फेसबुकिया कविता : उनकी हर एक कविता मेरी है

कवितायें भी लिखते हो मित्र
मुझे हौले से उसने पूछा
कवितायें ही लिखता हूँ मित्र
मैने सहजता से कहा.

भाव प्रवाह को
गद्य की शक्‍ल में ना लिखकर
एक के नीचे एक लिखते हुए
इतनी लिखी है कि
दस-बीस संग्रह आ जाए.

डायरी के पन्‍नों में
कुढ़ते शब्‍दों नें
हजारों बार मुझे आतुर होकर
फड़फड़ाते हुए कहा है
अब तो पक्‍के रंगों में
सतरंगे कलेवर में
मुझे ले आवो बाहर
पर मैं हूँ कि सुनता नहीं
शब्‍दों की .

शायद इसलिए कि
बरसों पहले मैंनें
विनोद कुमार शुक्‍ल से
एक अदृश्‍य अनुबंध कर लिया था
कि आप वही लिखोगे
जो भाव मेरे मानस में होंगें
और उससे भी पहले
मुक्तिबोध को भी मैंने
मना लिया था
मेरी कविताओं को कलमबद्ध करने.

इन दोनों नें मेरी कविताओं को
नई उंचाईयां दी
मेरी डायरी में दफ्न शब्‍दों को
उन तक पहुचाया
जिनके लिये वो लिखी गई थी
उनकी हर एक कविता मेरी है
क्‍या आप भी मानते हैं कि
उनकी सारी रचनांए आपकी है.

संजीव

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...