार-पांच साल तक स्‍वतंत्रता दिवस में तिरंगा झंडा फहराया गया। इसके बाद दुर्ग जिला कार्यालय भवन व जिला न्‍यायालय का विस्‍तार किया और फिर धीरे-धीरे जय स्‍तंभ को भुला दिया गया।

दुर्ग जिला अधिवक्‍ता संघ नें इस वर्ष आजादी के प्रतीक के रूप में निर्मित इस जय स्‍तंभ की सुध ली। संघ के पदाधिकारियों द्वारा जिले के जिलाधीश श्रीमती रीना कंगाले जी से अनुरोध कर इस वर्ष जय स्‍तंभ में घ्‍वजा रोहण करने की अनुमति मांगी गई। जिलाधीश महोदया नें ना केवल अनुमति दी एवं आश्‍चर्य व्‍यक्‍त किया कि नगर व प्रशासन के लोग जय स्‍तंभ को भूल कैसे गये।

आज प्रात: जय स्‍तंभ पर लगभग पचास साल बाद दुर्ग जिला कार्यालय परिसर में स्थित जय स्‍तंभ पर जिला अधिवक्‍ता संघ, दुर्ग नें ध्‍वजा रोहण किया। समारोह में अधिवक्‍ता संघ के पदाधिकारी व अधिवक्‍ता गण के साथ ही जिला एवं सत्र न्‍यायाधीश एवं अन्‍य न्‍यायाधीशगण उपस्थित थे। इस अवसर के कुछ चित्र -














कलेक्‍टरेट में ध्‍वजारोहण

स्‍वतंत्रता दिवस की शुभकामनाओं सहित ...

संजीव तिवारी

आम आदमी का स्‍वप्‍न : एक बंगला बने न्‍यारा

राजधानी बनने के बाद प्रदेश में भू-संपदा का अंधा-धुध व्‍यापार आरंभ हुआ था, इस व्‍यापार में व्‍यवसायियों, उद्योगपतियों से लेकर नेताओं और सरकारी कर्मचारियों के नंम्‍बर एक और दो के पैसों का निवेश आज तक अनवरत जारी है। किसानों की जमीन बिल्‍डर और भू-माफिया कम दर में खरीद कर शासन के नियमों को तक में रखते हुए शहरी क्षेत्रों के आस-पास की जमीनों में खरपतवार जैसे बहुमंजिला मकाने और कालोनियां विकसित करने में लगे हैं। भूमि के इस व्‍यापार के कारण अपने मकान का स्‍वप्‍न अब आम जनता की पहुंच से दूर हो रहा है। आम जनता के इस दर्द के पीछे भू-माफियाओं का का व्‍यावसायिक षड़यंत्र रहा है। शासन को जब तक भू-माफियाओं के इन कृत्‍यों का भान हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी और शहर के आस-पास की जमीनें किसानों के हाथ से छिन चुकी थी। खैर देर आये दुरूस्‍त आये के तर्ज पर शासन नें पिछले वर्ष से ही इसपर लगाम लगाने की मुहिम आरंभ भी की किन्‍तु भू-राजस्‍व, नगरीय प्रशास व नगर विकास के कानूनों के बीच से पेंच ढ़ूढते भू-माफिया अपने व्‍यापार में निरंतर लगे रहे।
भूमि क्रय करने के बाद प्रमाणीकरण-किसान किताब प्राप्‍त करने में 8 माह, भू-उपयोग प्रमाण पत्र प्राप्‍त करने में 3 माह, डावर्सन में 3 माह, नजूल अनापत्ति में 3 माह, नक्‍शा पास कराने में 3 माह कुल 20 माह यानी लगभग दो वर्ष इन प्रक्रियाओं में लगता है। उसके बाद आप गृह ऋण के लिए बैंकों के पास जाने की स्थिति में होते हैं। मजदूरों की समस्‍या, बढ़ते भवन निर्माण सामाग्री की कीमतों और देख-रेख के में लगातार उलझने के बाद अगले एक-दो वर्ष में कल्‍पनाओं का छत मयस्‍सर हो पाता है।
छत्‍तीसगढ़ जैसे विकासशील प्रदेश में आम आदमी जमीन खरीदकर उसमें भवन बना कर रहने आने तक के लम्‍बे और खर्चीले प्रक्रिया को महसूस कर अब बहुमंजिला भवनो में फ्लैट लेना जादा सुविधाजनक मानने लगा है इसी कारण सुविधाहीन क्षेत्रों में भी बहुमंजिला भवनो की बाढ़ आ रही है। इसके बावजूद अब भी अधिकतम लोगों का अपना छत अपनी जमीन के सोंच के कारण स्‍वयं जमीन लेकर उसमें अपनी कल्‍पनाओं का घर बनाया जा रहा है या बनाने का प्रयास किया जा रहा है। अपनी कल्‍पनाओं के घर को आकार लेने में शासन के नीतियों के तहत् जो दिक्‍कतें आ रही हैं उसके संबंध में कुछ जानकारी के संबंध में हम यहॉं चर्चा करना चाहते हैं।

भूमि के विक्रय पंजीयन के उपरांत भूमि का प्रमाणीकरण कराना होता है। राजस्‍व अभिलेखों में विक्रेता का नाम काटकर क्रेता का नाम चढ़ाए जाने की यह प्रक्रिया पटवारी के माध्‍यम से तहसीलदार के द्वारा किया जाता है, यह प्रक्रिया, पंजीकरण तिथि से पंद्रह दिन बाद और अंतरण पर किसी भी प्रकार से शिकायत या समस्‍या नजर आने पर सालो समय लेता है। प्रमाणीकरण के बाद पटवारी उक्‍त भूमि का पुस्तिका (ऋण पुस्तिका) बनाकर देता है। पिछले साल से वर्तमान तक दुर्ग तहसील में किसान पुस्तिका की लगातार किल्‍लत बनी हुई है। किसान पुस्तिका सरकार द्वारा प्रदान किया जाता है किन्‍तु पिछले सालों से बहुत कम मात्रा में किसान किताब तहसील में आये हैं इस कारण पटवारियों के द्वारा किसान पुस्तिका दिया नहीं जा रहा है। मुझे दुर्ग तहसील के पटवारी कार्यालयों की जानकारी है जिसमें लगभग छ: मा‍ह से लोग किसान पुस्तिका पुस्तिका के लिए भटक रहे हैं, उनका प्रमाणीकरण हो गया है किन्‍तु किसान पुस्तिका नहीं मिल पाया है। अभी किसान पुस्तिका बनने के लिये कम से कम तीन और अधिकतम आठ माह का इंतजार करना पड़ रहा है। मकान बनवाने के उद्देश्‍य से भूमि क्रय करने के बाद सर्वप्रथम उस भूमि का कृषि से आवासीय भू-परिर्वतन कराना होता है। यदि आप आवासीय भू-उपयोग वाली भूमि क्रय करते हैं तो इसकी आवश्‍यकता नहीं पड़ती किन्‍तु बढ़ती आबादी के कारण अब ज्‍यादातर शहर के बाहरी इलाकों में मिलने वाली भूमि कृषि उपयोग की ही बच गई है इसलिये उन्‍हें आवासीय परिर्वतन कराने की आवश्‍यकता पड़ती है।

पिछले कुछ वषों से प्रदेश के दुर्ग जिले में कृषि भूमि के आवासीय भू-पविर्तन (धारा 172 भूमि का व्‍यपवर्तन – छ.ग. भू-राजस्‍व संहिता, 1959) पर रोक लगा दिया गया था। व्‍यवहार में यह देखने को आया है कि भू-माफिया और अपंजीकृत कालोनाईजर्स किसानों से कृषि भूमि का बड़ा भू-भाग क्रय कर आम मुख्तियारनामा लेते हैं और छोटा छोटा तुकड़ा बेंचते हैं, क्रेता उन छोटे छोटे तुकड़ों का आवासीय भू-पविर्तन कराते हैं। इससे भू-माफिया को संपूर्ण भू-भाग के आवासीय भू-पविर्तन का शुल्‍क नहीं देना होता बल्कि नगर निवेश से क्षेत्र का अधिकृत विन्‍यास भी पास नहीं कराना पड़ता है। आवासीय भू-पविर्तन शुल्‍क के अतिरिक्‍त इससे भू-माफिया को कालोनाईजर्स अधिनियम के तहत् निम्‍न वर्ग के लिए, उद्यान व अन्‍य आवश्‍यक सुविधाओं के लिए निर्धारित भूमि छोड़ने की भी आवश्‍यकता नहीं पड़ती। कभी किसी प्रकार से शासकीय दबाव या कार्यवाही की संभावना बनती भी है तो भू-माफिया सारी मलाई खाकर, लुटे किसान के जुम्‍मे सारी जवाबदारी डाल कर अपना पल्‍ला झाड़ लेते हैं। भू-माफिया सुविधाओं को ताक में रखकर भूमि बेचते हैं, बाद में भूमि खरीदने वाला मूलभूत सुविधाओं के लिए सरकारी कार्यालयों का चक्‍कर काटते फिरता है। जनता को यह आभास दिलाने के लिए कि ऐसे लोगों से भूमि ना क्रय करें सोंचकर ही आवासीय भू-परिवर्तन को रोक दिया गया था। पिछले वर्ष जनता की लगातार मांग के बाद दुर्ग जिले में कृषि भूमि के आवासीय भू-परिर्वतन का कार्य पुन: आरंभ किया गया किन्‍तु आवासीय भू-परिर्वतन के पूर्व प्रचलित प्रक्रिया में कुछ बदलाव लाये गये। नई प्रक्रिया के तहत् आवेदक को निर्धारित प्रारूप के आवेदन पत्र पर अपनी भूमि के संपूर्ण राजस्‍व अभिलेखों की नोटरी द्वारा अभिप्रमाणित तीन प्रतियों के साथ अनुविभागीय अधिकारी महोदय के कार्यालय में आवेदन प्रस्‍तुत करना है। अब हम आपको बताते हैं कि इसके लिये क्‍या क्‍या पापड़ बेलने पड़ेंगें और कहॉं कितना समय लगेगा।

राजस्‍व अभिलेखों के साथ ही नगर तथा ग्राम निवेश विभाग द्वारा उक्‍त भूमि का भू-उपयोग प्रमाण-पत्र भी लगाना आवश्‍यक है। नगर तथा ग्राम निवेश विभाग द्वारा भू-उपयोग प्रमाण-पत्र प्राप्‍त करना कितना मुश्किल काम है यह दुर्ग जिले में भटकते अनके लोग बता देंगें, इस प्रमाण-पत्र के लिए न्‍यूनतम शुल्‍क निर्धारित है किन्‍तु लोगों का कहना है कि इसके लिये ज्‍यादा रकम खर्च करने के बाद भी दो तीन महीने से कम नहीं लगता। दुर्ग नगर निवेश के संचालक महोदय अवैध प्‍लाटिंग एवं अपने विभागीय दायित्‍वों के प्रति संवेदनशील है एवं समय-समय पर मीडिया से भी लगातार रूबरू होते रहते हैं, उन्‍हें अपने कार्यालय में जनता को हो रहे कष्‍ट के प्रति ध्‍यान देना चाहिए।

दो-तीन महीने चप्‍पल घिसने के बाद आवेदक इस स्थिति में आता है कि अपना आवेदन अनुविभागीय अधिकारी के समक्ष प्रस्‍तुत कर सके। अनुविभागीय अधिकारी महोदय विचार करेंगें एवं उन्‍हें यदि प्रतीत होता है कि आवेदक के भूमि का आवासीय भू-परिर्वतन किया जा सकता है तो वे आवेदन स्‍वीकार करेंगें। आवेदन स्‍वीकार करने के उपरांत अनुविभागीय अधिकारी महोदय द्वारा उक्‍त आवेदन के संबंध में क्रमश: नगर निवेश विभाग, नगर पालिक निगम एवं व्‍यपर्वतन शाखा- भू-अभिलेख से अभिमत मांगा जाता है। इन तीनों विभागों से अभिमत प्राप्‍त होने के बाद अनुविभागीय अधिकारी महोदय किसी कृषि भूमि का आवासीय परिवर्तन करते हैं।

इस नये प्रक्रिया की व्‍यवहारिकता पर लोग रोज प्रश्‍नचिन्‍ह लगाते हैं। इन तीनों विभागों में से नगर निवेश विभाग प्रस्‍तावित भूमि के मास्‍टर प्‍लान (नगर तथा ग्राम निवेश अधिनियम, 1973) के अनुसार भू-उपयोग (प्रयोजन) का उल्‍लेख करते हुए अपना प्रतिवेदन अनुविभागीय अधिकारी को प्रस्‍तुत करता है । नगर पालिक निगम के अभियंता भूमि का सर्वेक्षण कर नगर निवेश विभाग के भू-उपयोग का उल्‍लेख करते हुए अपना प्रतिवेदन प्रस्‍तुत करती है। व्‍यपर्वतन शाखा- भू-अभिलेख से राजस्‍व अधिकारी भूमि का मौका निरीक्षण करता है, चौहद्दी पंचनामा तैयार करता है और अपना लिखित अभिमत प्रकट करते हुए अनुविभागीय अधिकारी को अपना प्रतिवेदन प्रस्‍तुत करता है।

इन तीनों विभागों के प्रतिवेदनों में मात्र व्‍यपर्वतन शाखा- भू-अभिलेख के प्रतिवेदन का तथ्‍यात्‍मक अस्तित्‍व समझ में आता है बाकी के विभाग मात्र क्षेत्र के भू-उपयोग का उल्‍लेख कर अपना पल्‍ला झाड़ लेते हैं। इन तीनों विभागों से प्रतिवेदन मंगाए जाने के कारण जनता बारी बारी से इन तीनों विभागों का चक्‍कर काटता है जहां आज-कल के चलते प्रकरण महीनों चलता है अंत में जनता मजबूर होकर भ्रष्‍टाचार का साथ देता है तब जाकर उसका प्रतिवेदन अनुविभागीय अधिकारी के पास पहुचता है। इन प्रतिवेदनों के प्राप्‍त होने के बाद वहां प्रार्थी का बयान लिपिबद्ध किया जाता है और यदि भू-परिर्वतन किया जाना संभव हुआ तो प्रकरण पुन: व्‍यपर्वतन शाखा- भू-अभिलेख में प्रीमियम की गणना व चालान के द्वारा उसे पटाने हेतु जाता है, वहां से आवेदक शुल्‍क की राशि पता कर चालान के द्वारा राशि का भुगतान करता है फिर प्रकरण पुन: अनुविभागीय अधिकारी के पास आता है जहां अनुविभागीय अधिकारी भू-परिर्वतन प्रपत्र पर हस्‍ताक्षर कर प्रपत्र आवेदक को प्रदान करता है। इस प्रक्रिया में न्‍यूनतम तीन महीने लगते हैं।

मकान बनाने का सपना देखने वालों के कष्‍ट का अंत यहां नहीं हो जाता बल्कि यह पहली सीढ़ी पार करने के समान होता है और आगे की लम्‍बी सीढि़यों के लिए वह अपने आप को तैयार करता है। अगली सीढ़ी के रूप में उसे भवन का नक्‍शा किसी पंजीकृत वास्‍तुकार से बनवाना होता है जो सेवा शुल्‍क के भुगतान के साथ जल्‍दी ही हो जाता है क्‍योंकि नगर में वास्‍तुकारों की संख्‍या अधिक होने के कारण चयन की सुविधा आवेदक के पास होती है। नक्‍शा बनने के बाद शहरी क्षेत्र में भवन बनाने के लिए नगर पालिक निगम में भवन निर्माण अनुज्ञा प्राप्‍त करने के पूर्व नजूल विभाग की अनापत्ति लेनी होती है। नजूल विभाग से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना उसी तरह की लम्‍बी और झुलाउ प्रक्रिया है जैसे भू-परिर्वतन के लिए विभागों से अभिमत प्राप्‍त करना। यद्धपि आपकी भूमि नजूल भूमि नहीं है फिर भी नजूल विभाग की अनापत्ति मांगा जाना अव्‍यावहारिक है। नजूल अनापत्ति के लिये सामान्‍यतया दो महीने लगते हैं।

इन सबके बाद नगर पालिक निगम से भवन निर्माण अनुज्ञा हेतु आवेदन और चप्‍पल घिसाई आरंभ होती है, यद्धपि अब निगम क्षेत्र के कुछ वास्‍तुशिल्‍पियों को 2000 वर्ग फिट तक के भूमि के भवन निर्माण की अनुज्ञा देनें का अधिकार सौंप दिया है इससे जनता को कुछ राहत मिलने की संभावना है। निगम से नक्‍शा पास कराने में कम से कम तीन से छ: माह तक लग सकते हैं।
यह पोस्‍ट वर्तमान में दुर्ग जिले में भूमि क्रय कर मकान बनवाने में अव्‍यावहारिक प्रशासनिक प्रक्रिया के तहत् आ रही दिक्‍कतों के संबंध में क्रमिक जानकारी उपलब्‍ध कराने के उद्देश्‍य से, शासन तक इसकी जानकारी देने वाले मित्रों के लिए लिखी गई है।

इस प्रकार से प्रमाणीकरण-किसान किताब में आठ माह, भू-उपयोग प्रमाण पत्र प्राप्‍त करने में तीन माह, डावर्सन में तीन माह, नजूल अनापत्ति में तीन माह, नक्‍शा पास कराने में तीन माह कुल 20 माह यानी लगभग दो वर्ष इन प्रक्रियाओं में लगता है। उसके बाद आप गृह ऋण के लिए बैंकों के पास जाने की स्थिति में होते हैं। मजदूरों की समस्‍या, बढ़ते भवन निर्माण सामाग्री की कीमतों और देख-रेख के में लगातार उलझने के बाद अगले एक-दो वर्ष में कल्‍पनाओं का छत मयस्‍सर हो पाता है।
दुर्ग कलेक्‍टर आई ए एस  श्रीमती रीना बाबा साहेब कंगाले

जिले में उर्जावान कलेक्‍टर माननीया रीना बाबा साहेब कंगाले के प्रशासनिक प्रगति व जनता के हित के लिये उठाए गए कदमों के संबंध में प्रतिदिन समाचार पत्रों में समाचार प्रमुखता से छप रहे हैं। इससे लगता है कि महोदया जनता के दर्द को कम करना चाहती है। उन्‍हें प्रत्‍येक विभाग में इस प्रकार से प्रकरणों को जानबूझकर लटकाने और समय लगाने की बाबू टाईप सोंच में शीघ्र ही लगाम लगानी चाहिए और जनता को मकान जैसे अहम सुविधा प्राप्‍त करने में बेवजह देरी को रोककर उनके सपनो को साकार करने में सहयोग करना चाहिए। 
संजीव तिवारी 

.

.
छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...