तरूआ ठनकना

इस मुहावरे का भावार्थ है शंका होना, किसी बुरे लक्षण को देखकर चित्त में घोर आशंका उत्पन्न होना, कुछ स्थितियों पर आश्‍चर्य होने पर भी इसका प्रयोग होता है.

'तरूआ' 'तेरवा' से बना है जो हिन्दी शब्द 'तेवान' अर्थात सोंच विचार का अपभ्रंश है. छत्तीसगढ़ी शब्द 'तरूआ' का आशय शरीर का वह अंग जो सोंचने विचारने का केन्द्र होता है यानी मस्तक या भाल है. छत्तीसगढ़ में तले हुए सब्जियों के लिए भी 'तरूआ' शब्द का प्रयोग होता है. हिन्‍दी में 'तरू' वृक्ष व रक्षक का समानार्थी है जबकि 'तरूआ' पैर के नीचे भाग तलवा को बोला जाता है.

अकर्मक क्रिया शब्द 'ठनकना' ठन शब्द से बना है जिसका आशय ठन ठन शब्द करना, सनक जाना, रह रह कर दर्द करना या कसक होना है. 'ठनकई' इसी आशय के क्रिया या भाव को कहा जाता है. हिन्‍दी में ठन से आशय धातुखंड पर आघात पड़ने का शब्द या किसी धातु के बजने का शब्द से है इसका यौगिक शब्‍द ठन ठन है. 'ठनकना' का आशय रह रहकर आघात पड़ने की सी पीड़ा, टीस या चसक है. अन्‍य समीप के शब्‍दों में 'ठनका' रह रहकर आघात पड़ने की सी पीड़ा, 'ठनकाना : किसी धातुखंड या चमड़े से मढ़े बाजे पर आघात करके शब्द निकालना, बजाना, जैसे, तबला ठनकाना, रुपया ठनकाना.

हिन्दी के 'ठस' के अपभ्रंश के रूप में बने 'ठनक' का आशय बुलंद आवाज में, दमदारी के साथ के लिए भी होता है. 'बने ठनक के गोठिया!' जैसे वाक्याशों का प्रयोग प्रचलित है. इसी शब्‍द से बना व हिन्‍दी में प्रचलित मुहावरा ठनककर बोलना का भावार्थ कड़ी आवाज में कुछ कहना से है. इसके करीब के शब्दों में 'ठनकी' हिन्दी के 'ठनक : टीस' से बना है जिसके कारण इसका प्रयोग जलने के साथ रूक रूक कर पेशाब होने की क्रिया या भाव के लिए प्रयोग होता है. हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान रूप से प्रचलित शब्द 'ठनठनगोपाल' का आशय छूँछी और निःसार वस्तु, वह वस्तु जिसके भीतर कुछ भी न हो, खुक्ख आदमी, निर्धन मनुष्य, वह व्यक्ति जिसके पास कुछ भी न हो, है. ढनमनाना के लिए कभी कभी 'ठनमनाना' का भी प्रयोग होता है. 'ठनाठन' नगद या तुरंत अदा करने के भाव के लिए भी प्रयोग होता है.


इस छत्तीसगढ़ी शब्द 'तरूआ' के 'आ' प्रत्यय के स्थान पर 'वा' का प्रयोग 'तरूवा' के रूप में भी होता है. मेरी जानकारी में दोनों शब्दों का प्रयोग समान अर्थ रूप में होता है,

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...