छत्‍तीसगढ़ी गज़ल संग्रह ‘मोर गज़ल के उड़त परेवा’ : (II)

पिछले पोस्‍ट का शेष ..
 
नवोदित राज्‍य छत्‍तीसगढ़ में तेजी से हो रहे विकास की आड़ में मानवता विनाश की ओर अग्रसर होती जा रही है। बढ़ते औद्यौगीकरण के कारण खेती के लिए भूमि का रकबा कम से कमतर हो रहा है, नदियॉं व तालाबें बेंची जा रही है। कृषि आधारित जीवनचर्या वाले रहवासियों की पीड़ा संग्रह में कुछ इस तरह से अभिव्‍यक्ति पाती है –

का गोठियावौं 'कौसल' मैं हर भुइयॉं के दुखपीरा,
भूख मरत हे खेती खुद अउ तरिया मरे पियासा.


देश में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार और भूमण्‍डलीकरण की विकराल समस्‍या पर मुकुंद जी कहते हैं कि नाली और पुल बनाने का पैसा साहब, बाबू और नेता लोग सब मिलजुल के खा गए, भ्रष्‍टाचार ऐसा कि गायों के चारे को भी लोग खा गए -

साहेब, बाबू, नेता जुरमिल, नाली पुलिया तक ला खा डारिन,
गरूवा मन बर काहीं नइये, मनखे सब्बो चारा चरगे.


संग्रह में गज़लकार ना केवल विरोध और विद्रोह‍ को मुखर स्‍वर देता है वरन वह जन में विश्‍वास भी जगाता है। परिस्थितियों का सामना करते हुए उन्‍हें हिम्‍मत रखने का हौसला देता है। मुकुंद कौशल जी ठेठ छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों में गजब का बिम्‍ब उकेरते हुए ‘अल्‍लर’ और ‘अइलावत’ जैसे मिलते जुलते शब्‍दों के बीच का अंतर स्‍पष्‍ट करते हैं वहीं ‘कड़हा’ का सटीक प्रयोग करते हैं -

नवा बछर मा मया दया के सुघ्घर दोहा पारौ जी,
अंधियारी ला टारे खातिर मन के दीया बारौ जी.
अल्लर परगे मन के बिरवा हॉंसी तक अइलावत हे,
अइसन कड़हा दिन बादर मा हिम्मत ला झन हारौ जी.


सेनापति के ऋतु वर्णन में प्रयुक्‍त बिम्‍बों अलंकारों जैसे प्रयोग करते हुए गज़लकार नें समय को सुस्‍ताने और समय के अंगड़ाई लेने का सटीक चित्र खींचा हैं। गज़ल में सुबह को सूपा पकड़कर प्रकट होने और किरणों को फैलाने का विवरण ऐसा दर्शित होता है जैसे आंखों के सामने प्रात: सुन्‍दरी क्षितिज में उजाले को धीरे धीरे फैला रही हो -

लागिस होही गजब थकासी, समे घलो सुस्तावत हावै.
मिठलबरा मन चेत के रहिहौ, बेरा हर अंटियावत हावै.
सूपा धरे बिहिनया आ के, किरनन ला छरियावत हावै.

मुकुद जी शब्‍दों के जादूगर हैं, वे गज़लों में गांवों के विलुप्‍त होते देशज शब्‍दों और कृषि संबंधी उपकरणों को जीवंत करते हुए धान कूटने के ग्रामीण यंत्र ‘ढेंकी’ को शब्‍दों में ही समझा देते हैं। इसी की आगे की पंक्तियों में वे समाज में व्‍याप्‍त स्‍वार्थपरायणता पर तीखा प्रहार करते हुए कहते हैं कि स्‍वार्थी का पात्र भर गया फिर उसे किसी और के प्‍यास की चिंता कहॉं होती है -

कॉंड़ बॅंधाये डोरी धर के, ढेंकी मा उत्त धुर्रा,
ओरम ओरम के अपन धान ला छरिन तहॉं ले जै भगवान.
काय फिकर हे, का चिन्ता हे जनता भलुन पियास मरै,
सबले आघू अपन बगौना, भरिन तहॉं ले जै भगवान.


गरीबी, भुखमरी, महगाई और बेरोजगारी से त्रस्‍त जनता को अब वर्तमान समय का भरोसा नहीं रहा चारो ओर लूटने और नोंचने वाले बैठे हैं। विडंबना ऐसी है कि उनके घर का दीपक बुझ जाता है क्‍योंकि उनके हिस्‍से के उजाले को भी लोग हड़प ले रहे हैं। सीमित संसाधनों से जीने को मजबूर गरीबों के लिए सुख सिर्फ स्‍वप्‍न है , उनका अस्तित्‍व अब स्‍वप्‍न से ज्‍यादा भारी हो गया है -

इन्कर अंधियारी कुरिया के चिमनी घलो बुता जाथै,
उन पोगराए हें अंजोर ला ये कइसन गुन्ताड़ा हे.
पंचम म चिचियावै कौंवा गदहा रेंकै ध्इवत मा,
धरे टिमटिमी बिलई बइठगे, कोलिहा धरे नंगाड़ा हे.
फटहा अंचरा मा जोरत हें जेमन हरियर सपना ला,
उन्कर सपना मन ले कतको गरू त उन्कर हाड़ा हे.


सरकारी भ्रष्‍टाचार के चलते अब परिपाटी चल पड़ी है कि कागजों में ही नाली खुदते हैं, सड़क बनते हैं और पाट दिये जाते हैं, पैसे बांट लिये जाते हैं। कष्‍ट को झेल लेने के बाद उसका सरकारी हल भेजा जाता है। जनता ये सब देख रही है कि कैसे उन्‍हीं के हथियारों से उनका दमन किया जा रहा है-

पहिली गड्ढा खोदिस अउ पाटत हे,
बितिस हे, बरसात त खुमरी बांटत हे.
अंधरा नो हन सबला देखत हन 'कौसल',
हमरे टंगिया ले वो हमला काटत हे.


छत्‍तीसगढि़या लोगों के मूल स्‍वभाव को व्‍यक्‍त करते हुए कौशल जी बहुत सधा शब्‍दबाण छोड़ते हैं, सीधा मनुष्‍य अपने सुख और दुख का वर्णन खोल कर सहज रूप से बता देता हैं जबकि मक्‍खन चुपड़ी बात करने वाले बोलते भले मीठे हैं किन्‍तु झूठे होते हैं -

सिधवा मनखे सुख अउ दुख ला, फरिया के गोठिया देथे,
लेवना चुपरे कस गोठियावै, तेहर मिठलबरा होथे.

अंधाधुंध पश्चिमी अनुकरण और फैशन के पीछे भागते समाज पर गज़लकार की चिंता देखिये कि मनुष्‍य कपड़े दर कपड़े उतार रहा है, लक्षण तो ऐसे दीख रहे हैं जैसे कल समूची मानवता पशुवत हो जायेगी -

ओन्हा हेरत लोगन मन के लच्छन ला अब का कहिबे,
काल मवेसी कस हो जाहीं, मनखे तक मैं जानत हौं.
 
मुकुन्‍द जी की अपनी गज़ल के मूल भाव प्रेम में कहर बरपाते हैं। प्रेमी के हृदय से उठते भावों का वे सुन्‍दर चित्रण इस संग्रह में करते हैं। प्रेम के अंकुरण और आरंभिक चरण की आकुलता के बिम्‍ब के रूप में ‘मडि़याने’ (छोटे बच्‍चे के के घुटने के बल चलने) का प्रयोग गज़लकार के शब्‍दों के सटीक चयन को दर्शाता है। बच्‍चा जब पहली पहल घुटनों के बल चलना सीखता है तब उसकी चपलता की कल्‍पना कीजिये, ऐसा ही प्रेम –

आवत जावत देख देख के, जबले वो हांसिस तबले,
मन मा ओकर रूप अमागै दया मया मड़ियावत हे.
पल पल छिन छिन ओखरे चेहरा, आंखी म तंएरत रहिथे,
कउनो वोला कहिदौ वोहर हमला गजब सुहावत हे.


देशज शब्‍दों से सौंदर्य वर्णन करने का ढ़ग मुकुंद जी का निराला है, प्रेयसी के कमर को अरहर के झाड़ जैसे सुलभ बिम्‍ब से स्‍पष्‍ट करते हैं। लाजवंती प्रेयसी के बार बार आंचल से अपने शरीर को ढकने पर कहते हैं कि क्‍या तुमने आंचल में कोई धन छिपाया है। नारी का सौंदर्य और उसका देह धन ही तो है जिसे वह हमेश ‘लुकाए’ रखती है, यही मर्यादा है और यही मर्यादित सौंदर्य –

राहेर कस लचकत हे कनिहा, रेंगत हावस हिरनी कस,
देंह भला अइसन अलकरहा, लचक कहां ले पाए हवै.
देंह ला वोहर घेरी बेरी अंचरा ले तोपत रहिथे,
अंचरा भीतर जानो मानो चंदा सूरूज लुकाए हवै.


छत्‍तीसगढ़ में गहरे से पैठ गए नक्‍सलवाद पर भी गज़लकार की चिंता संग्रह में नजर आती है। चिंता यह कि कितने प्रयास कर लिये गए किन्‍तु नक्‍सलवाद से मुक्ति हेतु किसी का प्रयोग सफल नहीं हो पा रहा है-

बइठे बइठे सोंचे भर ले माटी भुरभर नइ होवै,
खेत म जब तक घेरी बेरी नॉंगर बक्खर चलै नहीं.
नक्सलवादी भूत नरी ला चपके हे छत्तीसगढ़ के,
कतको बइगा गुनियॉं फूंकिन, कखरो मन्तर चलै नहीं.


सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करते हुए गज़लकार विधवा की दुख पर भी प्रकाश डालते हैं -

आज ले महकत हे जेकर देंह म हरदी,
वो नवा बेवा, के घर संसार खातिर सोंच.


जुच्छा चूरी होगे जब ले एक गरीबिन मोटियारी,
कतको जिन के मन वो दिन ले, ओकर बर मइलाए हवै.


दुखियों की सेवा और जनता के लिए काम करने को प्रेरित करती गज़लें कहती हैं कि किसी दूसरों के खातिर दुख झेलो तो कोई बात बने। मुकुन्‍द जी यहां भी ठेठ छत्‍तीसगढ़ी शब्‍द ‘करो’ का उल्‍लेख करते हैं। करोना ऐसे सुख को देना है जिसके लिए देने वाले को पीड़ा हो-

डबकत आंसू ले कब्भू तो, तैहर हाथ अचो के देख,
दुनिया खातिर होम करत तैं, अपन हाथ जरो के देख.
तैं का समझस, तैं का जानस, मन के पीरा का होथे,
मोर साहीं एक्को दिन तैं अपनो जीव चुरो के देख.
जीना मरना काला कहिथे, का समझावौं तोला मैं,
कखरो खातिर तैंहर 'कौसल' जिउ ला अपन करो के देख.


दुख एवं परिस्थितियों के साथ सामजस्‍य रखते हुए भाग्‍य से परे जब मनुष्‍य अपनी ही करनी पर पछताता है तो अंतस से क्रोध उमड़ता है। क्‍योंकि उसे औरों के साथ अपने जीवन की गाड़ी भी को तो खीचनी है-

मनखेमन संग वोहर अपनो जिनगी तक ला तीरत हे,
दुब्बर पातर रिक्सावाले के हंफराई का कहिबे.
चलनी मा जब दूध दुहे त, दोस करम ला का देना,
'कौसल' ला गोहरावत तोरे अस कउवाई का कहिबे.


प्रदेश के मौसम अनुसार यहां बिना वर्षा अकाल की संभावना सदैव बनी रहती है ऐसे में किसानों के लिए बादल का गुस्‍साना बहुत बड़ा दुख है, यद्धपि दुख अंदर अंदर सालता है किन्‍तु आंखें सूखी है-

भीतर भीतर पझरै पीरा, आंखी सुक्खा नदिया हे,
जरगे जम्मो नरई खेत के, बादर हर कठुवाए हवै.


शहरों के चकाचौंध के बीच हम सदैव गांवों के दुख को भूल जाते हैं या फिर अनदेखी करते हैं। असल भारत जब गांवों में बसता है फिर गज़लकार को गांव की चिंता क्‍यूं न हो। ठेठ छत्‍तीसगढ़ी बिम्‍बों में गांव का दुख हरने का प्रयास और उनके दुख और शोषण का अंतहीन पिटारा वो खोलते हैं। ‘टोनही’ स्‍वार्थ और शोषण का ऐसा शब्‍द है जो मनुष्‍य को धीरे धीरे चूसता है-

बॉंध के बइठे हस बम्हरी मा सेंदुर चूरीपाट लिमउ,
दुख पीरा के टोनही मानो गॉंव गॅंवइ ला छोड़ दिही.
धरे कॉंसड़ा उप्पर बइठे तेखर गम ला का पाबे,
जिनगी के गाड़ा ला वोहर कोन दिसा म मोड़ दिही.


जीवन के हर पहलुओं और रंगों को छूते हुए मुकुद जी नें इस संग्रह में एक से एक गज़ल कहे हैं। उनकी गज़लों में वैदिक मंत्रों सी धार एवं प्रभाव है। वो स्‍वयं इन गज़लों को कहने के पीछे के श्रम को इन पंक्तियों में स्‍पष्‍ट करते हैं –

गजब पछीना गार गज़ल के खेत पलोए हे 'कौसल',
आवौ अब तो चेत लगा के नॉंगर जोती बाबू रे.


छत्‍तीसगढ़ी में गज़ल कहने वालों में मुकुंद कौशल जी का नाम अहम है, उन्‍होंनें छत्‍तीसगढ़ी में दो गज़ल संग्रह दिये हैं। उनकी लिखी छत्‍तीसगढ़ी गज़ल विश्‍वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल है, उनकी लेखनी का सौंदर्य और महक सर्वत्र है, चाहे कोई माने या ना माने -

बर पीपर अउ करगा कांदी, मानै चाहे झन मानै,
दुरिहा दुरिहा तक बगरे हे मोर महक मैं जानत हौं.


मुकुन्‍द जी की प्रसिद्धि कोई अचानक उबजी क्रिया नहीं है, उन्‍होंनें काव्‍य की सुदीर्ध सेवा की है। छत्‍तीसगढ़ी गीतों के वो जन गीतकार है, उनके गीत प्रदेश के हर एक व्‍यक्ति के होठों पर गुनगुनाये जाते हैं। उन्‍होंनें अपनी लेखनी को बरसों के अपनी तपस्‍या से तपाया है-

सूरूज ला परघाए खातिर ठाढ़े हे उन,
मैं सूरूज बर रात रात भर जागे हावौं.


कालजयी लोक नाट्य कारी और अन्‍य प्रसिद्ध लोक मंचों के गीतकार के रूप में समादृत मुकुंद कौशल जी का स्‍वाभाव सरल है वे छोटे बड़े सबके प्रिय हैं। गीतों और गज़लों में जितनी उनकी प्रतिष्‍ठा एवं उंचाई साहित्‍य में है उसे सामान्‍य लेखन धर्मी के लिए पाना मुश्किल है फिर भी उनकी सरलता ही तो है कि वे सबको इतना प्रेम करते हैं कि उनकी आदों को अपने जीवन से झटकने के बावजूद नहीं झटकाता बल्कि वे निरंतर वैचारिक फसल उगाते हुए प्रेम बरसाते हैं-

रेंगत रेंगत कहां अमरबे, दंउड़त मा पहंचाबे मोला.
मैं तो तोरे भीतर हावौं, कतका तैं झर्राबे मोला.
'कौशल' बिजहा हौं बिचार के, चल संगी छरियाबे मोला.


उपरोक्‍त उदाहरणों के अतिरिक्‍त बहुत सारे विषयों को छूते हुए मुकुद कौशल जी नें इस संग्रह को पढनीय एवं संग्रहणीय बनाया है। संग्रहित गज़लें शब्‍द के अनुशासन से बंधी हुई मूल अदबी अंदाज से कही गई हैं। पारंपरिक नियमानुशासन की जड़ता के साथ ही इन गज़लों में गेयता, लयबद्धता व स्‍वाभाविक गतिमयता नें इसे दमदार बनाया है। इन गज़लों में मुकुन्‍द कौशल जी नें लोक-जीवन की अनुभूति, सौंदर्य-बोध, प्रकृत्ति, और मानवीय मूल्‍यों को अभिव्‍यक्ति देते हुए लोक-जीवन के प्रतीकों और बिंबों को उकेरते हुए अत्यधिक संवेदनापूर्ण और सजीव बना दिया है। कुल मिलाकर मुकुंद जी नें इस संग्रह में अपने अनुभवों को गज़ल का रूप दिया है बकौल दुष्यन्त कुमार - ‘मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं, वो गज़ल आप को सुनाता हूं।‘

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...