विदेशों में है हिन्दी का भरपूर सम्मान : राज हीरामन


पदुमलाल पन्नालाल बख्शी सृजनपीठ भिलाई में 30 दिसम्बर को छत्तीसगढ़ राट्रभाषा प्रचार समिति की ओर से आयोजित ‘वैश्विक परिदृश्य में हिन्दी’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया था, जिसमें मुख्य वक्ता के रूप से बोलते हुए महात्मा गांधी संस्थान के प्राध्यापक एवं लेखक-पत्रकार राज हीरामन नें कहा कि पूरे विश्व में हिन्दी भाषा तेजी से फैल रही है एवं वैश्विक परिदृश्य में हिन्दी का सम्मान निरंतर बढ़ता जा रहा है. उन्होंनें बतलाया कि आज विश्व के प्रत्येक देशों के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में हिन्दी को एक भाषा के रूप में पढ़ाया जा रहा है. अमरीका, मलेशिया सहित विश्व के विभिन्न देशों में वहां की सरकारें हिन्दी में पत्र-परिपत्र निकाल रही है. उन्होंनें अपने देश मारिशस का उल्लेख करते हुए कहा कि वहां तो सरकार का आधार हिन्दी है, वहां की पहली लोकतांत्रिक सरकार से लेकर अब तक के 90 प्रतिशत मंत्री एवं सदस्य हिन्दी भाषी हैं. मारिशस के लोग भारत की संस्कृति, परम्परा एवं भाषा का आज भी पूर्ण सम्मान करते हैं. मारिशस के हिन्दी के प्रति प्रेम के कारण ही विश्व हिन्दी सचिवालय का कार्यालय मारिशस में खोला गया है एवं दो बार विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित किया जा चुका है. राज हीरामन नें आगे बताया कि मारीशस में हिन्दी भाषी लोगों की बहुतायत है. वर्षों पूर्व गिरमिटिया मजदूर के रूप में भारत से रामायण एवं हनुमान चालिसा लेकर मारिशस गए लोगों की अब की पीढ़ी अब अच्छे ओहदे पर एवं आर्थिक व सामाजिक रूप से सम्पन्न है. उनके दिलों में आज भी गांधी एवं हिन्दी की परम्परा कायम हैं.

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध कवि एवं आलोचक अशोक सिंघई नें कहा कि संपर्क भाषा से लेकर साहित्य व तकनीकि के क्षेत्र में हिन्दी की लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई है. मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए व्यंग्यकार व कवि रवि श्रीवास्तव नें कहा कि हमारी हिन्दी समृद्ध है एवं विश्व के अनेकों देशों में सम्मानित है. कार्यक्रम का आरंभ कमलेश जगनायक व सरिता मार्गिया नें स्वागत गीत गाकर किया. कामिनी निर्मल नें छत्तीसगढ़ी पारंपरिक गीत एवं एस.विजया नें कृष्ण वंदना प्रस्तुत की, चंद्रकुमार पटेल नें हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी में कविता पढ़ी. मारिशस से आये अतिथि का परिचय डॉ.सुधीर शर्मा नें दिया एवं आभार प्रदर्शन मैंनें किया.

इस कार्यक्रम में सूर्यकांत गुप्ता, अरूण कुमार निगम, ओमप्रकाश जायसवाल, सरला शर्मा, नवीन तिवारी, दुर्गा प्रसाद पारकर, दीन दयाल साहू, नीता काम्बोज, डॉ. मणिमेखला शुक्ला, वीरेन्द्र पटनायक, इन्द्रजीत दादर ‘निशाचार’, एवं माधुरी सिंह, किरण रजक, रश्मि जगत, मनीषा सिंह, माधुरी टोपले आदि साहित्यकार एवं बुद्धिजीवी उपस्थित थे.

तुरते ताही : कविता का सौंदर्य


पिछले दिनों भिलाई की बहुचर्चित कवियत्री व समाज सेविका नीता काम्बोज ‘सिरी’ के पहले कविता संग्रह का विमोचन हुआ जिसमें शामिल होने का सौभाग्यी प्राप्त हुआ. खुशी हुई कि कवियत्री का पहला कविता संग्रह प्रकाशित हो रहा है. इसके पूर्व मैं कवियत्री नीता काम्बोकज ‘सिरी’ के गीतों को कवि सम्मेलन और गोष्ठियों में सुनते रहा हूं. जहॉं उनके कुछ गीतों में व्याक्तिगत तौर पर मुझे उथली तुकबंदी एवं कविता की अकादमिक कसौटी की कमी नजर आती थी. उनका व्यक्तित्व‍ बेहद सहल है और उनमें बच्चों सी निश्छलता है. इस संग्रह के प्रकाशन के बाद मैं आशान्वित था कि कवियत्री नें अपनी कविताओं को प्रकाशन एवं मंच के अनुरूप अलग अलग छांटा होगा एवं अपनी श्रेष्ठ कविताओं को प्रकाशित करवाया होगा जिसमें उनकी कविताई का उचित मूल्यांकन हो पायेगा, क्योंकि उनमें कविता की पूरी समझ नजर आती है. इसके अतिरिक्त दूसरा तथ्य यह भी था कि यह कविता संग्रह ‘दृष्टिकोण’ डॉ.सुधीर शर्मा के वैभव प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है तो निश्चित है डॉ.सुधीर शर्मा नें कविताओं की वर्तनीगत व्याकरणिक भूलों को अकादमिक स्वरूप अवश्य प्रदान किया होगा. तीसरे तथ्य के रूप में अशोक सिंघई का भूमिका लेखन अहम रहा है क्योंकि अशोक सिंघई छत्तीसगढ़ के ऐसे कवि हैं जो पूरे भारत में हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित कवि के रूप में जाने जाते हैं, यहॉं मैं यह स्पष्ट कर दूं कि डॉ. विमल कुमार पाठक नें भी इस किताब पर अपनी लेखनी बिखेरी है किन्तु मैं व्यक्तिगत तौर पर उन्हें हिन्दी कविता के संबंध में योग्य टिप्पणीकर्ता स्वीकार नहीं करता, इस पर बातें कभी और.

विमोचन कार्यक्रम में संकलन के संबंध में आमंत्रित वक्ताओं में अशोक सिंघई, डॉ.निरूपमा शर्मा, डॉ.रमेन्द्र नाथ मिश्र, डॉ. सुधीर शर्मा, डॉ.नलिनी श्रीवास्तव नें विस्तार से अपनी समीक्षात्मक टिप्प्णियॉं दी एवं आधार वक्तव्य सरला शर्मा नें दिया. सभी नें नीता काम्बोज ‘सिरी’ की कविताओं को मुक्त‍ कंठ से सराहा. सरला शर्मा नें पूरे संग्रह में नारी अस्मिता का ध्वज फहराते नीता काम्बोज ‘सिरी’ की उस कविता का जिक्र किया जिसमें उसने पति की दूसरी पत्नी सौत पर कविता लिखी है. सरला शर्मा नें अपनी जानकारी के अनुसार इस कविता को किसी नारी के द्वारा लिखी गई अपने ढ़ंग की निराली कविता माना और कहा कि यह अकेली कविता इस संग्रह की जान है यह कविता कवियत्री को दीर्घजीवी बनायेगी. हिन्दी के वरिष्ठ कवि अशोक सिंघई नें अपने वक्तव्यव में बहुत सहज रूप से बतलाया कि अनुभवजन्य अतीत व जीवन की विसंगतिपूर्ण घटनाओं से उत्प‍न्न‍ भावों में कविता सृजित हो जाती है. उन्होंनें कविता को साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित होने में लगने वाले समय एवं कविता की श्रेष्ठता पर विस्तार से प्रकाश डाला. मैं स्पष्ट‍ कर दूं कि अशोक सिंघई यह बातें नीता काम्बोज ‘सिरी’ की कविताओं के संबंध में ही बोल रहे थे, उन्होंनें लक्षित रूप से नीता काम्बोज ‘सिरी’ को मंचीय कविता से परे साहित्य के द्वार में प्रवेश का राह बता रहे थे. नीता काम्बोज ‘सिरी’ नें अशोक सिंघई के इन गूढ़ बातों को कहॉं तक अमल में लाया यह तो उनकी दूसरी किताब में नजर आयेगी. बहरहाल इस कार्यक्रम नें सिद्ध किया कि नीता काम्बोज ‘सिरी’ को अपनी कविताओं के प्रति और भी गंभीर होने की जरूरत है.

कविता बहुत ही गंभीर विधा है इसे रचने वाले एवं पढ़ने वाले दोनों की गंभीरता से ही कविता अपने सामाजिक स्वरूप को व्यापक तौर पर व्यक्त कर पाती है, कविता का सौंदर्य तब और निखरता है. मंचीय कविता को साधना है साथ ही राजनैतिक व्यक्तित्व निखारना है तो स्थानीय मीडिया एवं स्थानीय चाटुकारों का सामंजस्य आवश्यक है. किन्तु जब हम जिसे कविता कह रहे हैं उसे साधना है तो इन सबको एक तरफ रख कर मुक्तिबोधों, पाशों, धूमिलों, नार्गाजुनों से लेकर विनोद कुमार शुक्लों, कमलेश्वरों, नरेश सक्सेनाओं, निशांतों, वर्तिका नंदाओं, आदि इत्यादि की कविताओं से भी गलबंहियां लेना पडेंगा. तभी डॉ.ओम निश्चल जैसे कविता के निर्मम आलोचकों की नजरों में उतरते हुए साहित्य जगत में स्थान मिल पायेगा. तब निश्चित है कि उनकी कविताओं को बिना नमस्कार चमत्कार के स्था‍नीय मीडिया ही नहीं राष्ट्रीय मीडिया भी तवज्जों देगी.

विमोचन कार्यक्रम में नीता आमंत्रित विशिष्‍ठ अतिथियों को दृष्टिकोण की प्रति हस्‍ताक्षर कर कर के प्रदान कर रही थी, हम इंतजार कर रहे थे कि हमें भी अब मिली कि तब पर जब प्रति नहीं मिली तब पता चला कि हमारी औकात क्‍या है. :) डॉ.सुधीर शर्मा नें कार्यक्रम में मेरे पहुचते ही मंच से मेरा स्‍वागत किया था और मेरे तथाकथित सम्‍मान में दो शब्‍दों के कसीदे भी पढ़े थे तो लगने लगा था कि विशिष्‍ठ भले ना सहीं शिष्‍ठ तो बने रहूं. (दो ठो स्‍माईली); विमोचन कार्यक्रम  के उपरांत बख्शी सृजन पीठ के द्वारा ‘दृष्टिकोण’ की एक प्रति नीलम चंद जी सांखला, दंतेवाड़ा को पहुचाने के लिए मुझे डकहार के रूप में प्रदान किया गया. यह मेरे लिए बहुत ही बड़े सौभाग्य की बात थी कि एक नजर कविताओं पर डाल सकूं किन्तु आपाधापी में मैं इस संग्रह की कविताओं को पढ़ नहीं पाया. संग्रह पढ़ने के बाद कोशिस करूंगा कि कुछ और लिखूं. अभी कवियत्री नीता काम्बोज ‘सिरी’ को इस संग्रह के लिए अनेकानेक शुभकामनायें.

तमंचा रायपुरी

तुरते ताही : कोदो दे के पढ़ई

रविशंकर विश्वविद्यालय के द्वारा अमहाविद्यालयीन छात्रों के लिए स्नातक एवं स्नातकोत्तर के परीक्षाओं के लिए परीक्षा फार्म इन दिनों महाविद्यालयों में आने वाले है. हम इसी का पता लगाने पिछले दिनों शासकीय विज्ञान महाविद्यालय दुर्ग गए वहॉं हमारे सहपाठी नरेश दीवान क्रीड़ा अधिकारी हैं वे मिल गए. आने का कारण पूछा तो हमने बतलाया कि एम.ए. का फार्म भरना है तो पता करने आए थे. उन्होंनें तपाक से कहा कि पिछले साल भी तो तुमने एम.ए.हिन्दी की परीक्षा दी थी ना और तुम्हारा परसेंट भी अच्छा आया था, तो अब फिर क्यों.

नरेश नें प्रतिवाद किया कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं, बेकार में लोग अपना समय गवांते हैं. उन्होंनें किसी स्कूल शिक्षक का उदाहरण देते हुए बताया कि वह आठ विषयों में एम.ए. किया है, किन्तु स्कूल शिक्षक ही है. उसने अपने घर के सामने नाम पट्टिका में आठ एम.ए.का उल्लेख बड़े शान से किया है. नरेश का कहने का मतलब था कि उस स्कूल शिक्षक ने किसी विशेष विषय में विशेषज्ञता हासिल नहीं की इसलिए नौकरी के क्षेत्र में उसका विकास नहीं हो पाया. नरेश नें आगे यह भी बताया कि उन आठो एम.ए. में स्कूल शिक्षक का प्राप्तांक प्रतिशत 45 पार नहीं कर पाया जिसके कारण वे आठो डिग्रियॉं उसके पदोन्नति या दूसरी नौकरी में काम नहीं आ पाए. नरेश मुझे ज्यादा महाविद्यालयीन डिग्री लेने में समय बर्बाद करने के बजाए विषय विशेषज्ञता की सलाह दे रहा था.

तुरते ताही : छत्तीसगढ़ी में एम.ए. का श्रेय

जब से रविशंकर विश्वविद्यालय में छत्तीसगढ़ी में एम.ए. पाठ्यक्रम आरंभ करने की घोषणा आम हुई है बहुत सारे छत्तीसगढ़ के खास साहित्यकार इसका श्रेय स्वयं लेने की होड़ करते नजर आ रहे है. कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ ही दुर्ग के एक युवा साहित्यकार को इस बात की खुशफहमी है कि स्वयं डॉ.दुबे नें इसका श्रेय उन्हें दे दिया है वहीं राजभाषा आयोग भी मुफ्त में इसे भुनाने का अवसर नहीं गवांना चाहता. मैं स्वयं अपने आप को इसका श्रेय देता हूं क्योंकि मैंनें भी छत्तीसगढ़ी में एम.ए. पाठ्यक्रम होना चाहिए यह बात एक बार अपने दोस्तों से की थी. जो भी हो विश्वविद्यालय नें इसे आरंभ किया यह सराहनीय पहल है. इसके लिए विश्वविद्यालय के डॉ.व्यासनारायण दुबे एवं कुलपति डॉ.शिवकुमार पाण्डेय को ही असल श्रेय जाता है.

तुरते ताही 2 : राजभाषा आयोग के मंच में डॉ.पालेश्वर शर्मा जी के उद्बोधन पर मेरी असहमति एवं प्रतिरोध


पिछले 28 नवम्बर को छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस के अवसर पर रायपुर में दो प्रमुख कार्यक्रम आयोजित हुए, एक सरकारी एवं दूसरी असरकारी. सौभाग्य से असरकारी कार्यक्रम की रिपोर्टिंग लगभग सभी संचार माध्यमों नें प्रस्तुत किया.

सरकारी कार्यक्रम छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के द्वारा संस्कृति विभाग के सभागार में आयोजित था. हम यहॉं लगभग अनामंत्रित थे किन्तु सरला शर्मा जी नें हमें इस कार्यक्रम में आने का अनुरोध किया था तो हम उनके स्नेह के कारण वहॉं पहुच गए थे. वैसे राहुल सिंह जी के रहते संस्कृति विभाग में हमारी जबरै घुसपैठ होती रही है तो हम साधिकार कार्यक्रम में सम्मिलित हो गए. कुर्सी में बैठते ही लगा कि मंचस्थ आयोग के सचिव पद्म श्री डॉ.सुरेन्द्र दुबे नें एक उड़ती नजर हम पे मारी है, निमंत्रण नहीं दिया फिर भी आ गया. छत्तीसगढ़ी भाषा के कार्यक्रमों में पद्म श्री डॉ.सुरेन्द्र दुबे की मुख मुद्रा कुछ इस तरह की होती है कि सामने जो आडियंस बैठी है वो रियाया है, और वे अभी अभी व्यक्तित्व विकास के रिफ्रेशर कोर्स से होकर आए हैं. इसलिए हम एक पल को सहम गए कि इन्होंनें देख लिया, पहचान गए कि नास्ते का डिब्बा डकारने वाला आ गया. इसी उहापोह में थे कि सचमुच में नास्ते का डिब्बा आ गया, हमने ना कही तो डिब्बा बांटने वाले नें जबरदस्ती हाथ में पकड़ा दिया. हम चाह रहे थे कि इस घटना को भी पद्म श्री देखें किन्तु बांटने वाला कुछ ऐसे खड़ा था कि डॉक्टर साहब देख नहीं पाये. बहुत देर तक डिब्बा हाथ में लिए बैठे रहे फिर ज्यादा सोंचने के बजाए सभी आमंत्रित अतिथियों की भांति रसमलाई का लुफ्त उठाने लगे.

यह कार्यक्रम चुनाव आचार संहिता की अवधि में हो रहा था इस कारण आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य कार्यक्रम में उपस्थित नहीं थे. कार्यक्रम में जब हम पहुंचे थे तब डॉ.विनय कुमार पाठक जी का उद्बोधन चल रहा था जो राजभाषा आयोग के शब्दकोश एवं प्रयोजनामूलक छत्तीसगढ़ी के विकास में भावी योजनाओं के संबंध में था. इसके बाद कार्यक्रम का संचालन डॉ.सुधीर शर्मा नें आरंभ किया और रविशंकर विश्वविद्यालय के कुलपति शिवकुमार पाण्डेय जी नें अपना उद्बोधन दिया.

इसके बाद प्रमुख वक्ता के रूप में पालेश्वर शर्मा जी नें अपना उद्बोधन आरंभ किया. पालेश्वर शर्मा जी छत्तीसगढ़ी भाषा के वरिष्ठ विद्वान हैं, छत्तीसगढ़ की संस्कृति, साहित्य और परम्परा के वे जीते जागते महा कोश हैं. हम उनसे छत्तीसगढ़ के संबंध में सदैव नई जानकारी प्राप्त करते रहे हैं किन्तु राजभाषा आयोग के इस कार्यक्रम में पालेश्वर शर्मा जी के लम्बे एवं उबाउ उद्बोधन में मोती छांटने की सी स्थिति रही. मैं हतप्रभ था कि यह पालेश्वर शर्मा जी पर वय का असर था या तात्कालिक मन: स्थिति, कुछ समझ में नहीं आया. संचालक को उनके उद्बोधन के बीच में ही पर्ची देना पड़ा पर पालेश्वर जी अपने रव में बोलते ही रहे. मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं किन्तु उन्होंनें जो 28 नवम्बर को छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस को छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के मंच से अपना वक्तव्य दिया उसमें से अधिकतम बातें उस मंच एवं स्वयं पालेश्वर जी की गरिमा के अनुकूल नहीं थी, मेरी असहमति एवं प्रतिरोध दर्ज किया जाए.

तमंचा रायपुरी

तुरते ताही 1 : नये छत्तीसगढ़ी वेब ठिकानों का स्वागत

इस बात को स्वीकारने में मुझे कोई गुरेज नहीं कि लोक भाषा छत्तीसगढ़ी के वेब पोर्टल गुरतुर गोठ डॉट कॉम के संपादन से मुझे बहुत कम समय में लोक साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठा मिली. यह प्रतिष्ठा मुझे मेरे लगातार संवेदनशील और लीक से हटकर छत्तीसगढ़ी लेखन के बावजूद भी नहीं प्राप्त हो पाती जो मुझे इस पोर्टल के संपादन से प्राप्त हुई. हालांकि इसके पीछे मेरी जुनूनी लगन और अपनी भाषा के प्रति प्रेम का जजबा साथ रहा. मुझे इसे निरंतर रखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी, वेब इथिक व कानूनी पेंचों को ध्यान में रखते हुए वेब आरकाईव में पड़े एवं पीडीएफ फारमेट की रचनाओं को नया वेब रूप प्रदान करना पड़ा. सैकड़ों पेजों की रचनाओं को परिवार के तानों के बावजूद टाईप करना पड़ा. जो भी हो मेरी तपस्या का फल मुझे मेरे पोर्टल के हजारों पाठकों के रूप में मिला.

मेरी नेट सक्रियता के शुरूआती समय से ही इच्छा रही कि छत्तीसगढ़ी भाषा और दूसरी लोक भाषाओं के वेब साईट भी नेट में अधिकाधिक संख्या में उपस्थित हो और लोक भाषा के साहित्य भी नेट में अपना स्थान बनायें. स्वप्न धीरे धीरे आकार लेती गई, इसी कड़ी में पिछले कुछ दिनों से लगातार उत्साहजनक व स्वागतेय सूचना प्राप्त हो रहा है कि छत्तीसगढ़ी में कुछ और वेब साईट आने वाले हैं. हम इंतजार कर रहे हैं किन्तु अभी तक कोई ठोस कार्य सामने नहीं आ पा रहा है. कुछ तकनीकि सक्षम साथियों नें अपने ब्लॉग तो बना लिये हैं किन्तु वे पाठकों के कम आवक के कारण उसे अपडेट नहीं कर पा रहे हैं. यह समस्या प्रत्येक नये वेब साईट में आम होता है, हम नेट में डाटा इसलिए नहीं डालते कि उसको तात्कालिक प्रतिसाद मिलेगा किन्तु हम उसे इसलिए डालते हैं कि भविष्य में उससे लोग लाभान्वित होंगें. नये आने वाले सभी वेबसाईटों के माडरेटरों से मेरा अनुरोध है कि उसे वे निरंतर रखें, निश्चित ही यदि हमारे साईट में लोगों के काम की चीज होगी तो वे उसे खोजते हुए आयेंगें ही. इस संबंध में अहम बात यह ध्यान रखें कि इसके लिए किसी डोमेन और होस्टिंग की आवश्यकता नहीं. मुफ्त के ब्लॉग से भी आप भाषा और साहित्य की सेवा कर स​कते हैं, 500 रू. के डोमेन से ब्लॉग मैपिंग कर स्वयं के वेब साईट का भ्रम भी पाल सकते हैं या डोमेन व न्यूनतम 1200 से 7000 रू. के सालाना होस्टिंग के खर्च पर स्वतंत्र वेब पोर्टल संचालित कर सकते हैं.

इस संबंध में यह बात भी ध्यान रखें कि रेहड़ी चलाने वाले के बच्चे पहले शौक में रेहड़ी पेलते हैं, उत्साह में मस्ती करते हैं और जब यही रेहड़ी जब बड़े होने पर दायित्व बन जाती है तो उन्हें उस रेहड़ी के ठेलने में लगने वाले असल बल का भान होता है. किसी वेब साईट या ब्लॉग को आरंभ करना, शुरूआती दौर में उसे लगातार अपडेट करना, टिप्पणियों व क्लिकों से उत्साहित होना इसके बाद में उसे निरंतर रखना भी रेहड़ी चलाने जैसा दायित्व बोध है. नये वेब साईट के माडरेटरों के इस बोध का स्वागत है.
तमंचा रायपुरी
चित्र गो इंडिया डॉट काम से साभार

छत्तीसगढ़ी ब्लॉग की दुनिया

छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों के सफर की शुरूआत के कई दावे हो सकते हैं लेकिन साहित्यकार जय प्रकाश मानस ने जब छत्तीसगढ़ी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘लोकाक्षर’ को आनलाईन किया तब लोगों को पहली बार अपनी मातृभाषा के साहित्य को, आनलाईन पाकर अत्यंत प्रसन्नता हुई. इसी समय में मानस ने छत्तीसगढ़ी के पहली उपन्यास और शिवशंकर शुक्ल जी की कृति दियना के अँजोर व जे.आर.सोनी की कृति चन्द्रकलामोंगरा के फूल (छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह) आदि को ब्लॉग प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया और छत्तीसगढ़ी साहित्य एक क्लिक में जन सुलभ हो गया. इसी तरह साहित्यकार परदेसी राम वर्मा का उपन्यास आवा भी ब्लॉग के माध्यम से नेट के पाठकों तक पहुंचा.

इस समय तक हिन्दी ब्लॉगों में छुटपुट छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग जारी था. गूगल का सोसल नेटवर्किंग साईट ‘आरकुट’ तब अपने चरम पर था. अमरीका में शोध कर रहे धमतरी के युवा युवराज गजपाल ने इस सशक्त माध्यम में छत्तीसगढ़ी ग्रुप बनाकर छत्तीसगढ़ी रचनाओं को सहेजा. युवराज गजपाल ने सीजी नेट में भी कई लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी गानों का संग्रह किया जो याहू के सीजी नेट समूह के द्वारा लाखों लोगों तक पहुचा और बहुत सराहा गया. यह समय इंटरनेट में छत्तीसगढ़ी भाषा का बोलबाला वाला समय रहा, जिसका श्रेय युवराज गजपाल को जाता है.

आरकुट के अवसान एवं फेसबुक के उत्स के बीच के समय में हिन्दी ब्लॉगों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई. हिन्दी ब्लॉग एग्रीगेटर नारदचिट्ठाजगत, ब्‍लॉगवाणी आदि के सहारे ब्लॉगों के फीड धड़ा धड़ लोगों तक पहुचने लगे और पाठकों की संख्या में भी वृद्धि हुई. इस आलेख के लेखक ने पहले अपने ब्लॉग आरंभ में एवं फिर संजीत त्रिपाठी ने अपने ब्लॉग आवारा बंजारा में कुछ छत्तीसगढ़ी पोस्ट लिखे, इन पोस्टों को काफी सराहा गया. इस समय तक हिन्दी ब्लॉग जगत में छत्तीसगढ़ का दबदबा ब्लॉगरगढ़ के रूप में स्थापित हो चुका था.

‘लोकाक्षर’ का आनलाईन प्रकाशन एक वर्ष के बाद बंद हो गया था और इंटरनेट में छत्तीसगढ़ी रचनाओं की निरंतरता कायम नहीं रह पाई थी. इसी समय में नियमित रूप से छत्तीसगढ़ी रचनाओं को प्रस्तुत करने की आकांक्षा इस आलेख के लेखक के मन में जागी. साथियों की मंशा थी कि छत्तीसगगढ़ी रचनायें इंटरनेट में नियमित उपलब्ध हो और 2007 में गुरतुर गोठ का स्वरूप तय हुआ.

अक्टूबर 2008 से गुरतुर गोठ में नियमित रूप से प्रतिष्ठित रचनाकारों की छत्ती़सगढ़ी रचनांए प्रकाशित होने लगी. देखते ही देखते इस ब्लॉग के छत्तीसगढ़िया मूल के विदेशी पाठकों की संख्या में वृद्धि होती गई, उनके नियमित मेल आने लगे. नियमित रूप से छत्तीसगढ़ी के विभिन्न रचनाकारों को प्रकाशित करने वाला यह पहला ब्लॉग था.

शुरूआती दौर में अन्य छत्तीसगढ़िया ब्लॉगरों ने सामूहिक ब्लॉग के रूप में रचनाएं डालने में सहयोग किया किन्तु दो चार पोस्टों के बाद ही इस क्रम का अंत हो गया, रचनाओं को टाईप करने में सभी कतराते रहे. छत्तीसगढ़ी के प्रति पाठकों की रूचि और इसे निरंतर रखने के अनुरोध के कारण इस आलेख का लेखक स्वयं इसके लिए प्रतिबद्ध हो गया और इसे आज तक अनवरत रखा हुआ है.

इस बीच कुछ और छत्तीसगढ़ी ब्लॉग बनाए गए जिसमें रचनांए आई किन्तु नियमित नहीं रहीं. कनाडा से डा.युवराज गजपाल ने पिरोहिल एवं ललित शर्मा ने अपने स्वयं की छत्तीसगढ़ी रचनाओं के लिए ‘अड़हा के गोठ’ नाम से ब्लॉग बनाया किन्तु इसमें रचनायें नियमित नहीं रहीं. हालांकि ललित शर्मा अपने हिन्दी ब्लॉगों में छत्तीसगढ़ पर केन्द्रित विषयों में प्रचुर मात्रा में निरंतर लिख रहे हैं.

गुण्डरदेही के संतोष चंद्राकर ने छत्तीसगढ़ी भाषा में दो ब्लॉग बनाये और जब छत्तीसगढ़ी में विभिन्न रचनाकारों की छत्तीसगढ़ी रचनायें प्रकाशित करना आरंभ किया तो सभी की आशा जाग उठी कि वृहद छत्तीसगढ़ी शब्दकोश के लेखक चंद्रकुमार चंद्राकर जी की रचनायें, शब्दकोश व मुहावरे इसमें पढ़ने को मिलेंगी एवं इंटरनेट में इनका दस्तावेजीकरण भी होगा, ये जनसुलभ हो पायेंगे किन्तु संतोष चंद्राकर इसे अपनी व्यस्तता के कारण निरंतर नहीं रख पाये.

गुरतुर गोठ के संपर्क में आने के बाद भाठापारा के मथुरा प्रसाद वर्मा ने मोर छत्तीसगढ़ी गीत, रायपुर के अनुभव शर्मा ने घुरूवा ग्राम बंधी, दाढ़ी के ईश्वर कुमार साहू मया के गोठ आदि ने भी अपने छत्तीसगढ़ी ब्लॉग बनाये, जिसमें अपनी रचनाओं को प्रकाशित किया. हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के मिश्रित ब्लॉग में बिलासपुर के डॉ. सोमनाथ यदु का ब्लॉग सुहई, जांजगीर के राजेश सिंह क्षत्री का ब्लॉग मुस्कान आदि में रचनायें गाहे बगाहे आती रही. भोपाल से रविशंकर श्रीवास्तव जी ने अपने प्रसिद्ध ब्लॉग रचनाकार में भी छत्तीसगढ़ी की रचनायें एवं संपूर्ण किताब अपलोड किया है.

छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों में जगदलपुर के राजेश चंद्राकर का ब्लॉग सीजीगीत संगी का अवदान उल्लेखनीय है. ऐसे समय में जब इंटरनेट में सक्रिय लोगों ने छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों को भरपूर उपेक्षित किया, उस समय में सीजी गीत संगी ने अभिनव प्रयोग करते हुए छत्तीसगढ़ी गीतों को लिपिबद्ध रूप में प्रस्तुत करते हुए उनके ऑडियो भी प्रस्तुत किए. सीजीगीत संगी के माडरेटर ने अपने तकनीकि ज्ञान का भरपूर उपयोग करते हुए इस ब्लॉग को सीओ तकनीक में सक्षम बनाया. जिसके कारण इसमें सर्च इंजन से भी पाठक आने लगे और आज भी यह छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लॉग बना हुआ है.

निरंतरता के क्रम में कोदूराम दलित की रचनाओं को इंटरनेट प्लेटफार्म देने के लिए उनके पुत्र अरूण कुमार निगम ने सियानी गोठ के नाम से ब्लॉग आरंभ किया उसे उन्होंने नियमित रखा है. छत्तीसगढ़ी के स्थापित युवा साहित्यकार जयंत साहू ने चारी चुगली के नाम से अपना छत्तीसगढ़ी ब्लॉग बनाया है और वे इसमें अंतरालों में अपनी रचनायें प्रकाशित करते रहते हैं.

इन सबके बावजूद उंगलियों में गिने जा सकने वाले इन छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों को आज प्रोत्साहन व पहचान की आवश्यकता है. इंटरनेट में भोजपुरी, अवधी एवं मैथिली ब्लॉगों में जिस तरह से उनके भाषा प्रेमियों का प्रेम व सम्मान झलकता है, ऐसा छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों में नहीं है. उम्मीद की जानी चाहिये कि इनकी संख्या में वृद्धि होगी और अंतरजाल में छत्तीसगढ़ी भाषा भी समृद्ध होगी.

(संभव है, कुछ ब्लॉगों का नाम उल्लेख नहीं हो पाया हो, पाठक इस बारे में अपनी राय हमें देंगे)

सिर्फ एक गांव में गाई जाती है छत्‍तीसगढ़ी में महामाई की आरती ??

छत्तीसगढ़ के प्राय: हर गांव में देवी शक्ति के प्रतीक के रूप में महामाई के लिए एक स्‍थल निश्चित होता है. जहां प्रत्येक नवरात में ज्योति जलाई जाती है एवं जेंवारा बोया जाता है. सभी गांवों में नवरात्रि के समय संध्या आरती होती है. ज्यादातर गांवों में यह आरती हिन्दी की प्रचलित देवी आरती होती है या कहीं कहीं स्थानीय देवी के लिए बनाई गई आरती गाई जाती है. मेरी जानकारी के अनुसार एक गांव को छोड़ कर कहीं अन्‍य मैदानी छत्‍तीसगढ़ के गांव में छत्‍तीसगढ़ी भाषा में महामाई की आरती नहीं गाई जाती. जिस गांव में छत्‍तीसगढ़ी में महामाई की आरती गाई जाती है वह गांव है बेमेतरा जिला के बेरला तहसील के शिवनाथ के किनारे बसा गांव खम्‍हरिया जो खारून और शिवनाथ संगम स्‍थल सोमनाथ के पास स्थित है.

इसके दस्‍तावेजी साक्ष्‍य एवं स्‍थापना के लिए यद्यपि मैं योग्‍य नहीं हूं किन्‍तु वयोवृद्ध निवासियों से चर्चा से यह सिद्ध होता है कि यह परम्‍परा बहुत पुरानी है. वाचिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी गाए जा रहे इस महामाई की आरती का जो ज्ञात प्रवाह है उसके अनुसार लगभग 500 वर्ष से यह इसी तरह से गाई जा रही है. यह आरती कब से गाई जा रही है पूछने पर गांव वाले बतलाते हैं कि लगभग चार पांच सौ साल पहले से यानी चार पांच पीढ़ी से लगातार यह परम्‍परा चली आ रही हो, इसके अनुसार इसे पांच सौ वर्ष से निरंतर माना जा सकता है यह भी हो सकता है कि यह उससे भी पहले चली आ रही गायन परम्परा हो.

खम्हरिया में गाई जाने वाली आरती में यद्धपि बीच के बोल आरती से नहीं लगते क्योंकि इसमें देवी के गुणगान का बखान नहीं दिखता और ना ही प्रार्थना के भाव प्रत्यक्षत: नजर आते सिवा बार बार के टेक ‘महामाई ले लो आरती हो माय’ को ठोड़ दें तो. किन्‍तु पारंपरिकता एवं देसज भाव इस आरती के महत्व को प्रतिपादित करती है. इस आरती में निहित शब्दों और उनके अर्थों में तारतम्यता भी नहीं नजर आती. इस गांव में गाई जाने वाली आरती में पांच पद हैं जो सभी एक दूसरे से अलग अलग प्रतीत होते हैं.  खम्‍हरिया गांव में गाई जाने वाली छत्‍तीसगढ़ी महामाई की आरती इस प्रकार है -

महामाई ले लो आरती हो माय

गढ़ हिंगलाज में गड़े हिंडोला
लख आये लख जाए
लख आये लख जाए
माता लख आए लख जाए
एक नइ आवय लाल लगुंरवा
जियरा के परान अधार
महामाई ले लो आरती हो माय
महामाई ले लो आरती हो माय

गढ़ हिंगलाज म उतरे बराईन
आस पास नरियर के बारी
झोफ्फा झोफ्फा फरे सुपारी
दाख दरूहन केकती केंवरा
मोगरा के गजब सुवास
महामाई ले लो आरती हो माय

बाजत आवय बांसुरी अउ
उड़त आवय घूर
माता उड़त आवय घूर
नाचत आवय नन्द कन्हैंया
सुरही कमल कर फूल
महामाई ले लो आरती हो माय

डहक डहक तोर डमरू बाजे
हाथ धरे तिरसूल बिराजे
रावन मारे असुर संहारे
दस जोड़ी मुंदरी पदुम बिराजे
महामाई ले लो आरती हो माय

अन म जेठी कोदई अउ
धन म जेठी गाय
माता धन म जेठी गाय
ओढ़ना म जेठी कारी कमरिया
ना धोबियन घर जाए
माता ना धोबियन घर जाए
महामाई ले लो आरती हो माय

आईये इस बिरले आरती को विश्‍लेषित करते हैं, आरती के पहले पद में हिंगलाज गढ़ में माता के पालने में झूलने और माता के दर्शन हेतु लाखों लोगों के आने जाने का उल्लेख आता है. लोक लंगुरे के नहीं आने से चिंतित है क्योंकि लंगूर माता के जियरा के प्राण का आधार है यानी प्रिय है. दूसरे पद में गढ़ हिंगलाज की सुन्दरता का वर्णन मिलता है जिसमें नारियल के बाग, सुपाड़ी के पेंड़, दाख, दारू, केकती, केंवड़ा के फूल के साथ ही मोंगरा के फूलों के सुवास का वर्णन है ऐसे स्थान पर बराईन के उतरने का उल्लेख लोक करता है. पारंपरिक छत्तीसगढ़ी जस गीतों में बराईन पान बेंचने वाली का उल्लेख कई बार आता है. जिसके आधार पर यह प्रतीत होता है कि बराईन एक महिला तांत्रिक है किन्तु देवी उपासक है उसकी झड़प यदा कदा लंगुरे से, जो 21 बहिनी के भईया लंगुरवा है, से होते रही है. यह महिला तांत्रिक उस गढ़ हिंगलाज में उतरती है. तीसरे पद में लोक कृष्ण को पद में पिरोता है कि वह बांसुरी बजाते हुए नाचते हुए जब आता है तो उसके नाचने से धूल उड़ती है और वह हाथ में कमल का फूल लिए आता है. चौंथे पद में संगीत का चढ़ाव तेज हो जाता है और गायन में भी तेजी आ जाती है इसमें देवी के रूप का वर्णन आता है डहक डहक डमरू बज रहा है, तुम्हारे हाथ में त्रिशूल है, तुमने रावण को मारा है और असुरों का संहार किया है. तुम्हारी अंगुलियों में दस जोड़ी अंगूठी है. तुम कमल के आसन में विराजमान हो. पांचवे पद में लोक शायद माता को अर्पित करने योग्य वस्तु का वर्णन करते हुए संदेश देना चाहता है वह कहता है कि अन्न में मुख्य कोदो है जो छत्तीसगढ़ के बहुसंख्यक गरीब जनता का अन्न है. धन में वह गाय को प्रमुख स्थान देता है, कपड़े मे प्रमुख स्थान वह भेड़ों के रोंए से बने काले कम्बल को देता है क्योंकि वह धोबी के घर कभी धुलने के लिए नहीं जाता यानी इसे धोने की आवश्यकता ही नहीं.

इन पांचों पदों को जोड़ने का प्रयास मैं बचपन से करते रहा हूं, पहले पद में हिंगलाज माता का वर्णन दूसरे में गढ़ हिंगलाज का वर्णन, तीसरे पद में कृष्ण का वर्णन, चौंथे में माता का स्वरूप वर्णन और अंतिम में चढ़ावा हेतु वस्तु का वर्णन आता है जिसमें कृपा के पद को हटा दें तो तारतम्यता बनती नजर आती है, यह भी हो सकता है कि इस आरती में पहले और पर रहे होंगें जो हटा दिए गए होंगें या भुला दिए गए हों.

गांव वालों का कहना है कि ये आरती रतनपुर के महामाई की आरती है, उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण जीवन यापन हेतु पहले रतनपुर राज्य आए फिर अन्य गढ़ों में फैलते गए, गढ़पतियों के द्वारा पहले से बसे गांव ब्राह्मणों को दान में दिए गए तो कुछ ब्राह्मण उपयुक्त स्थल में अपना स्वयं का गांव बसा लिया. इसी क्रम में रांका राज के अधीन इस गांव को बसाने वाले कुछ ब्राह्मण अपने सेवकों के साथ यहां आये और शिवनाथ नदी के तट का उपयुक्त उपजाउ जमीन को चुनकर अपना डेरा डाल लिया. तब रतनपुर की देवी महामाया ही उनके स्मृति में थी उन्होनें ही नदी के किनारे देवी का स्थापना किया और तब से यही आरती गाई जा रही है. बाद के दिनों में शिवरीनारायण होते हुए उड़ीसा के मांझी लोग नदी के तट पर आकर बस गए धीरे धीरे गांव स्वरूप लेने लगा और आज लगभग 1500 की जनसंख्या वाला यह गांव, बेमेतरा जिले का आखरी गांव है.

संजीव तिवारी

वर्धा में आभासी मित्रों से साक्षात्कार


महात्मा गॉंधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में विगत दिनों आयोजित हिन्दी ब्लॉग संबंधी कार्यशाला से संबंधित अनुभव के पोस्ट प्रतिभागियों के ब्लॉगों में प्रकाशित हो रहे हैं। सभी की अपनी अपनी दृष्टि और अभिव्‍यक्ति का अपना अपना अलग अंदाज होता है, धुरंधर लिख्खाड़ों में डॉ.अरविन्द मिश्र एवं अनूप शुक्ल नें सेमीनार को समग्र रूप से प्रस्तुत कर दिया है अन्य पोस्टों में भी लगभग सभी पहलुओं को प्रस्तुत किया जा चुका है, उन्हीं वाकयों को बार बार लिखने का कोई औचित्य नहीं है, इस कार्यक्रम में जिन ब्‍लॉगर साथियों से हमारी मुलाकात हुई उनके संबंध में कुछ कलम घसीटी मेरे नोट बुक में पोस्‍ट करने से बचे थे जिसे प्रस्‍तुत कर रहा हूँ।

सबसे पहले मैं आप लोगों को बताता चलूं कि, मेरे इस कार्यशाला में जाने के पीछे तीन उद्देश्य थे। पहला, मैं महात्मा गॉंधी अंतरर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को देखना एवं वहॉं के साहित्‍य सृजन के लिए उर्वर वातावरण को महसूस करना चाहता था। दूसरा, इस कार्यशाला में उपस्थित होकर, आभासी मित्रों से मिलना चाहता था क्योंकि विश्वविद्यालय के पिछले ब्लॉगर सम्मेलनों में मैं चाहकर भी उपस्थित नहीं हो पाया था। तीसरा, मेरे छत्तीसगढ़ी के आनलाईन साहित्य संग्रह पोर्टल गुरतुर गोठ जैसे अन्य देशज भाषा के वेब पोर्टलों की आवश्यकता, उसकी उपयोगिता एवं देशज भाषा के साहित्य के अधिकाधिक पन्नों को आनलाईन करने हेतु ब्लॉगरों, छात्रों व विश्वविद्यालयों का आहवान करना चाहता था। इसमें से पहले दोनों उद्देश्यों की पूर्ति भलीभांति हुई, तीसरे के लिए चर्चा का समय नहीं मिल पाया। इस कार्यक्रम में हम अपने आभासी मित्रों से रूबरू मिले, जिन आभासी ब्लॉगरों से मुलाकात हुई उनके संबंध में कुछ बातें आप सबसे साझा करता हूँ।

इस कार्यक्रम के दूसरे दिन सेलेब्रिटी लेखिका, विचारक, ब्लॉगर मनीषा पांडे के दर्शन हुए। हिन्दी में 'बेदखल की डायरी' ब्लॉग लिख रहीं मनीषा के ब्लॉग पोस्टों को हम हिन्दी ब्लॉग के आरंभिक दिनों से पढ़ते रहे हैं। स्पष्टवादिता से लिखी गई इनके पोस्टों में झलकते इनके व्यक्तित्व से हम प्रभावित थे। मानस नें इनके ब्लॉग में लगे मासूम फोटो से इनके बिंदास लेखन का पहचान सेट कर लिया था। बाद के वर्षों में फेसबुक मे लम्बे लम्बे वैचारिक पोस्टों और उस पर अविराम बहसों नें मनीषा पाण्डेय की दबंग छवि को आत्मसाध किया। इनके ब्लॉग पोस्टों एवं फेसबुक वालों पर हमने कभी कोई टिप्पणी की या नहीं याद नहीं, बस बहसों को पढ़ते रहे। वैसे भी तीखी वैचारिक बहसों में उथली मानसिकता के टिप्पणियों का कोई औचित्य भी नहीं था  इन कुछ वर्षों में इन्होंनें बहुतेरे मुद्दों पर बात की। खासकर स्त्री स्वतंत्रता पर इनकी बहसों नें स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की परिभाषा को बहुत विस्तार दिया जो नवउदार मासिकता के युवाओं एवं तकनीकि दक्ष परम्पराओं के पैरोकार, भूतपूर्व युवाओं के बीच विमर्श का महत्वपूर्ण दस्तावेज बनकर बार बार फेसबुक के नोटीफिकेशन में हाईलाईट हुआ। इन बहसों के अतिरिक्त इन्होंनें हमेशा अपने वाल पोस्टों में अनेक मान्य परम्पराओं पर चोट करते हुए अपनी बुलंद छवि एवं व्यक्तित्व को सार्वजनिक किया। इसमें इनकी, कथनी एवं करनी के दोगलेपन से दूर स्पष्टवादी छवि विकसित हुई। हम दूसरे दिन कार्यक्रम की समाप्ति के बाद वापस आ गए इस कारण व्यक्तिगत रूप से मनीषा पांडे से ज्यादा समय तक नहीं मिल सके। उपर लिखी गई पंक्तियॉं उनके संबंध में आभासी जगत के अनुभ से प्राप्त जानकारी मानी जावे।

यहॉं हिन्दी ब्लॉग के चर्चित व्यक्तित्व डॉ.अरविन्द मिश्र से भी मिलना हुआ। डॉक्टर साहब के ब्लॉग पोस्ट व इनकी धारदार टिप्पणियों से हमारे मन में इनकी विद्वत छवि पूर्व से ही अंकित थी। हमारे एक पोस्ट के संबंध में चर्चा करने के लिए इन्होंनें हमें फोन भी किया और इसके बाद संवाद स्थापित रहा। इनके बीच संवादों की कड़ी में प्रो.अली सैयद भी रहे जिनके कारण ही डाक्टर मिश्र से आत्मियता स्थापित हुई। इनसे वर्धा में मिलना मेरे लिए सुखकर था, मैं इनके समीप रहकर इनका स्नेह आर्शिवाद लेना चाहता था जो मुझे यहॉं प्राप्त हुआ। वर्धा में सभी नें इनके मिलनसार छवि का साक्षात्कार किया होगा, डॉ.अरविन्द मिश्र से कुलपति की आत्मीयता को देखकर खुशी हुई।

इनके साथ ही ब्लॉग जगत में मौज लेने वाले फुरसतिया ब्लॉगर अनूप शुक्ल से भी मुलाकात हुई। नारद के जमाने में हिन्दी ब्लॉगों में हमारी रूचि बढ़ाने वालों में से अनूप शुक्ल मुख्य रहे हैं। तब छत्तीसगढ़ में संजीत त्रिपाठी और स्वयं मैं ब्लॉग में लगभग नियमित थे और जय प्रकाश मानस जी अंतरालों में लिखते थे। इनकी टिप्पणियों से हमारा उत्साह वर्धन होता था और हम उत्साह में पोस्ट ठेलते थे। इसी बीच नारद विवाद के समय हमने आत्ममुग्धतावश एक पोस्ट लिख दी थी। उस पोस्ट पर उस समय के कम चिट्ठाकारों के बावजूद तीखी झड़पें हुई थी और उसके तत्काल बाद हमारे ब्लॉग को किसी नें फ्लैग कर दिया था। हम इस संकट से उबरने की विधि नहीं जानते थे, बड़ी मुश्किल से हमें अपने ब्लॉग पर पुन: लिखने का अधिकार प्राप्त हुआ। इस समय मुझे लगता था कि मेरे ब्लॉग में गड़बड़ संभवत: अनूप शुक्ल नें तकनीकि विशेषज्ञ जितेन्द्र चौधरी से करवाया है। संजीत त्रिपाठी के द्वारा स्पष्टीकरण देनें व परिस्थितियों को समझानें के बाद मन नें अनूप शुक्ल को क्लीन चिट दिया। इसके बाद के वर्षों में मठाधीशी विवादों में अनूप शुक्ल को मौज लेते हुए देखना अच्छा लगता था। वर्धा में इनसे मिलकर अच्छा लगा दोनों दिन इनका स्नेह मुझे मिला, वापसी में बड़ी गाड़ी में हम नागपुर तक साथ आए।

ब्लॉग की दुनिया के धुरंधर खिलाड़ी अविनाश वाचस्पति से मुलाकात करने की हमारी इच्छा बहुत दिनों से थी। दिल्ली के परिकल्पना सम्मान समारोह में मैं इनसे मिल नहीं पाया था। इनके सहज सरल शब्दों से लिखे गए ब्लॉग पोस्टों से आप सब परिचित ही हैं। हिन्दी ब्लॉगिंग के संबंध में व व्यंग्य पर इन्होंनें किताबें भी लिखी है और इनके व्यंग्य आलेख लगातार पत्र पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। जहॉं तक मैंनें इन्हें समझा ये भौतिक व आभासी दोनों प्रकार के सोशल नेटवर्किंग के माहिर खिलाड़ी हैं। वर्धा में हसमुख, मिलनसार सभीपर आत्मीयता बरसाते अन्ना उर्फ मुन्ना भाई नें बिना स्वयं के मुख में मुस्कुराहट बिखेरे अपनी बातों से सबको हर पल मुस्कुरानें को विवश किया। मेरे रूम पार्टनर डॉ.अशोक मिश्र से मैं पहली बार मिला था, इनके ब्लॉग से भी मैं परिचित नहीं था किन्तु मुझे इन्होंनें सहृदयता से कमरे में स्थान दिया और लगने ही नहीं दिया कि हम अपरिचित हैं। बातचीत में इनके ब्लॉग शोध, पत्रकारिता व अकादमिक अनुभवों से साक्षात्कार हुआ। सहज सरल व्यक्तित्व के धनी प्रियरंजन जी मुझे सचमुच में प्रिय लगे।वापसी में हम नागपुर तक इनके साथ रहे। नागपुर तक साथ चलने वालों में हर्षवर्धन त्रिपाठी भी थे, शुरूआती ब्लॉगिंग के समय से हर्षवर्धन जी का ब्लॉग पढ़ते रहा हूं और कई वर्षों से मैं इनके ब्लॉग का ई मेल सब्साक्राईबर हूं लगभग प्रत्येक दिन इनका ब्लॉग अपडेट मेल से प्राप्त होता है। सामयिक विषयों और समाचारों को विश्लेषित करने का इंनका अंदाज मुझे पसंद है। पहले दिन वर्धा पहुचते ही हर्षवर्धन जी नें ही मेरा गर्मजोशी से स्वागत किया और पहले सत्र को संचालित करते हुए एक सफल टीवी डिबैट संचालक के रूप में अपनी छवि प्रस्तुत की, इनके बात करने का अंदाज मुझे बहुत पसंद आया ।

इनके अतिरिक्त इस कार्यक्रम में जिन ब्लॉग मित्रों नें स्मृति में छाप छोड़ा उनमें मस्त मौला संतोष त्रिवेदी, कार्यक्रमों की व्यस्तता के बीच भी मुस्कुराते रहने वाले कर्तव्यपरायण सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, इनके साथ परछाई जैसी आयोजन में हाथ बटाती श्रीमती रचना त्रिपाठी, मुस्कुराहट बिखेरते रहेने वाले डॉ.घापसे, साहित्य रसी व सफल प्रकाशक शैलेष भारतवासी, देसज ज्ञान के धनी प्रखर पत्रकार संजीव सिन्हा, गंभीर कविताओं की पक्षधर संध्या शर्मा, खालिस देसी पत्रकार बमशंकर टुन गणेश राकेश सिंह, वरिष्ठ पत्रकार इष्ट देव सांस्कृत्यायन, अपने ब्लॉग पोस्टों की ही तरह चिंतक प्रवीण पाण्डेय, अर्थ काम वाले अनिल रघुराज, ब्लॉगिंग के आरंभिक दिनों के आभासी साथी डॉ.प्रवीण चोपड़ा, आदि ब्लॉगर आलोक कुमार व तकनीकि विशेषज्ञ विपुल जैन, स्नेहमयी वंदना अवस्थी दुबे, गंभीर आवाज में अपनी बातें करने वाले कार्तिकेय मिश्र लगता था कि इन्होंनें एक एक शब्दों को बोलने के पहले तोला हो), इन्हीं की तरह मुम्बई से पधारे डॉ.मनीष कुमार मिश्र की भी बातें लगती थी उनकी बातें सुनते हुए यह स्पष्ट हो जाता था कि ये हिन्दी के प्राध्यापक हैं। इनके अतिरिक्‍त विश्‍वविद्यालय के माननीय कुलपति का हिन्‍दी ब्‍लॉगों के प्रति रूचि व छात्र छात्राओं की सीखने की ललक सेहम अत्‍यंत प्रभावित हुए। इस दो दिन के कार्यक्रमकी स्‍मृतियॉं हमेशा बनी रहेगी, धन्यवाद सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी।

मेरे पीछे शोध छात्र जोशी
चलते चलते :- इस कार्यक्रम में ब्‍लॉगरों के अतिरिक्‍त महाविद्यालय के छात्र जोशी (नाम ध्यान नहीं आ रहा है) से भी हमारी मुलाकात हुई। जनसंचार में एम.फिल. के बाद शोध कर रहे जोशी छत्‍तीसगढ़ के एक गॉंव से हैं। चर्चा में उनकी उत्‍सुकता एवं समझ से हमें अपनी पीढ़ी पर गर्व महसूस हुआ। जोशी नें अभनपुर के आस पास के गॉंवों में प्रचलित एक प्रथा/परम्‍परा के संबंध में हमें बतलाया जिसके अनुसार छत्‍तीसगढ़ की एक जाति किसी भी गॉंव में किसी व्‍यक्ति के मृत्‍यु के बाद मृतक के घर जाता है और दान प्राप्‍त करता है। मृतक के परिजन दान देने के बाद घर को गोबर से लीप बुहार कर, सभी कपड़ों को धोकर, घर पवित्र करते हैं। बसदेवा को दान देनें के बाद ही घर को साफ किया जाता है एवं तभी घर पवित्र होता है ऐसी मान्‍यता है। जोशी का कहना था कि यह आश्‍चर्य का विषय है कि खानाबदोश जीवन जीने वाले बसदेवा को कैसे ज्ञात हो जाता है कि अमुख गॉंव में अमुख के घर में मृत्‍यु हुई है और वह आवश्‍यक रूप से वहॉं पहुच जाता है। जोशी नें हमें कहा कि इस पर शोध किया जाना चाहिए। हमने कहा कि हमें इस प्रथा के संबंध में ज्‍यादा जानकारी नहीं है, ललित शर्मा जी आपके गॉंव के निकट ही रहते हैं, उनसे चर्चा करते हैं और शोध की दिशा में भी सोंचते हैं।

सोशल मीडिया और हिंदी ब्लॉगिंग : वर्धा में सत्य के प्रयोग

उंघियाते ब्लॉगिंग के बीच इस माह के आरंभ में रमाकांत सिंह जी का फोन आया और उन्होंनें पूछा कि वर्धा चल रहे हैं क्या. मैंनें अनिश्चितता की बात की तब भी उन्होंनें टिकट बनवा लिया, कहा संभव नहीं होगा तो बाद में रद्द करावा लेगें. हमने इसे गंभीरता से नहीं लिया और अपने काम में रमे रहे. इस माह में ब्लॉग व वेब से जुड़े तीन तीन कार्यक्रमों की घोषणा हो चुकी थी और हम अपनी व्यस्तता के कारण किसी भी कार्यक्रम के लिए मन नहीं बना पाए थे. काठमाण्डु में परिकल्पना लोक भूषण सम्मान झोंकना था, भोपाल में अनिल सौमित्र जी के आमत्रण पर बेव मीडिया के वैचारिक दंगल में शामिल होना था और वर्धा के सेमीनार का लाभ उठाना था. इन तीनों में से किसी एक कार्यक्रम में पहुचने की जुगत लगाते रहे किन्तु ऐन वक्त पर न्यायालयीन आवश्यकताओं के कारण काठमाण्डु और भोपाल के कार्यक्रमों को छोड़ना पड़ा. चंडीगढ़ उच्च न्यायालय के लिए निकल जाना पड़ा वापसी का कोई तय नहीं था, मन अधीर होने लगा कि वर्धा भी नहीं जा पायेंगें किन्तु चंडीगढ़ का काम जल्दी ही निपट गया और हम 19 को दुर्ग आ गए. हमने तय किया कि 20 को श्राद्ध पक्ष के आरंभ दिन तर्पण करके वर्धा के लिए निकल सकते हैं और उस दिन के दूसरे सत्र तक पहुच सकते हैं सो हमनें आते ही सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी (सत्यार्थमित्र) को फोन किया कि हम 20 को दोपहर आ सकते हैं क्या? हमने पूर्व में ही सिद्धार्थ जी को मेल कर विषय से संबंधित संक्षिप्त आलेख प्रेषित कर दिया था और उन्होंनें हमें जवाबी मेल में विश्वविद्यालय से स्वीकृति लेने व आलेख को विस्तार देने एवं वर्धा का टिकट करा लेने को कहा था. सिद्धार्थ जी नें हमें आने को तो कहा, किन्तु लगा कि हम 'लगभग अनामंत्रित' हैं. इस बहुप्रतीक्षित कार्यक्रम की व्यवस्था में ऐन वक्त पर आने से उन्हें परेशानी हो रही होगी यह बात सोंचे बिना, मैंनें उन्हें मेल ठेल दिया कि जब विश्वविद्यालय से स्वीकृति नहीं मिल पाई है तो हम नहीं आ रहे हैं आपसे फिर कभी भेंटेंगें.
सुबह ललित शर्मा जी का फोन आया, बोले कि वे वर्धा के लिए निकल गए है दुर्ग स्टेशन में मिलो साथ चलते हैं. अब सिद्धार्थ जी को मेल तो ठेल दिया था, अब किस मुह से वर्धा गवनें समझ में नहीं आ रहा था, बड़े भाई अली सैयद (उम्‍मतें) को फोन लगाया. उन्होंनें दुविधा और मेरी उत्सुकता को समझा और मुझे कहा कि मेरे अगले काल का इंतजार करो. उनका फोन आया, मुझे समझाया, बोले तुरत निकलो. मैं स्टेशन पहुच गया तब तक ललित भाई भी रायपुर से दुर्ग स्टेशन पहुंच चुके थे. ललित भाई दगा देते हुए नागपुर उतर गए और हम पहुच गए वर्धा.
मोबाईल की बैटरी की सांस टूट रही थी और हमनें टैक्सी लेकर महात्मा गॉंधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के पिछले दरवाजे से प्रवेश किया. दरवाजे पर तैनात दरबानों नें नाम पता पूछा और आयोजन स्थल का पता बता दिया. टैक्सी से उतरते ही ब्लॉगरों की बस भी वहॉं पहुंची, हर्षवर्धन त्रिपाठी और सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने पहचान लिया. राम राम कहते तक दूसरे सत्र का आगाज हो गया, हमें भी स्टेज पर बुला लिया गया हम भकुवाए से स्टेज की कुर्सी पर बैठ गए. सत्र का संचालन हर्षवर्धन त्रिपाठी (बतंगड़) नें आरंभ किया, विषय सुनकर हमारे ब्लॉगिया तोते उड़ गए. हम देर से पहुचे थे इस कारण हमारे द्वारा तैयार विषय पर सुबह ही चर्चा हो चुकी थी, आलेख खीसे में फड़फड़ाने लगा और 'क्या सोशल मीडिया राजनीति को प्रभावित कर सकती है' विषय पर अनूप शुक्ल (फुरसतिया), कार्तिकेय मिश्र (मैनें आहुति बनकर देखा..), पंकज झा और संजीव सिन्हा आदि नें सारगर्भित वक्तव्य दिए. अनिल रघुराज जी नें अनुरोध करते हुए अपने मूल विषय पर वक्तव्य पढ़ा तो लगा चलो हमारे खीसे की खुजली भी अब मिट जायेगी किन्तु जब डायस में खड़ा हुआ तो लगा इस सत्र में ज्ञानी वक्ताओं व श्रोताओं के बीच मैं ही एक कमजोर कड़ी रहा. हर्षवर्धन त्रिपाठी जी की बात गूंजती रही कि ऐसे कार्यक्रमों में पूरी तैयारी से आना चाहिए.
सत्र की समाप्ति के बाद साथी ब्लॉगरों से मिलना सुखद रहा, नागार्जुन सराय आते आते सांझ ढल चुकी थी. डॉ.अशोक कुमार मिश्र 'प्रियरंजन' जी के साथ कमरा साझा करते हुए फ्रेश होकर नीचे उतरे तब तक बाबा के सानिध्य में कुर्सियॉं जम गई थी. संतोष त्रिवेदी जी (बैसवारी) अपने तथाकथित गुरूदेव डॉ.अरविन्‍द मिश्र (क्वचिदन्यतोSपि...) से साग्रह गेय कविता सुन रहे थे. कविता पूरी भी नहीं हुई थी कि विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय जी सपत्नीक सराय पहुंच गए. हम सब उपर भोजन शाला पहुंचे और भोजन पूर्व डॉ.अरविन्द मिश्र जी नें मधुर गीत सुनाया. ब्लॉगरों के मोबाईलों से फोटो धड़ा धड़ खींचे जा रहे थे और फेसबुकिया अपडेट जारी हो रहे थे. भोजन के मेज पर सजे घिया और मुर्ग मस्सल्लम का झोर जैसे ही संतोष त्रिवेदी नें चुहका कि अविनाश वाचस्पति नें अपने फेसबुक वाल में देवदत्त शंख का नाद कर दिया, धर्म खतरे में पड़ गया. फेसबुकिया टिप्पणियों, संतोष जी के प्रायश्चितों के बोलबचन के साथ ही पुन: कविता सत्र आरंभ हो गया.
इसी समय कुलपति जी के बाजू की सीट पर बैठने का सुअवसर प्राप्त हुआ. हमने अपने परिचय में अपने ब्लॉगिया सफर के संबंध में उन्हें बताया कि हम छत्तीसगढ़ी भाषा के साहित्य को लगातार आनलाईन उपलब्ध करा रहे हैं एवं छत्तीसगढ़ के कला, साहित्य और संस्कृति से संबंधित विषयों पर ब्लॉगिंग करते हैं. कुलपति महोदय नें लोक भाषा व क्षेत्रीय अस्मिता पर काम करते हुए भी पेशेगत विषय में न्यायालयीन फैसलों पर ब्लॉग लिखने का सुझाव दिया, हमने बताया कि हमारा कानूनी विषयक ब्लॉग भी है किन्तु हम उसमें नियमित नहीं है तो उन्होंनें कहा कि उसे भी नियमित रखने का प्रयास करो. संक्षिप्त वार्ता को विराम देते हुए हमने  प्रवीण पाण्डेय जी, अनूप शुक्ल, शकुन्तला शर्मा व सिद्धर्थ शंकर त्रिपाठी जी की कविताओं का रसास्वादन किया फिर नीचे पुन: बाबा नागार्जन के पास कुर्सियॉं डाल के बैठ गए. रात लगभग बारह बजे इष्ट देव सांकृत्यायन  (इयत्ता) आए उनसे मिल कर हम सब अपने अपने कमरों में चले गए. भोजन शाला में कविता सुनते हुए कुलपति महोदय के साथ बैठने का एहसास निद्रा पूर्व मानस में छाया रहा. सहज व्यक्तित्व के धनी विभूति नारायण राय, भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी, हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित साहित्यकार, अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति, अपनी एक टिप्पणी से संपूर्ण विश्व साहित्य और वौद्धिक जगत में तूफान उठा देने की क्षमता वाले व्यक्तित्व के आस पास जमे रहने का लोभ इस कार्यक्रम के अंत तक मेरे मन में बना रहा. कुछ ऐसे कि उनकी आभा को पास रह कर महसूस कर रहा हूं.
रूम पार्टनर डॉ.अशोक कुमार मिश्र 'प्रियरंजन' जी से मेरी पहली मुलाकात थी, रात में उनसे ज्ञात हुआ कि उन्होंनें हिन्दी ब्लॉगिंग के संबंध में कई शोधात्मक आलेख लिखे हैं. उन्हें हिन्दी ब्लॉग जगत का खासा अनुभव है, इसका परिचय उनके अगले दिन के सत्र में उनके वक्तव्य में स्पष्ट नजर आया. सुबह सात बजे गांधी आश्रम, सेवाग्राम जाने के लिए बस सराय में लग गई और हम निकल पड़े सेवाग्राम के लिए बाबा का आश्रम देखने. अब लगभग शहर में बदल चुके सेवाग्राम के बीच में गांधी आश्रम अपने आप को समेटता हुआ नजर आया. लग रहा था कि आश्रम खुलकर लम्बी सांसे लेना चाहता हो और शहर की बिल्डिंगें उसे सांस भी नहीं लेने दे रही हो. खैर .. 1936 में जब गांधी जी नें इस आश्रम की स्थापना की थी तब यह वर्धा से दूर जंगल व बीहड़ में रहा होगा और मैंनें उसी आभासी समय में इस आश्रम में प्रवेश किया. दुवारे से फोटू सोटू सेशन चलता रहा और हम गॉंधी जी के रहन सहन को समझने का प्रयत्न करते रहे. वहॉं लगी पट्टिकाओं से अनुमान लगाते रहे, कल्पना करते रहे. गॉंधी जी की किताबों के हर्फों का इस धरातल और खपरैल के घरों से संबंध जोड़ते रहे. वर्षों के इतिहास का गुना भाग करते रहे, सत्य के प्रयोग की अवधि को तौलते रहे. गॉंधी वादी चिंतकों की पूर्व में सुनी, पढ़ी बातों को स्मृति में लाते रहे. खपरैल के घरों के बीच प्रार्थना स्थल और बाजू में बड़े से मैदान में बालक स्वामी आत्मानंद डंडे को आगे से पकड़े और गॉंधी जी डंडे को पीछे से पकड़े दौड़ते नजर आ रहे थे. जीवंत आभासी स्मृतियों को विराम देते हुए हम नियत समय में बस में आकर बैठ गए. मेरे स्वर्गीय श्वसुर भूतपूर्व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे उनका इस आश्रम में लगातार आना जाना था, जब दुर्ग से चला था श्रीमती नें कहा था कि गॉंधी आश्रम जरूर जाना. आश्रम से बस हमें बाबा नागार्जुन सराय ले आई. यहॉं से हबीब तनवीर हाल गए जहॉं दो सत्रों में सेमीनार चलते रहा. यहीं ब्लॉ.ललित शर्मा (ललितडॉटकॉम) संध्या शर्मा जी (मैं और मेरी कविताएं) पहुचे, वन्दना अवस्थी दुबे जी (अपनी बात...) से मुलाकात हुई और मनीषा पाण्डेय से दुआ सलाम हुआ. आलोक कुमार (आदि चिट्ठाकार)डॉ विपुल जैन जी से मुलाकात हुई, बम शंकर वाले राकेश कुमार सिंह, डॉ.धापसे व अन्य ब्लॉगरों से मिलना अच्छा लगा. 
इस दो दिवसीय प्रवास में जनपदीय कवि बाबा नागार्जुन के सराय में रूकना और छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य को वैश्विक पहचान देने वाले अद्भुत रंग शिल्पी हबीब तनवीर हाल में बैठना मेरे लिए अपूर्व आनंद की अनुभूति रही. हालॉंकि कार्यक्रम नाट्य का नहीं था फिर भी हबीब के नाम से थिरकती हुई फिदा बाई, मटकते हुए मदन निषाद... सब जीवंत होकर इस नाट्यशाला में छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य की महान परम्पराओं की यशोगाथा कहते नजर आते रहे. विशाल विश्वविद्यालय और उसकी सुन्दरता नें मन को मोह लिया, व्यवस्थित रूप से बनाये गए भवन, संपूर्ण परिसर में फैली हरियाली, कतारबद्ध पेंड़ सब ज्ञान की अगुवानी में खड़े प्रतीत होते रहे. इस सुन्दर परिसर एवं शैक्षणिक उत्कृष्टता के बल पर विश्व के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की टक्कर में इस विश्वविद्यालय को लाने वाले इस विशाल विश्वविद्यालय के प्रमुख के रूप में कुलपति विभूति नारायण राय का योगदान सराहनीय है.. उनके द्वारा हिन्दी ब्लॉगों को जीवन देने के लिए किये जा रहे प्रयासों के लिए हम उन्हें बहुत बहुत धन्यवाद देते हैं. 
शैक्षणिक संस्थाओं में ऐसे आयोजन छात्रों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से आयोजित किये जाते हैं जहॉं शोध छात्रों से कार्यशाला के लिए पंजीयन शुल्क भी रखा जाता है. यहॉं भी छात्रों नें पंजीयन शुल्क दिया था और बड़ी आशा के साथ हमें सुनने बैठे थे किन्तु मुझे वापसी तक यह सालता रहा कि विश्वविद्यालय से यात्रा व्यय लेने व नार्गाजुन सराय में तीन सितारा आतिथ्य का उपभोग करने के एवज में मैं छात्रों को कुछ भी नहीं दे पाया.

टीप: समय मिलेगा तो वर्धा संस्मरण पर एक ठो अउर पोस्ट ठेलेंगें.

भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक 2012 एक स्वागतेय प्रयास

लोकसभा नें भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक 2012 पास कर दिया. यह एक स्वागतेय शुरूआत है, 119 वर्ष पुराने कानून का आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक था. केन्द्र सरकार नें ड्राफ्ट बिल को प्रस्तुत करते हुए बहुविध प्रचारित किया कि इसमें किसानों के हितों का पूर्ण संरक्षण किया गया है, किन्तु पास हुए बिल में कुछ कमी रह गई है. इस पर विस्तृत चर्चा बिल के राजपत्र में प्रकाशन के बाद ही की जा सकती है. छत्तीसगढ़ में मौजूदा कानून के तहत निचले न्यायालयों में लंबित अर्जन प्रकरणों में बतौर अधिवक्ता मेरे पास लगभग दो सौ एकड़ रकबे के प्रकरण है, यह पूरे प्रदेश में रकबे के अनुपात में सर्वाधिक है. इसलिये मुझे इस बिल में इसके निर्माण के सुगबुगाहट के समय से ही रूचि रही है. इस रूचि के अनुसार तात्कालिक रूप से नये बिल में पास की गई जो बातें उभर कर आ रही है एवं बिल के ड्राफ्ट रूप में जो बदलाव किए गए हैं उन पर कुछ चर्चा करते हैं.

यह स्पष्ट है कि भूमि संविधान के समवर्ती सूची में होने के कारण राज्य सरकार का विषय है, राज्य सरकारों को भूमि के संबंध में कानून बनाने की स्वतंत्रता है किन्तु भूमि अधिग्रहण के मामलों में इस बिल को बनानें वाली समिति नें यह स्पष्ट किया था कि इस बिल के प्रावधानों को स्वी‍कारते हुए ही राज्यो सरकारें अपने स्वयं का कानून बना सकेंगीं. यानी यह बिल राज्य सरकार के लिए एक प्रकार का दिशा निर्देश है, उसे इस बिल के मानदंडो के अंतर्गत ही फैसले लेनें होंगें, उन्हें भूमि मालिकों के हितों को अनदेखा करने की व्यापक स्वतंत्रता नहीं होगी.

बिल के ड्राफ्ट में ही यह स्पष्ट था कि पुराने कानून की धारा 17 के प्रावधानों को समाप्त किया जा रहा है. पुराने कानून के इस धारा की आड़ में राज्य सरकार आवश्यकता की परिभाषा स्वमेव गढ़ते हुए किसानों की जमीन दादागिरी करके छीन लेती थी. इस नये बिल में अब सरकार ऐसा नहीं कर सकेगी, अब सिर्फ दो स्थितियों पर अनिवार्य भूमि अर्जन हो सकेगा एक तो राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित आवश्यकता और दूसरी प्राकृतिक आपदा से निर्मित आवश्यकता पर. सरकारें अग्रेजी के 'डोमेन' शब्द का लब्बोलुआब प्रस्तुत करते हुए कहती थी कि 'सबै भूमि सरकार की', हमें आवश्यकता है तुम तो सिर्फ नामधारी हो असल मालिक तो हम हैं और किसान हाथ मलते रह जाता था. संभावित अधिग्रहण क्षेत्र का किसान कानूनी विरोध करने के बावजूद हमेशा डरते रहते थे कि कलेक्टर उसकी भूमि को धारा 17 के दायरे में ना ले ले. अब इस कानून के आने से किसानों को अनिवार्य अर्जन के डर से मुक्ति मिलेगी.

बिल में यह प्रावधान है कि पीपीपी परियोजनाओं और निजी कम्पेनियों के लिए अधिग्रहण प्रस्ताव के पूर्व सरकार को ग्रामीण क्षेत्र में ग्राम पंचायतों के माध्यम से अस्सी प्रतिशत एवं शहरी क्षेत्रों में स्थानीय अधिकरणों के माध्यम से सत्तर प्रतिशत भूमि स्वामियों की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक होगा. यह प्रावधान भूमि स्वामियों को अधिग्रहण के पूर्व सुने जाने का बेहतर अवसर प्रदान करता है. मौजूदा कानून में भूमि स्वामी को अपनी भूमि के छिन जाने का भान तब होता है जब धारा 4, 6 या धारा 17 का प्रकाशन होता था. कई कई बार तो भू स्वामी को इस प्रकाशन के संबंध में भी जानकारी ही नहीं हो पाती थी और उसकी जमीन छीन ली जाती थी. इस नये कानून के बाद किसानों को राहत मिलेगी और वे अपनी भूमि को देने या नहीं देने के संबंध में आकलन समिति के समक्ष अपना मन बना पायेंगें या अपना प्राथमिक विरोध दर्ज कर पायेंगें.

यह प्रश्न भी अभी उभर रहे हैं कि वर्तमान में भूमि अर्जन से संबंधित अन्य बहुत सारे केन्द्रीय अधिनियम भी प्रभावी हैं ऐसे में इस बिल के प्रभावी होने पर कानूनी अड़चने आयेंगी. राज्य सरकारें दूसरे अधिनियम का सहारा लेते हुए अधिग्रहण करेंगीं और यह बिल निष्प्रभावी हो जायेगा. इस संभावना से मुकरा नहीं जा सकता किन्तु केन्द्र सरकार का कहना है कि शीघ्र ही इन सभी अधिनियमों में संशोधन कर, वर्तमान बिल को केन्द्रीय प्रभाव में लाया जावेगा. यदि ऐसा होगा तभी पूरी तरह से इस बिल के प्रावधानों पर सफलता समझी जावेगी.

इस बिल के संबंध में आशान्वित लोगों का कहना था कि ग्रामीण क्षेत्र में भूमि का चार गुना और शहरी क्षेत्र में दो गुना मुआवजा प्राप्त होगा. केन्द्र सरकार भी इसके लिए प्रतिबद्ध नजर आ रही थी, डुगडुगी भी बजा रही थी किन्तु पास बिल के प्रावधान के अनुसार जिस प्रकार से इस मसले को राज्य सरकार के झोले में डाला गया है वह चिंतनीय है. ड्राफ्ट बिल के अनुसार मुआवजा आंकलन का संपूर्ण अधिकार कलेक्टर को दे दिये गए है जो व्यवहारिक नहीं हैं, भूमि के बाजार दर के निर्धारण के लिए ड्राफ्ट बिल में दिए गए प्रावधानों का कलेक्टरों के द्वारा सही अर्थान्वयन किया जायेगा यह संदेह में है. सरकार के पक्षपाती कलेक्टरों के द्वारा बाजार दर का जानबूझकर कम आंकलन किया जायेगा. यदि कलेक्टर स्वविवेक से किसानों की हितों की झंडाबरदारी करते भी हैं तो मुआवजा आंकलन समिति में जो दो अशासकीय सदस्य होगें वे सरकार की तरफदारी में, दर का कम आकलन ही करेंगें क्योंकि उनकी नियुक्ति सरकार के इशारे पर होगी. दो और चार गुना मुआवजे का अनुपात एक सुझाव के तौर पर कानून में प्रस्तुत है इसे पूरी तरह से मानना या नहीं मानना राज्य सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है, जिसमें पक्षपात निश्चत तौर पर होगीं और किसानों को मिलने वाले वाजिब मुआवजे पर राज्य सरकारें डंडी मारेंगीं.

इस अधिनियम पर आस लगाए लोग यह जानना चाहते होंगें कि यह कब से प्रभावी होगी. देश भर के कई किसान आस लगाए बैठे हैं कि उन्हें इस बिल से अत्यधिक फायदा पहुचेगा. इस बिल में इसके प्रभावी होने के संबंध में स्पष्ट उल्लेख है कि यह बिल उन सभी प्रकरणों में लागू होगा जिनका मुआवजा तय नहीं किया गया है. इस संबंध में जयराम नरेश नें कहा है कि ऐसे मामलों में जहां अर्जन पांच साल पहले हुआ था किन्तु मुआवजा नहीं दिया गया है या कब्जार नहीं लिया गया है तो यह कानून स्व मेव प्रभावी हो जायेगा. इस प्रावधान के चलते कई प्रदेशों में पुराने कानून के तहत लंबित प्रकरण की प्रक्रिया समाप्त हो जावेगी और इस नये कानून के तहत प्रक्रिया पुन: आरंभ की जावेगी. वैसे भी जब यह कानून प्रभावी होगा तो अधिग्रहण चाहने वाली संस्था को किसानों की भूमि का मुआवजा उनके पूर्व आकलन से लगभग चार गुना ज्यादा देना होगा और इससे उनका निर्धारित परियोजना समय व बजट निश्चित तौर पर बढ़ जावेगा. इसके कारण संभावना यह भी बनेगी कि अधिग्रहण चाहने वाली संस्थानओं के द्वारा किसानों की जमीनों के अधिग्रहण का प्रस्ताव छोड़ दे.

अन्य प्रावधानों में खाद्य सुरक्षा के रक्षोपाय के लिए जो उपबंध किये गए हैं कि सिंचित कृषि भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जायेगा उसमें आंशिक संशोधन करते हुए इसका अधिकार राज्यए सरकारों को दे दिया गया है. इसके अतिरिक्त अर्जन के विवादों के त्वरित निपटान हेतु पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन प्राधिकरण की स्थापना भी न्यायालयीन समय को कम करने का उचित प्रावधान है. अन्य सभी प्रावधानों की चर्चा सीमित रूप से करना एक आलेख में संभव नहीं है फिर भी मोटे तौर पर उपर लिखे तथ्य ही इस नये बिल के सार हैं जो बरसों पहले बने भूमि छीनने के कानून के विरूद्ध अधिग्रहण के माध्यम से किसानों पर हो रहे अन्याय को समाप्त करने का व्यापक जन हित में एक सराहनीय प्रयास है. यह पुराने कानून के प्रभावों को सहानुभूतिपूर्वक समझकर उसे विस्तृत करते हुए इसे अर्जन के साथ ही पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन तक विस्तारित किया गया है जो भूमि खोने वाले किसानों की पीड़ा का समुचित इलाज है.

संजीव तिवारी

लायब्रेरी पर कमीश्नरी हावी : दुर्ग संभायुक्त कार्यालय हिन्दी भवन में


आज के समाचार पत्रों में दो अलग अलग खबरों पर राहुल सिंह जी नें ध्यान दिलाया. जिसमें से एक रायपुर के 110 साल पुरानी लाईब्रेरी के रख रखाव की खबर थी तो दूसरे समाचार में दुर्ग में आगामी 5 सितम्बर से आरंभ होने वाले संभागायुक्त कार्यालय हेतु दुर्ग के लाईब्रेरी को चुनने के संबंध में समाचार था. दुर्ग में जिस जगह पर संभागायुक्त कार्यालय खुलना प्रस्तावित है, उस भवन का नाम हिन्दी भवन है, इस भवन के उपरी हिस्से पर बरसों से नगर पालिक निगम की लायब्रेरी संचालित होती रही है. लायब्रेरी के संचालन के कारण ही हिन्दी भवन में 'सार्वजनिक वाचनालय' लिखा गया था. वैसे पिछले कुछ वर्षों से इस भवन से लाईब्रेरी को नव निर्मित भवन 'सेंट्रल लाईब्रेरी' में स्थानांतरित कर दिया गया था, जिसमें नगर पालिक निगम द्वारा संचालित यह लाईब्रेरी अब संचालित हो रही है. वैसे लायब्रेरी पर कमीश्नरी हावी होने का किस्सा अकेले दुर्ग का नहीं है, यह दंश बरसों पहले बिलासपुर भी झेल चुका है. बरसों से लोगों के मन में हिन्दी भवन की छवि एक सार्वजनिक वाचनालाय के रूप में ही रही है इस कारण जब संभागायुक्त कार्यालय के रूप में इस भवन का चयन किया गया तो लोगों के मन में सहज रूप से इस निर्णय के विरोध का भाव आया.


अब इसी बहाने दुर्ग के 'हिन्दी भवन' एवं दुर्ग नगर पर कुछ चर्चा कर लेते हैं. इस भवन का निर्माण सन् 1911 में अंग्रेजों के द्वारा किया गया था, जिसका नाम एडवर्ड हाल रखा गया था. इस भवन के उपरी हिस्से में सन् 1915 से सार्वजनिक वाचनालय का संचालन आरंभ हुआ था जो अभी कुछ वर्षों पहले तक सतत संचालित था. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस भवन का उपयोग साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यों के लिए किया जाने लगा इसीलिए इसका नाम 'हिन्दी भवन' पड़ा. हिन्दी भवन नाम होने के बावजूद नगर के साहित्यकारों को यह भवन साहित्यिक कार्यक्रमों के लिए आसानी से कभी नहीं मिल पाया. यह भवन मात्र दिखावे के लिए हिन्दी भवन बना रहा.


गांव, गढ़, तहसील फिर जिला और उसके बाद संभाग बनने के सफर को दुर्ग के इतिहास के पन्नों में टटोलें तो दुर्ग को गढ़ रूप में स्थापित करने के पीछे जगपाल या जगतपाल नाम के एक गढ़ पति का नाम सामने आता है. अस्पष्ट सूत्रों के अनुसार यह कलचुरी वंश के पृथ्वी देव द्वितीय के सेनापति थे. कहीं कहीं जगपाल को मिर्जापुर के बाघल देश का निवासी बताते हैं जो कलचुरियों का कोषाधिकारी था. कलचुरी नरेश नें किसी बात से प्रसन्न होकर जगपाल को दुर्ग सहित 700 गांव इनाम में दे दिए तब जगपाल नें यहां गढ़ स्थापित किया. मौर्य, सातवाहन, राजर्षि, शरभपुरीय, सोमवंश, नल, महिष्मति, कलचुरी, मराठा शासकों मौर्य, सातवाहन, राजर्षि, शरभपुरीय, सोमवंश, नल, महिष्मति, कलचुरी, मराठा शासकों का शासन इस नगर में रहा. गजेटियरों में इस नगर को सन् 1818 से 1947 तक द्रुग लिखा जाता रहा है. सन् 1860 से सन् 1947 तक यह मध्य प्रांत व सन् 1947 से सन् 1956 तक सीपी एण्ड बरार सेन्ट्रल प्राविंस में शामिल था उसके बाद यह 1 नवम्बर सन् 1956 से मध्य प्रदेश, फिर 1 नवम्बर 2000 से छत्तीसगढ़ राज्य में है. दुर्ग को जिला सन् 1906 में बनाया गया था तब इसमें दुर्ग, राजनांदगांव, कवर्धा, मुगेली, धमतरी के कुछ हिस्से व सिमगा के कुछ हिस्से शामिल थे. तब इस जिले में परपोड़ी, गंडई, ठाकुरटोला, सिल्हाटी, बरबसपुर, सहसपुर लोहारा, गुण्डरदेही, खुज्जी, डौडीलोहारा, अम्बागढ़ चौकी, पानाबरस, कोरचा व औंधी जमीदारियां शामिल थी. इस प्रकार से तब एक बहुत बड़ा भू भाग दुर्ग जिले में शामिल था.


दुर्ग को सन् 1906 में ही नगर पालिका बनाया गया जिसके पहले अध्यक्ष पं.द्वारिका प्रसाद तिवारी थे, 1 अप्रैल 1981 को इसे नगर पालिक निगम बनाया गया जिसके पहले महापौर सुच्चा सिंह ढ़िल्लो मनोनीत किए गए. दुर्ग जिले के वर्तमान जिलाधीश कार्यालय भवन का निर्माण सन् 1907 में हुआ उस समय के इस जिले के प्रथम जिलाधीश एस.एम.चिटनवीस थे. ..... ये सब कथा कहानी से ईब क्या होगा, संभाग बना है तो बनाने का श्रेय लेने के लिए चौक चौराहों पर बड़े बड़े होर्डिंग्स लग गए है, इतिहास गाथा तो वही कहेंगें ना.

संजीव तिवारी

पुस्तक-समीक्षा: संघर्षाग्नि का ताप केरवस

छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य में उपन्‍यास लेखन की परम्‍परा नयी है, उंगलियों में गिने जा सकने वाले छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यासों की संख्‍या में अब धीरे धीरे वृद्धि हो रही है। पिछले दो तीन वर्षों में कुछ अच्‍छे पठनीय उपन्‍यास आये हैँ । इसी क्रम में अभी हाल ही में प्रकाशित छत्‍तीसगढ़ी, हिन्‍दी, उर्दू और गुजराती के स्‍थापित साहित्‍यकार मुकुन्‍द कौशल द्वारा लिखित छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास ‘केरवस’ भी प्रकाशित हुआ है। ‘केरवस’ सत्‍तर के दशक के छत्‍तीसगढ़ का चित्र प्रस्‍तुत करता है। ‘केरवस’ की कथा और काल उन परिस्थितियॉं को स्‍पष्‍ट करता है जिनके सहारे वर्तमान विकसित छत्‍तीसगढ़ का स्‍वरूप सामने आता है। विकासशील समय की अदृश्‍य छटपटाहट उपन्‍यास के पात्रों के चिंतन में जीवंत होती है। उपन्‍यास को पढ़ते हुए यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि यह उपन्‍यास लेखक का भोगा हुआ यथार्थ है। नवजागरण के उत्‍स का दस्‍तावेजीकरण करता यह उपन्‍यास सत्‍तर के दसक में उन्‍नति की ओर अग्रसर गॉंव की प्रसव पीड़ा की कहानी कहता है। अँधियारपुर से अँजोरपुर तक की यात्रा असल में सिर्फ छत्‍तीसगढ़ की ही नहीं अपितु गॉंवों के देश भारत की विकास यात्रा है। यह उभरते राज्‍य छत्‍तीसगढ़ के गॉंवों में आ रही वैचारिक क्रांति की कहानी है।

उपन्‍यास में शांत दिखते गॉंव अँधियारपुर में शोषण व अत्‍याचार से पीड़ितों की चीत्‍कारें दबी हुई हैँ , विरोध के स्‍वरों पर राख पड़ी हुई हैँ । सेवानिवृत चंदेल गुरूजी इसे वैचारिक हवा देते हैँ और नवजागरण का स्‍वप्‍न युवा पूरा करते हैँ । अलग अलग छोटी छोटी कहानियां की नदियॉं एक बड़ी नदी से मिलने के लिए साथ साथ चलती है और समग्र रूप से साथ मिलकर उपन्‍यास का रूप धरती है।

उपन्‍यास का कथानक अँजोरपुर के बड़े जलसे से आरंभ होता है जहॉं डीएसपी बिसाल साहू व उसकी पत्‍नी निर्मला गॉंव की ओर जीप से जा रहे हैँ । बिसाल साहू की यादों में उपन्‍यास आकार लेने लगता है। गॉंव के आयोजन में शामिल होने के लिए अन्‍य अधिकारियों के साथ ही अँधियारपुर निवासी स्‍टेनों फूलसिंह भी जा रहा है। वही जीप में बैठे अधिकारियों को अँधियारपुर से अँजोरपुर बनने का किस्‍सा बताता है। उपन्‍यास का कथानक वर्तमान और भूत के प्‍लेटफार्म को फलैशबैक रूप में प्रस्‍तुत करते हुए आगे बढ़ता है। अँधियारपुर के मालगुजार सोमसिंह, लालच में थुलथुल शरीर वाली कन्‍या केंवरा से अपने पुत्र मालिकराम का विवाह करवा देता है। मालिकराम रायपुर में वकालत की पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर गॉंव आकर रहने लगता है। गॉंव के गरीब किसानों को कर्ज देकर उनके जमीनों को अपने नाम कराने और शोषण व अत्‍याचार करने का उसका पारंपरिक कार्य आरंभ हो जाता है। मालिकराम सहकारी समितियों से कृषि कार्य के लिए खुद अपने नाम से एवं अपने कर्मचारियों के नाम से कर्ज लेता है पर उसे चुकाता नहीं। उसके दबदबे के कारण उससे कोई वसूली करने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाता। परेशान गॉंव में एसे ही किसी दिन एक समिति सेवक मोहन सोनी पहुँचता है और हिम्‍मत करके मालिकराम को समिति का मॉंग पत्र पकड़ा देता है। गॉंव में अदृश्‍य क्रांति का बिगुल उसी पल से फूँक दिया जाता है। समिति प्रबंधक के प्रयास से मालगुजार मालिकराम बैंक का कर्ज चुका देता है। सोनी बाबू समिति के लिए मेहनत करता है और कृषि विकास समिति को नया जीवन देता है। समिति सेवक जिसे गॉंव वाले बैंक बाबू या सोनी बाबू कहते हैँ वह परभू मंडल के घर में रहने लगता है। घर में केजई और उसकी बेटी मोंगरा भी रहते हैँ ।

गॉंव में अनेक कहानियॉं संग चलती हैं उनमें से कालीचरण की कहानी आकार लेती है। पत्‍नी की असमय मौत से विधुर हो गए कालीचरण नाई के छोटे बच्‍चे राधे को पालने का भार कालीचरण पर रहता है। कालीचरण मालिकराम जमीदार के घर में काम करता है इस कारण वह बच्‍चे की देखभाल नहीं कर पाता। एक दिन गॉंव के सब लोग उसके घर के सामने इकट्ठे हो जाते हें क्‍योंकि गॉंव वालों को खबर लगती है कि कालीचरण एक औरत को घर लेकर आया है। गॉंव वालों को कालीचरण बताता है कि वह दरभट्ठा के बस स्‍टैंड में होटल चलाने वाली चमेली यादव की बेटी है, चमेली को वह बस स्‍टैंड में ही मिली थी जब उस बच्‍ची को कोई वहॉं छोड़ दिया था। रूपवती बिलसिया अपने प्रेम व्‍यवहार से काली ठाकुर और उसके बच्‍चे का दिल जीत लेती है। गॉंव में उसके रूप यौवन की चर्चा रहती है वैसे ही उसके व्‍यवहार की भी चर्चा रहती है। कालीचरण के साथ ही बिलसिया भी मालिकराम के यहॉं काम करने जाने लगती है।

लेखक नें बिलसिया को मालगुजार मालिकराम के प्रति स्‍वयं ही आकर्षित होते हुए दिखाया है। यह बिलसिया जैसी रूपवती चिर नौयवना के हृदय में भविष्‍य के प्रति सुरक्षा के भाव को दर्शाता है। बिलसिया का अपने पति व मालिकराम के अतिरिक्‍त किसी अन्‍य के साथ दैहिक संबंधों का कोई उल्‍लेख उपन्‍यास में नहीं आता। मालिकराम और बिलसिया दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित रहते हैँ । मालगुजार को बिना दबाव के सहज ही बिलसिया की देह मिल जाता है। मालिकराम एक बिलसिया से ही संतुष्‍ट नहीं होता वह नित नये शिकार खोजता है इसी क्रम में वह बाड़े में काम करने वाले कासी की नवयौवना बेटी गोंदा का शिकार करता है। मालिकराम के कुत्सित प्रयासों से गोंदा को गर्भ ठहर जाता है। लेखक नें इस घटना को मालिकराम के चरित्र को प्रस्‍तुत करने के लिए बड़े रोचक ढ़ग से लिया है हालांकि गोंदा के गर्भ ठहरने पर मालिकराम की पत्‍नी का नारीगत विरोध के अतिरिक्‍त उपन्‍यास में आगे कोई प्रतिक्रया नहीं है। मालिकराम के द्वारा गॉंव की औरतों के शारिरिक शोषण के चित्र को स्‍पष्‍ट करने के लिए लेखक नें ‘खास खोली’ का चित्र उकेरा है जो मालिकराम के एशगाह को नित नये शोषण का साक्षी बनाती है। कथा के अंतिम पड़ाव पर इसी कुरिया में बिलसिया मालगुजार को अपनी देह सौंप कर अपने परिवार के प्रति निश्चिंत हो जाती है।

गॉंव में शहर से आई रमशीला देशमुख उर्फ रमा, स्‍कूल में शिक्षिका है वह स्‍वाभिमानी है व अपने कर्तव्‍यों के प्रति सजग है। मालिक राम चाहता है कि वह उसके द्वार पर हाजिरी लगाने आए किन्‍तु वह नहीं जाती। सुखीराम एक मेहनतकश किसान है जो अपनी पत्‍नी अमरबती और बेटी दुरपती के साथ गॉंव में रहता है। दुरपति गॉंव में ही पढ़ती है और शाम को सोनी बाबू के पास पढ़ने आती है। सुखीराम का एक बेटा है जो शहर में रह कर पढ़ाई कर रहा है, सुखीराम नें अपने बेटे कन्‍हैंया की पढ़ाई के लिए मालिकराम से कर्ज लिया है उसके लिए मालिकराम उसे बार बार तंग करता है। सुखीराम हाड़तोड़ मेहनत कर कुछ पैसे इकट्ठे करता है , उसके पास दुविधा है कि वह पैसों से बेटी के हाथ पीले करे या जमीदार का कर्ज लौटाये?

मनबोधी साहू किसान है और गॉंव में किराना एवं कपड़ा दुकान भी चलाता है, उसका बेटा बिसाल शहर से पढ़ कर गॉंव आता है। बिसाल और कन्‍हैया दोनों बचपन के दोस्‍त हैँ । बिसाल पढ़ाई के साथ ही संगीत में भी प्रवीण है, उसका गला अच्‍छा है। पड़ोस के गॉंव में एक बार रामायण गायन प्रतियोगिता आयोजित होती है जिसमें गॉंव वालों के साथ बिसाल भी भाग लेने जाता है। वहॉं उद् घोषिका निर्मला, उसे भा जाती है, दोनों परिवार की रजामंदी से उनका विवाह हो जाता है। सत्‍तर के दसक में छोटे से गॉंव में अपनी संस्‍कृति के प्रति प्रेम के बरक्‍स बच्‍चों को डॉक्‍टर इंजीनियर बनाने की होड़ को पीछे छोड़ती निर्मला नें संगीत में स्‍नातक किया है।

इधर नौकरी नहीं मिलने से कन्‍हैया गॉंव वापस आ जाता है। स्‍कूल शिक्षिका रमा से उसकी अंतरंगता बढ़ने लगती है। इस प्रेम के अंकुरण के साथ ही दमित शोषित समाज को मुख्‍यधारा में लाने का प्रयास दोनों के संयुक्‍त नेतृत्‍व से आरंभ हो जाता है। बिसाल एवं अन्‍य युवा इसमें सक्रिय योगदान करने जुट जाते हैँ ।

गॉंव में एक सेवानिवृत शिक्षक चंदेल भी रहते हैँ जो गॉंव में नवजागरण के स्‍वप्‍न सँजोए गॉंव वालों को जगाने के लिए निरंतर प्रयास करते रहते हैँ। वे समय समय पर गॉंव की उन्‍नति, मालगुजार के शोषण व अत्‍याचार से मुक्ति एवं पृथक छत्‍तीसगढ़ राज्‍य के लिए क्रांति करने को प्रेरित करते रहते हैँ । गॉंव में कन्‍हैया, बिसाल और रमा के आने से युवा लोगों का उत्‍साह बढ़ता है और वे चंदेल गुरूजी की बातों से प्रभावित होने लगते हैँ । युवाओं में विद्रोह की भावना प्रबल होने लगती है और मालगुजार इस विद्रोह को दबाने के लिए पुलिस से मदद पाने की जुगत भिड़ाता है, और एक नामी लठैत को घर में बुलवाता है।

गॉंव में दहशत फैलाने के उद्देश्‍य से मालिकराम लठैत के साथ घूमता है व अपने कर्ज में दिए गए पैसे की वसूली मार पीट कर करता है ऐसे ही दबावपूर्ण परिस्थितियों में एकदिन मालिकराम और गुंडों के द्वारा मारपीट करने से सुखीराम की मौत हो जाती है। कन्‍हैया के पिता की मौत से विद्रोह का शंखनाद हो जाता है। लेखक नें विद्रोह और उसके बाद की क्रमबद्धता को बहुत जल्‍द ही समेट दिया है कुछ ही पैराग्राफों के बाद जमीदार के घर में घुस आए युवक खाता बही और जबरदस्‍ती अंगूठा लगा लिए गए स्‍टैम्‍प पेपरों की होली जला देते हैँ और चुटकियों में रावण का अंत हो जाता है जैसे दशहरे में कृत्तिम रावण पल भर में जल जाता है।

ग्राम सेवक सोनी गॉंव में सांस्‍कृतिक चेतना जगाता है और अपने कर्तव्‍यों के उचित निर्वहन के साथ ही कृषि सहकारिता के विकास में अपना सक्रिय योगदान देता है। शहर से पढ़कर गॉंव आने वाला कन्‍हैया रमा से विवाह करके, गॉंव में ही बस जाता है और अपने गॉंव का सर्वांगीण विकास का सपना साकार करते हुए सरपंच चुना जाता है। गॉंव का अंधकार मिट जाता है और गॉंव में चारो ओर विकास, सुख व संतुष्टि का उजाला फैल जाता है। लेखक का प्रतिनायक उपन्‍यास के अंत में कहीं गायब हो जाता है, मरता नहीं। जैसे लेखक कहना चाह रहा हो कि शोषण और अत्‍याचार का अभी अंत नहीं हुआ है, उसे हमने अपने संयुक्‍त प्रयासों से दूर भले भगा दिया है वो फिर आयेगा रूप बदल कर, हमें सावधान रहना है।

मुकुन्‍द कौशल जी की विशेषता रही है कि, वे अपनी कविताओं में बहुत सहज और सरल रूप से पाठकों को तत्‍कालीन समाज की जटिलता से वाकिफ कराते है। इस उपन्‍यास में भी उनकी यह विशेषता कायम है, पात्रों का चयन, कथोपकथन, पात्रों के कार्य व्‍यवहार, घटनाक्रम का विवरण एवम् परिस्थितियों का चित्रण वे इस प्रकार करते हैँ कि उपन्‍यास के मूल संदेश के साथ छत्‍तीसगढ़ के ग्रामीण समाज को समझा जा सके। लेखक नें काली नाई की पत्‍नी बिलसिया के चरित्र के चित्रण में इसी प्रकार की विसंगतियों का चित्रण किया है, उपन्‍यास में उसे बिना मा बाप की अवैध संतान बताया है जिसे बस स्‍टैंड के होटल वाले पालते हैँ , लेखक नें उसकी खूबसूरती का भी बहुत सजीव चित्रण किया है, उसमें प्रेम दया के भाव कूटकूट कर भरे हैँ । कथा में वह अपने पति की पहली पत्‍नी के बेटे को उसी प्रकार स्‍नेह देती है जैसे वह उसका खुद का बेटा हो। वह अपने पति का ख्‍याल रखते हुए भी जमीदार को जीतने का ख्‍वाब रखती है और अपने रूप बल से उसे जीतती भी है। कथाक्रम में स्‍वयं की पत्‍नी और काली को, जमीदार मरवा देता है जिसे दुर्घटना का रूप दे दिया जाता है। बिलसिया अपने पति की मृत्‍यु के बावजूद जमीदार की सेज पर जाती है। लेखक नें उपन्‍यास में लिखा है - ‘बिलसिया ह आज अड़बड़ खुस हे, अउ काबर खुस नइ होही आज त ओकर मनौती अउ परन पूरा होवइया हे। अपन नवा रेसमइहा लुगरा ला बने डेरी खंधेला पहिर के चेहरा म चुपरिस पावडर, होठ म लगाइस लाली अउ गोड म रचाइस माहुर। अँगरी मन म नखपालिस रचा के पहिरिस तीनलड़िया हार। कान म झुमका अउ अँगरी म अरोइस मुँदरी। कपार म टिकली चटका के, सिंघोलिया ले चुटकी भर सेंदुर निकाल के भरिस अपन मॉंग, ते सुरता आगे राधे के ददा के।‘ यह दर्शाता है कि बिलसिया को अपने राधे की चिंता है, उपन्‍यास के अंत में लेखक नें राधे को सायकल में स्‍कूल जाते हुए दर्शाया है और बिलसिया को जमीदार के बाड़े में रहते हुए चित्रित किया है। सपाट अर्थों में इस वाकये को स्‍त्री स्‍वच्‍छंदता भले मान लिया जाए किन्‍तु उसके पीछे का गूढ़ार्थ नारी अस्मिता को भलीभांति स्‍थापित करता है। बिलसिया का द्वंद यह है कि मालिकराम उसके देह को छोड़ेगा नहीं और बिलसिया अपने पति और बच्‍चे को छोड़ेगी नहीं। इसका आसान सा हल मालिकराम के सम्‍मुख समर्पण के अतिरिक्‍त और कुछ भी नहीं है।

लगभग तीन दर्जन पात्रों के साथ गुथे इस उपन्यास के अन्य पात्रों में बेरोजगारी का दंश झेलते कन्हैया, गॉंव में शिक्षा का लौ जलाती रमा, क्रांति का मशाल थामे शहर से पढ़कर गॉंव आने वाला बिसाल, सेवानिवृत प्रधानाध्यापक बदरी सिंह चंदेल, स्वामी भक्त और किंकर्तव्‍यविमूढ़ कालीचरण नाई, गॉंव में सहकारिता और विकास के ध्वज वाहक सोनी बाबू जैसे प्रमुख पात्रों नें उपन्यास में छत्तीसगढ़ की ग्रामीण जनता के असल चरित्र को व्यक्त किया है.

लेखक चंदैनी गोंदा, सोनहा बिहान एवं नवा बिहान जैसे छत्‍तीसगढ़ के भव्‍य व लोकप्रिय लोकनाट्य प्रस्‍तुतियों के गीतकार रहे हैँ । इन प्रस्‍तुतियों में वे पल पल साथ रहे हैँ इस कारण उन्‍हें पटकथा के गूढ़ तत्‍वों का ज्ञान है जिसको उन्‍होंनें उपन्‍यास में उतारा है। पढ़ते हुए ऐसे लगता है जैसे घटनायें ऑंखों के सामने घटित हो रही है, उपन्‍यास का कथोपकथन कानों में जीवंतता का एहसास कराता है। उपन्यासकार नें कथोपकथन के सहारे कथा को विस्तारित करते हुए सहज प्रचलित शब्दों का प्रयोग कर संवाद को प्रभावपूर्ण बनाया हैँ . एक संवाद में चंदेल गुरूजी गॉंव वालों के मन में ओज भरते हुए छत्तीसगढ़ की गौरव गाथा बहुत सहज ढ़ंग से कहते हैँ , जो पाठक के मन में भी माटी प्रेम का जज़बा भर देता है— ‘ये माटी अइसन’वइसन माटी नोहै रे बाबू हो, ये माटी बीर नरायन सिंह के, पं. सुन्‍दरलाल के, डाकुर प्यारेलाल सिंह अउ डॉ.खूबचंद बघेल के जनम देवईया महतारी ए। महानदी, अरपा, पैरी, खारून, इन्द्रावती अउ सिउनाथ असन छलछलावत नंदिया के कछार अउ फागुन, देवारी, हरेली, तीजा’पोरा असन हमर तिहार।‘ उपन्यास के नामकरण को स्पष्ट करता हुआ एक कथोपकथन उपन्यास में आता है जिसमें दुरपति और सहोद्रा बड़े दिनों के बाद मिलकर बातें कर रहे हैँ उनके बीच जो बातें हो रही है उसमें गूढ़ शब्दों का प्रयोग हो रहा है. शहर में व्याही सहोद्रा जब गॉंव में रहने वाली महिलाओं के जन जागरण में शामिल होने पर सवाल उठाती है तब दुरपति कहती है '... बटलोही के केरवस त धोवा जाथे बहिनी, फेर उही केंरवस कहूँ मन म जामे रहिगे तब कइसे करबे? लगही त लग जाए, फेर केंरवस ये बात के परमान रिही के इहॉं कभू आगी बरे रिहिस ...’ उपन्यासकार कितनी सहजता से अपने पात्र के मुख से दर्शन की बात कहलवाते हैँ . शोषण, अन्याय, अत्याचार की आग के विरूद्ध यदि संघर्ष करना है तो उसका रास्ता भी आग से ही होकर जाता है. संघर्ष करने वालों को इस आग से जलना भी है और जलन की निशानी को बरकरार भी रखना है क्योंकि यह निसानी इस बात को प्रमाणित करती है कि हमने अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष किया था. यह संदेश है उन सभी दमित और शोषित जन के लिए कि हमारे मन में लगा केरवस प्रमाण है, हमारे संघर्षशील प्रकृति का, चेतावनी है कि हमें कमजोर समझने की भूल मत करना.

लेखक की मूल विधा काव्‍य है, वे छत्‍तीसगढ़ के स्‍थापित जनकवि हैँ । गद्य की कसौटी को वे भली भंति समझते हैँ इसी कारण उन्‍होंनें इस उपन्‍यास में शब्‍दों का चयन और प्रयोग इस तरह से किया है कि संपूर्ण उपन्‍यास में काव्‍यात्‍मकता विद्यमान है। कथानक के घटनाक्रमों और बिम्‍बों का चित्रण लेखक इस प्रकार करते हैँ कि संपूर्ण उपन्‍यास एक लम्‍बी लोकगाथा सी लगती है जो काव्‍य तत्‍वों से भरपूर नजर आती है। छत्‍तीसगढ़ी के मैदानी स्‍वरूप में लिखी गई इस उपन्‍यास की भाषा बोधगम्‍य है। सहज रूप से गॉंवों में बोली जाने वाली भाषा का प्रयोग इस उपन्‍यास में हुआ है।

उपन्‍यास में प्रयुक्‍त कुछ शब्‍दों में ऐसे शब्‍द जिन्‍हें हम बोलचाल में अलग अलग करके प्रयोग करते हैँ उसे लेखक नें कई जगह युग्‍म रूप में प्रस्‍तुत किया है जो पठन प्रवाह को बाधित करता है। हो सकता है कि प्रदेश के ज्‍यादातर हिस्‍से में इस तरह के शब्‍द प्रयोग में आते हों। कुछ शब्‍दों का उदाहरण प्रस्‍तुत कर रहा हूं – बड़ेक्‍जन, सबोजिन, बिजरादीस, सिपचाके, लहुटगे, टूरामन, जवनहामन, गुथागै, लहुटके आदि। व्‍यवहार में हम अंतिम शब्‍द पर ज्‍यादा जोर डालते हैँ इस कारण अंतिम शब्‍दों को अलग कर देने से अंतिम शब्‍द पर जोर ज्‍यादा पड़ता है। लेखक ने उपन्‍यास में फड़तूसाई, बंहगरी जैसे कुछ नये शब्‍द भी गढ़े हैँ और व्‍यवहार में विलुप्‍त हो रहे शब्‍दों को संजोकर उन्‍हें प्रचलन में लाया है जैसे पंगपंगावत, पछौत, साहीं, कॉंता, मेढ़ा, बँधिया सिल्‍ली, कड़क’बुजुर, मेरखू आदि। उपन्‍यास में आए उल्‍लेखनीय वाक्‍यांशों की बानगी देखिए – उत्‍साह में कूदकर आकास छूने की बात को कहते हैँ ‘उदक के अगास अमर डारिस’। प्रकृति चित्रण में वे शब्‍द बिम्‍बों का सटीक संयोजन करते हैँ ‘मंझन के चघत घाम मेछराए लगिस’, ‘फागुन अवइया हे घाम ह मडि़या-मडि़या के रेंगत हे’, ‘सुरूज ह बुड़ती डहार अपन गोड़ लमा डारे रहै, सांझ ह घलो अपन लुगरा चारोकती फरिया दे रहिस ...’ आदि। बढ़ती उम्र में गरीब किशोरी के शारीरिक बदलाव को बड़ी चतुराई से शालीन शब्‍दों में कहते हैँ ‘बाढ़त टूरी के देंह बिजरादीस’ इसी तरह मालिकराम के दैहिक शोषण से गभर्वती हो गई किशोरी के गर्भ को प्रकट करने के लिए लेखक लिखते हैँ ‘तरी डाहर फूले पेट ह लगा दीस लिगरी’। इसी तरह मजाकिया लहजे में प्रतिनायक के चरित्र को स्‍पष्‍ट करते हुए लेखक लिखते हैँ ‘जब चालीस कुकुर मरथे त एक सूरा जनम धरथे अउ चालीस सूरा मरथे तब एक मालिकराम।‘ इसी तरह से संपूर्ण उपन्‍यास में हास परिहास, दुख सुख और घटनाक्रमों को लेखक नें बहुत सुन्‍दर ढ़ग से प्रस्‍तुत किया है।

इन संपूर्ण विशेषताओं के बावजूद उपन्‍यास में कुछ छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों का प्रयोग व्‍यवहारगत कारणों से खटकता है किन्‍तु अभी छत्‍तीसगढ़ी भाषा का मानकीकृत रूप सामने नहीं आया है इसलिए मानकीकृत रूप में इसे स्‍वीकरना आवश्‍यक प्रतीत होता है। इसी तरह उपन्‍यास के शीर्षक के संबंध में मेरी धारणा या स्‍वीकृति ‘केंरवछ’ रही है जबकि उपन्‍यासकार नें इसे ‘केरवस’ कहा है। उपन्‍यास में दो तीन स्‍थान पर इस शब्‍द का प्रयोग हुआ है, उसमें संभवत: दो बार ‘केंरवस’ लिखा है। लेखक छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों के प्रति सजग हैँ इस कारण किंचित असहमति के बावजूद हम इसे स्‍वीकार करते हैँ और ‘केरवस’ को मानकीकृत रूप में स्‍वीकारते हैँ ।

छत्तीसगढ़ी की औपन्यासिक दुनिया बहुत छोटी है किन्तु इसमें मुकुन्द कौशल का 'केरवस' एक सार्थक हस्तक्षेप है. यह निर्विवाद सत्य है कि प्रबुद्ध पाठकों के अनुशीलन एवं कमियों के प्रति ध्यानाकर्षण से ही किसी साहित्य का समग्र अवलोकन हो पाता है. लेखक नें जिस उद्देश्य और संदेश के लिए यह उपन्यास लिखा है उसका विश्लेषण आगे आने वाले दिनों में पाठक और आलोचक अपने अपने अनुसार से करेंगें। किन्तु इसमें भी कोई संदेह नहीं कि आगे यह उपन्यास छत्तीसगढ़ी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान प्रस्तुत करेगा. छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी से प्रेम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह उपन्यास अनिवार्यता की सीमा तक आवश्‍यक प्रतीत होता है।

शताक्षी प्रकाशन, रायपुर से प्रकाशित इस उपन्यास का कलेवर आकर्षक है. 112 पष्टों के इस हार्डबाउंड उपन्यास की कीमत 250 रूपया है.

संजीव तिवारी

भारतीय शास्‍त्रीय संगीत में छत्‍तीसगढ़ी बंदिशें

भारतीय शास्‍त्रीय संगीत के जानकारों का कहना है कि शास्‍त्रीय संगीत की बंदिशों में गाए जाने वाले अधिकतम गीत ब्रज के हैं, दूसरी भाषाओं की बंदिशें भारतीय शास्‍त्रीय रागों में बहुत कम देखी गई है। छत्‍तीसगढ़ी को भाषा के रूप में संवैधानिक दर्जा देनें के प्रयासों के बावजूद शास्‍त्रीय रागों में इस भाषा का अंशमात्र योगदान नहीं है। छत्‍तीसगढ़ी लोकगायन की परम्‍परा तो बहुत पुरानी है किन्‍तु शास्‍त्रीय गायन में छत्‍तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग अभी तक आरंभ नहीं हो पाया है। इस प्रयोग को सर्वप्रथम देश के बड़े संगीत मंचों में भिलाई के कृष्‍णा पाटिल नें आरंभ किया है। कृष्‍णा पाटिल भिलाई स्‍पात संयंत्र के कर्मचारी हैं एवं संगीत शिक्षक हैं। कृष्‍णा नें गुरू शिष्‍य परम्‍परा में शास्‍त्रीय गायन अपने गुरू से सीखा है(गुरू का नाम हम सुन नहीं पाये, ज्ञात होने पर अपडेट करेंगें) । वर्षों की लम्‍बी साधना, निरंतर रियाज, संगीत कार्यक्रमों में देश भर में प्रस्‍तुति, विभिन्‍न ख्‍यात संगीतज्ञों के साथ संगत देनें के बावजूद बेहद सहज व्‍यक्तित्‍व के धनी कृष्‍णा नें अपनी भाषा को शास्‍त्रीय रागों में बांधा है। उनका कहना है कि वे दुखी होते हैं जब लोग उन्‍हें कहते हें कि छत्‍तीसगढ़ी गीतों में फूहड़ता छा रही है और अब कर्णप्रिय गीतों का अभाव सा हो गया है। इसीलिए वे कहते हैं कि छत्‍तीसगढ़ में संगीतकारों और गीतकारों को अपनी भाषा के प्रति और संवेदशील होने की आवश्‍यकता है। छत्‍तीसगढ़ी गीतों के इस शास्‍त्रीय गायक कृष्‍णा पाटिल से हमारी मुलाकात सरला शर्मा जी के निवास पद्मनाभपुर, दुर्ग के आवास में हुई। विदित हो कि हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढ़ी में समान अधिकार से निरंतर साहित्‍य रचने वाली विदूषी लेखिका सरला शर्मा वरिष्‍ठ साहित्‍यकार स्‍व.पं.शेषनाथ शर्मा 'शील' जी की पुत्री हैं। सरला शर्मा के निवास में विगत 4 अगस्‍त को एक आत्‍मीय पारिवारिक गोष्‍ठी का आयोजन श्रीमती शशि दुबे की योरोप यात्रा का संस्‍मरण सुनने के लिए हुआ था।

शशि दुबे नें अपनी पंद्रह दिवसीय योरोप यात्रा का सजीव चित्रण किया। दर्शनीय स्‍थलों की विशेषताओं, यात्रा में रखी जाने वाली सावधानियों, यात्रा आयोजकों के द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं, स्‍थानीय निवासियों, प्राकृतिक वातावरण व परिस्थितियों का उन्‍होंनें सुन्‍दर चित्रण किया। उन्‍होंनें अपना संस्‍मरण लगभग पंद्रह-बीस पन्‍नों में लिख कर लाया था जिसे वे पढ़ कर सुना रहीं थी, बीच बीच में प्रश्‍नों का उत्‍तर भी दे रहीं थीं। उनके इस संस्‍मरण का प्रकाशन यदि किसी पत्र-पत्रिका में हो तो योरोप यात्रा में जाने वालों के लिए यह बहुत काम का होगा।

कार्यक्रम के अंतिम पड़ाव में कवि गोष्‍ठी का भी आयोजन किया गया जिसमें अर्चना पाण्‍डेय, डॉ.हंसा शुक्‍ला, डॉ.संजय दानी, प्रभा सरस, डॉ.नरेन्‍द्र देवांगन, विद्या गुप्‍ता, प्रदीप वर्मा, आशा झा, डॉ.निर्वाण तिवारी, दुर्गा पाठक, नरेश विश्‍वकर्मा, मुकुन्‍द कौशल और मैंनें भी अपनी कवितायें पढ़ी। कार्यक्रम में छत्‍तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्‍यक्ष पं.दानेश्‍वर शर्मा, सचिव पद्मश्री डॉ.सुरेन्‍द्र दुबे व डॉ.निरूपमा शर्मा भी उपस्थित थे।

कार्यक्रम में कृष्‍णा पटेल की संगीत प्रस्‍तुति के बाद डॉ.निर्वाण तिवारी नें रहस्‍योत्‍घाटन किया कि गोष्‍ठी में बैठे युगान्‍तर स्‍कूल के संगीत शिक्षक सुयोग पाठक भी अपनी संगीतमय प्रस्‍तुति थियेटर के माध्‍यम से जबलपुर के थियेटर ग्रुप के साथ देते रहते हैं, जिसमें वे गीतों व कविताओं को नाट्य रूप में संगी व दृश्‍य माध्‍यमों से प्रस्‍तुत करते हैं। उपस्थित लोगों नें सुयोग से अनुरोध किया तो सुयोग पाठक नें बीते दिनों कलकत्‍ता में हुए नाट्य महोत्‍सव का वाकया सुनाया जिसमें उनके ग्रुप को गुलज़ार के किसी एक गीत की नाट्य प्रस्‍तुति देनें को कहा गया। कार्यक्रम में गुलज़ार बतौर अतिथि उपस्थित रहने वाले थे, आयोजकों नें गुलज़ार के गीतों की एक संग्रह टीम को पकड़ाया जिसमें से लगभग प्रत्‍येक गाने फिल्‍माए जा चुके थे ऐसे में उनकी गीतों को मौलिकता के साथ पुन: संगीतबद्ध करना एक चुनौती थी किन्‍तु सुयोग और टीम नें प्रयास किया। चल छैंया छैया गीत को प्रस्‍तुत करने के बाद स्‍वयं गुलज़ार नें सुयोग की पीठ थपथपाई और आर्शिवाद दिया। सुयोग नें बिना किसी वाद्य संगीत के इस गीत को नये सुर में हमें सुनाया।

बात जिससे आरंभ किया था उसके संबंध में कुछ और बातें आपसे साझा करना चाहूंगा। कृष्‍णा पाटिल से परिचय कराते हुए कवि मुकुन्‍द कौशल नें बतलाया कि कृष्‍णा हारमोनियम के सर्वश्रेष्‍ठ वादक हैं। कृष्‍णा के द्वारा हारमोनियम में बजाए जाने वाले लहर की कोई सानी नहीं है। हारमोनियम का उल्‍लेख करते हुए कृष्‍णा नें कहा कि संगीत के शास्‍त्रीय गुरूओं का कहना है कि हारमोनियम शास्‍त्रीय गायन के लिए योग्‍य वाद्य नहीं है, यह हमारा पारंपरिक वाद्य नहीं है, यह फ्रांस से भारत में आया है। शास्‍त्रीय संगीत का असल आनंद तारों से बने हुए यंत्र से ही मिलता हैं। छत्‍तीसगढ़ी भाषा के शास्‍त्रीय संगीत पर संगत के संबंध में मुकुन्‍द कौशल नें बतलाया कि कुछ बरस पहले पं.गुणवंत व्‍यास के द्वारा इस पर प्रयास किये गए थे। उस समय छत्‍तीसगढ़ी के कुछ स्‍थापित कवियों के गीतों को शास्‍त्रीय रागों में सुरबद्ध करके 'गुरतुर गा ले गीत' नाम से एक एलबम निकाला गया था। इस एलबम नें यह सिद्ध कर दिया था कि छत्‍तीसगढ़ी बंदिशें शास्‍त्रीय संगीत में भी गायी जा सकती हैं।

कार्यक्रम के गायन को मैं अपने मोबाईल में रिकार्ड किया, जो सहीं ढंग से रिकार्ड नहीं हो पाया है, फिर भी पाठकों के लिए इसे मैं प्रस्‍तुत कर रहा हूँ :-

कृष्‍णा पाटिल : राग गुजरी तोड़ी - सरसती दाई तोर पॉंव परत हौँ



कृष्‍णा पाटिल : राग यमन - जय जय छत्‍तीसगढ़ दाई


कृष्‍णा पाटिल : राग.... - मन माते सहीँ लागत हे फागुन आगे रे


कृष्‍णा पाटिल : राग.... - मोर छत्‍तीसगढ़ महतारी के पँइयॉं लागँव


सुयोग पाठक : चल छंइयॉं छंइयॉं


मुकुन्‍द कौशल : गीत>


कार्यक्रम का चित्र प्रदीप वर्मा जी के कैमरे से लिया गया जिसका इंतजार है.

संजीव तिवारी

फ़रिया (Fariya)

डॉक्टर मिस्टर तिरपाठी जब विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे तो उनके अनेक देशी विदेशी शोधार्थी छात्र—छात्रा उनसे मिलने, उनका मार्गदर्शन लेने उनके घर आते रहते थे. सुबह सुबह डॉक्टर मिस्टर तिरपाठी संस्कृत मंत्रों के जाप में और डॉक्टर मिसिज़ तिरपाठी रसोईघर में व्यस्त थे, इसी समय में विदेशी छात्राओं का दल डॉक्टर साहब के घर पहुचा. बैठक में कामवाली बाई फर्श पर पोछा लगा रही थी, और छात्रायें सोफे पर बैठे पोरफेसर साहेब के मंत्र सिराने का इंतजार कर रही थी. एक उत्सुक छात्रा नें कामवाली बाई से पूछा 'व्हाट इज दिस!!' काम वाली बाई को कुछ समझ में आया पर वह चुप रही. पोछा के कपड़े की ओर इशारा करके जब विदेशी छात्रा नें बार बार पूछा तो कामवाली बाई नें तार तार हो गए साहेब के कमीज से बने पोछे के कपड़े को दो उंगली में उपर उठा कर दिखाते हुए कहा — 'दिस इज फ़रिया!!' विदेशी छात्रायें कुछ समझती इसके पहले ही डॉक्टर मिसिज तिरपाठी आ गईं, हाय हैलो के बाद समझाया कि इंडिया में इसी तरह पुराने कपड़े को पानी में डुबो कर पर्श पोंछा जाता है. पोरफेसर साहेब के घर से निकल कर विदेशी छात्रायें देर तक 'फड़िया!' 'फडिया!' 'फरिया!' कह कह कर हंसती रही. महाविद्यालय के गलियारों में भी बहुत दिनों तक 'फरिया!' का वाकया हंसी के ठहाकों के साथ गूंजता रहा.

बात आई गई हो गई, एक दिन समाचारों से ज्ञात हुआ कि शहर में गरीब महिलाओं के सर्वांगीण विकास के वास्ते सरस्वती महिला बैं​क खुल गया है, जिसमें पैसा जमा करने पर ज्यादा बियाज मिलेगा और गरीबों को करजा देनें में प्राथमिकता दी जावेगी. समाचार यह भी था कि बैंक में डॉक्टर मिसिज़ तिरपाठी सर्वेसर्वा चुन ली गई. आगे के समाचारों में था कि कामवाली बाईयों के पैसों का पूरा ध्यान रखा जायेगा.. ब्लॉं..ब्लॉं..ब्लॉं. मुझे 'फरिया!' याद आ गया. बहुसंख्यक स्वप्नजीवी समाज के पैसों को साफ करने का साधन. 'फरिया!'

बात फिर आई गई हो गई, कुछ महीनों के बाद समाचार नें लिखा कि सरस्वती महिला बैंक डूब गई, बैंक नें सचमुच लोगों का पैसा साफ कर दिया. इससे बड़े घरों की बड़ी बड़ी कामवाली बाईयों के घरों में कीचड़ के छींटे पड़ गए. उन्होंनें फिर 'फरिया!' को याद किया. घर के छींटे पोछे और देश विदेश के आलीशान बंगलों के किसी सोफे के पीछे दुबक गईं.

जनता भोली है बात को आने जाने दे देती है. कुछ बरसों के बाद कम्बख्त़ समाचार पत्रों नें फिर लिखा कि सरस्वती बैंक के दफ़्तरी नें डॉक्टर मिसिज़ तिरपाठी सहित मंत्री, संत्री और कंत्री का नाम धरते हुए कह दिया है कि उसने बैंक के लाकर में पोछा मार कर सारा पैसा ठेले में भर कर फलां फलां के घर पहुचाया है. मैंनें फिर सोचा कि 'फरिया!' के बिना इस तरह की पोछाई संभव नहीं. पोछा लगाने के लिए 'फरिया' हमेशा छोटे और जरूरतमंद लोगों के हाथ में होती है, बड़े लोगों के हाथ में होती है रिमोट.

'फरिया!' मेरे मानस से गायब होने का नाम ही नहीं ले रहा था कि तभी टीभी में देखा डॉक्टर मिसिज़ तिरपाठी अपने आप को बेदाग साबित करते हुए कुछ बयान दे रही थी. मैंडम का चेहरा दमक रहा था, घर में बैठक का फर्श भी चमक रहा था, किसी कामवाली बाई नें 'फरिया!' से फर्श चमका दिया था भले उस कामवाली बाई की किस्मत एक अदद 'फरिया' के लिए तरसती रहे.

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...