वैवाहिक परम्‍पराओं में आनंदित मन और बैलगाड़ी की सवारी

अक्षय तृतिया के गुड्डा-गुड्डी
अक्षय तृतिया के दिन से गर्मी में बढ़त के साथ ही छत्तीसगढ़ में विवाह का मौसम छाया हुआ है। पिछले महीने लगातार सड़कों में आते-जाते हुए बजते बैंड और थिरकते टोली से दो-चार आप भी हुए होंगें। इन दिनों आप भी वैवाहिक कार्यक्रमों में सम्मिलित हुए होंगें और अपनी भूली-बिसरी परम्पराओं को याद भी किए होगे। छत्तीसगढ़ में विवाह लड़का-लड़की देखने जाने से लेकर विदा कराने तक का मंगल गीतों से परिपूर्ण, कई दिनों तक चलने वाला आयोजन है। जिसमें गारी-हंसी-ठिठोली एवं करूणमय विवाह गीतों से लोक मानस के उत्साह को बनाए रखने का प्रयास किया जाता है। वैवाहिक मेहमान महीनों से विवाह वाले घरों में आकर जमे रहते हैं, बचपन में हम भी मामा गांव और अन्‍य रिश्‍तेदारों के घरों की शादी में महीनों 'सगाही' जाते रहे हैं।

जनगीतकार लक्ष्‍मण मस्‍तूरिहा की पुत्री शुभा का विवाह 12 मई 2011
छत्तीसगढ़ की पुरानी परम्परा में बाल-विवाह की परम्परा रही है, तब वर-वधु को 'पर्रा' में बैठाकर 'भांवर गिंजारा' जाता था और दोनों अबोध जनम-जनम के लिए एक-दूसरे के डोर में बंध जाते थे। सामाजिक मान्यता उस डोर के बंधन को सशक्त करती थी और वे इस अदृश्य बंधन के सहारे पूरी उम्र साथ-साथ काटते थे। शिक्षा के प्रसार के साथ ही कुछ बढ़ी उम्र में शादियां होने लगी किन्तु संवैधानिक उम्र के पूर्व ही। इतना अवश्य हुआ कि लड़के-लड़कियॉं विवाह का मतलब भले ना जाने किन्तु अपने पांवों से फेरे लेने लगे। लगभग इसी अवधि की बात बतलाते हुए हमारे पिता जी बतलाते थे कि हमारी मॉं को देखने और विवाह पक्का करने गांव के ठाकुर (नाई) और बरेठ (धोबी) गए थे। दादाजी एवं पिताजी नें मेरी मॉं को देखा नहीं था। मेरी मॉं बिलासपुर गनियारी के पास चोरभट्ठी में अपने भाई-बहनों के साथ उसी स्कूल में पढ़ रही थी जहॉं मेरे नाना प्रधान पाठक थे।
मेरे भांजें की शादी 
उन दिनों 'पउनी-पसारी' के द्वारा चयनित वर-वधु का विवाह अभिभावक सहर्ष तय कर स्वीकार करते थे। गावों में नाई, रावत और धोबी घर के कामों में इस तरह रमें होते हैं कि वे परिवार के एक अंग बन जाते हैं। वे अपने ठाकुर (मालिक) के बच्चों से एवं अपने ठाकुर की परिस्थितियों से भी परिचित होते हैं उन्हें पता होता है कि मालिक ठाकुर के कौन बच्चे के लिए कैसी लड़की या लड़का चाहिए। मालिक ठाकुर को भी अपने 'पौनी-पसारी' पर भरपूर भरोसा होता था, शायद इसी विश्वास के कारण यह परम्परा चल निकली होगी। 

डीजे के कर्कश संगीत में थिरकते युवा
योग्य वर या वधु के चयन के बाद 'लगिन धराने' के दिन अभिभावक वधु के घर जाता है। इस दिन अभिभावक और उसके पुरूष संबंधी वधु के घर में जाकर विधिवत पूजा के साथ विवाह का मुहुर्त तय करते हैं और लग्न पत्रिका का आदान प्रदान होता है। वधु के हाथ से 'जेवन' बनवाया जाता है और वर के अभिभावक और संबंधी को वधु के द्वारा ही परोसा जाता है। वर के अभिभावक और उसके पुरूष संबंधी वधु को 'जेवन' करने के बाद 'रूपिया धराते' हैं और वधु उनका चरण स्पर्श कर आर्शिवाद लेती है। आजकल यह परम्परा अब होटलों में निभाई जा रही है जहॉं वधु के पाक कला प्रवीणता की परीक्षा नहीं हो पाती। वैसे भी आधुनिक समाज में नारी का इस प्रकार परीक्षण परीक्षा उचित भी नहीं है। 
व्‍यंग्‍यकार विनोद साव की पुत्री शैली का विवाह 07 मई 2011
'लगिन धराने' के बाद दोनों पक्षों के घरों में मांगलिक कार्यक्रम आरंभ हो जाते हैं। अचार, बरी, बिजौरी बनने लगता है, जुन्ना धान 'कोठी-ढ़ाबा' से निकाल कर 'कुटवाने' 'धनकुट्टी' भेजा जाता है, गेहूं की पिसाई और अरहर की दराई में घर का 'जतवा घरर-घरर नरियाने' लगता है। सोन-चांदी और कपड़ों की खरीददारी में महिलायें 'बिपतिया' जाती हैं। विवाह और लगिन के बीच किसी दिन लड़के वाले के तरफ से एवं लड़की वाले के तरफ से एक दूसरे के श्रृंगार प्रसाधन, कपड़े व संबंधियों के कपड़े लिये व दिये जाते हैं। परम्परा में इसे 'फलदान' का नाम दिया गया है क्योंकि कपड़ों के साथ ही फलों की टोकरियॉं भी भेजी जाती है। छत्तीसगढ़ में फलदान वर या वधु के घर का स्टै‍टस बताने-जताने का तरीका है। फलदान आने के बाद उसे घर के आंगन या ओसारे में फैलाकर गांव वालों को दिखाया जाता है। इसके बाद विवाह के लिए 'मडवा' की तैयारी शुरू हो जाती है। 

विनोद साव जी
इसके आगे छत्तीसगढ़ी वैवाहिक परम्परा के संबंध में सीजी गीत संगी में राजेश चंद्राकर जी नें छत्तीसगढ़ के वैवाहिक गीतों के साथ इन्हें बहुत सुन्दर ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। उनके पोस्टों में यहॉं के वैवाहिक गीतों एवं परम्पराओं का आनंद लिया जा सकता है। पिछले माह लगातार 'बिहाव के लाडू झड़कते' हुए कुछ एैसे सगे - संबंधियों और मित्रों के पुत्र-पुत्रियों के विवाह में जाने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ जहॉं लेखन विधा से जुड़े लोगों से मेल-मुलाकात हुई। विवाह वर-वधु एवं उनके पारिवारिक संबंधियों के साथ-साथ समाज को आपस में मिलाता है। वैवाहिक कार्यक्रमों में शामिल होना मन को आनंदित करता है, हम आपस में बातचीत करते हैं खुशियां बांटते हैं और ऐसे कार्यक्रम में जहां डीजे और कर्कश संगीत ना हो वहां आप खुलकर बातें भी कर सकते हैं और दूसरों की बातें सुन भी सकते हैं। ऐसा ही एक वैवाहिक कार्यक्रम व्यंग्यकार, कथाकार, उपन्‍यासकार विनोद साव जी की पुत्री के विवाह में देखने को मिला। विनोद साव जी की बिटिया के भव्य वैवाहिक कार्यक्रम में डीजे और कर्कश संगीत गायब था। आजकल के ज्यादातर वैवाहिक कार्यक्रम में डीजे के तेज आवाज के कारण हम आपस में बात ही नहीं कर पाते, मुझे विनोद जी का यह प्रयोग बहुत अच्छा लगा। पिछले ही महीनें छत्तीसगढ़ के जनकवि लक्ष्मण मस्तूरिहा जी की पुत्री का भी विवाह था और हम यहॉं भी आमंत्रित थे।
बैलगाड़ी में कोट पहने अपनी श्रीमती जी के साथ घर की ओर जाती हमारी पारंपरिक सवारी 
बिहाव नेवता मानते हुए अपनी शादी के दिन की यादें भी साथ चलती हैं, अपने इन विशेष दिवस को कोई नहीं भूल सकता, इन शब्दों के बहाने और सही कहें तो 'पोस्‍ट ठेलने के लिए' हमने भी अपने बीते दिनों को याद किया। 'धरनहा' पेटी से फोटो एल्बम निकलवाया और घंटो बांचते रहे। हॉं जी देखना क्या बांचना ही तो है अपने विवाह के चित्रों को। इन्हीं मे से एक दो ऐतिहासिक चित्रों को आप लोगों के साथ बांट रहा हूँ।  कार में बारात जाने की परम्परा नई है, इस नई परम्परा का निर्वहन हमनें भी किया। विवाह के बाद अपनी पत्नी के साथ कच्चे रास्ते में धूल उडाते हुए पाल के एनई से धुर गांव के महामाई मंदिर में आये। गांव की परम्परा के अनुसार वर-वधु को पहले ग्राम देवी से आर्शिवाद लेना होता है फिर लगभग आधे किमी दूर घर जाना होता है। मंदिर में पूजा कर जब हम बाहर निकले तब तक मेरे साथ आई सभी गाडि़यों को मेरे पिताजी मेरे घर के पास पार्क करवा आये। हमारे स्वागत में बैल गाड़ी के साथ हमारा पुराना 'कमइया' हाथ जोड़े खड़ा मिला। मेरे गुस्साने पर वह मुझे समझाने लगा ‘बड़े दाउ के संउख ये संजू दाउ झन रिसा।’ पिता के मन की उपज थी यह, उनका किसान मन चाहता था कि अपनी बैलगाड़ी में बहु घर आये। मैं कुढ़ता रहा, और सामान के साथ हम बैल गाड़ी पर लद गए। इस चित्र का वाकया मेरे 14 वर्षीय पुत्र के लिए ‘अटपटा और मूर्खतापूर्ण’ है, किन्तु मेरे पिता के लिए यह आवश्यक था। छत्‍तीसगढ़ की वैवाहिक परम्‍परा पर पुन: कभी लिखूंगा, अभी तो ये चित्र देखिये -


लो आ गई सवारी घर तक
संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...