सिर्फ एक गांव में गाई जाती है छत्‍तीसगढ़ी में महामाई की आरती ??

छत्तीसगढ़ के प्राय: हर गांव में देवी शक्ति के प्रतीक के रूप में महामाई के लिए एक स्‍थल निश्चित होता है. जहां प्रत्येक नवरात में ज्योति जलाई जाती है एवं जेंवारा बोया जाता है. सभी गांवों में नवरात्रि के समय संध्या आरती होती है. ज्यादातर गांवों में यह आरती हिन्दी की प्रचलित देवी आरती होती है या कहीं कहीं स्थानीय देवी के लिए बनाई गई आरती गाई जाती है. मेरी जानकारी के अनुसार एक गांव को छोड़ कर कहीं अन्‍य मैदानी छत्‍तीसगढ़ के गांव में छत्‍तीसगढ़ी भाषा में महामाई की आरती नहीं गाई जाती. जिस गांव में छत्‍तीसगढ़ी में महामाई की आरती गाई जाती है वह गांव है बेमेतरा जिला के बेरला तहसील के शिवनाथ के किनारे बसा गांव खम्‍हरिया जो खारून और शिवनाथ संगम स्‍थल सोमनाथ के पास स्थित है.

इसके दस्‍तावेजी साक्ष्‍य एवं स्‍थापना के लिए यद्यपि मैं योग्‍य नहीं हूं किन्‍तु वयोवृद्ध निवासियों से चर्चा से यह सिद्ध होता है कि यह परम्‍परा बहुत पुरानी है. वाचिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी गाए जा रहे इस महामाई की आरती का जो ज्ञात प्रवाह है उसके अनुसार लगभग 500 वर्ष से यह इसी तरह से गाई जा रही है. यह आरती कब से गाई जा रही है पूछने पर गांव वाले बतलाते हैं कि लगभग चार पांच सौ साल पहले से यानी चार पांच पीढ़ी से लगातार यह परम्‍परा चली आ रही हो, इसके अनुसार इसे पांच सौ वर्ष से निरंतर माना जा सकता है यह भी हो सकता है कि यह उससे भी पहले चली आ रही गायन परम्परा हो.

खम्हरिया में गाई जाने वाली आरती में यद्धपि बीच के बोल आरती से नहीं लगते क्योंकि इसमें देवी के गुणगान का बखान नहीं दिखता और ना ही प्रार्थना के भाव प्रत्यक्षत: नजर आते सिवा बार बार के टेक ‘महामाई ले लो आरती हो माय’ को ठोड़ दें तो. किन्‍तु पारंपरिकता एवं देसज भाव इस आरती के महत्व को प्रतिपादित करती है. इस आरती में निहित शब्दों और उनके अर्थों में तारतम्यता भी नहीं नजर आती. इस गांव में गाई जाने वाली आरती में पांच पद हैं जो सभी एक दूसरे से अलग अलग प्रतीत होते हैं.  खम्‍हरिया गांव में गाई जाने वाली छत्‍तीसगढ़ी महामाई की आरती इस प्रकार है -

महामाई ले लो आरती हो माय

गढ़ हिंगलाज में गड़े हिंडोला
लख आये लख जाए
लख आये लख जाए
माता लख आए लख जाए
एक नइ आवय लाल लगुंरवा
जियरा के परान अधार
महामाई ले लो आरती हो माय
महामाई ले लो आरती हो माय

गढ़ हिंगलाज म उतरे बराईन
आस पास नरियर के बारी
झोफ्फा झोफ्फा फरे सुपारी
दाख दरूहन केकती केंवरा
मोगरा के गजब सुवास
महामाई ले लो आरती हो माय

बाजत आवय बांसुरी अउ
उड़त आवय घूर
माता उड़त आवय घूर
नाचत आवय नन्द कन्हैंया
सुरही कमल कर फूल
महामाई ले लो आरती हो माय

डहक डहक तोर डमरू बाजे
हाथ धरे तिरसूल बिराजे
रावन मारे असुर संहारे
दस जोड़ी मुंदरी पदुम बिराजे
महामाई ले लो आरती हो माय

अन म जेठी कोदई अउ
धन म जेठी गाय
माता धन म जेठी गाय
ओढ़ना म जेठी कारी कमरिया
ना धोबियन घर जाए
माता ना धोबियन घर जाए
महामाई ले लो आरती हो माय

आईये इस बिरले आरती को विश्‍लेषित करते हैं, आरती के पहले पद में हिंगलाज गढ़ में माता के पालने में झूलने और माता के दर्शन हेतु लाखों लोगों के आने जाने का उल्लेख आता है. लोक लंगुरे के नहीं आने से चिंतित है क्योंकि लंगूर माता के जियरा के प्राण का आधार है यानी प्रिय है. दूसरे पद में गढ़ हिंगलाज की सुन्दरता का वर्णन मिलता है जिसमें नारियल के बाग, सुपाड़ी के पेंड़, दाख, दारू, केकती, केंवड़ा के फूल के साथ ही मोंगरा के फूलों के सुवास का वर्णन है ऐसे स्थान पर बराईन के उतरने का उल्लेख लोक करता है. पारंपरिक छत्तीसगढ़ी जस गीतों में बराईन पान बेंचने वाली का उल्लेख कई बार आता है. जिसके आधार पर यह प्रतीत होता है कि बराईन एक महिला तांत्रिक है किन्तु देवी उपासक है उसकी झड़प यदा कदा लंगुरे से, जो 21 बहिनी के भईया लंगुरवा है, से होते रही है. यह महिला तांत्रिक उस गढ़ हिंगलाज में उतरती है. तीसरे पद में लोक कृष्ण को पद में पिरोता है कि वह बांसुरी बजाते हुए नाचते हुए जब आता है तो उसके नाचने से धूल उड़ती है और वह हाथ में कमल का फूल लिए आता है. चौंथे पद में संगीत का चढ़ाव तेज हो जाता है और गायन में भी तेजी आ जाती है इसमें देवी के रूप का वर्णन आता है डहक डहक डमरू बज रहा है, तुम्हारे हाथ में त्रिशूल है, तुमने रावण को मारा है और असुरों का संहार किया है. तुम्हारी अंगुलियों में दस जोड़ी अंगूठी है. तुम कमल के आसन में विराजमान हो. पांचवे पद में लोक शायद माता को अर्पित करने योग्य वस्तु का वर्णन करते हुए संदेश देना चाहता है वह कहता है कि अन्न में मुख्य कोदो है जो छत्तीसगढ़ के बहुसंख्यक गरीब जनता का अन्न है. धन में वह गाय को प्रमुख स्थान देता है, कपड़े मे प्रमुख स्थान वह भेड़ों के रोंए से बने काले कम्बल को देता है क्योंकि वह धोबी के घर कभी धुलने के लिए नहीं जाता यानी इसे धोने की आवश्यकता ही नहीं.

इन पांचों पदों को जोड़ने का प्रयास मैं बचपन से करते रहा हूं, पहले पद में हिंगलाज माता का वर्णन दूसरे में गढ़ हिंगलाज का वर्णन, तीसरे पद में कृष्ण का वर्णन, चौंथे में माता का स्वरूप वर्णन और अंतिम में चढ़ावा हेतु वस्तु का वर्णन आता है जिसमें कृपा के पद को हटा दें तो तारतम्यता बनती नजर आती है, यह भी हो सकता है कि इस आरती में पहले और पर रहे होंगें जो हटा दिए गए होंगें या भुला दिए गए हों.

गांव वालों का कहना है कि ये आरती रतनपुर के महामाई की आरती है, उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण जीवन यापन हेतु पहले रतनपुर राज्य आए फिर अन्य गढ़ों में फैलते गए, गढ़पतियों के द्वारा पहले से बसे गांव ब्राह्मणों को दान में दिए गए तो कुछ ब्राह्मण उपयुक्त स्थल में अपना स्वयं का गांव बसा लिया. इसी क्रम में रांका राज के अधीन इस गांव को बसाने वाले कुछ ब्राह्मण अपने सेवकों के साथ यहां आये और शिवनाथ नदी के तट का उपयुक्त उपजाउ जमीन को चुनकर अपना डेरा डाल लिया. तब रतनपुर की देवी महामाया ही उनके स्मृति में थी उन्होनें ही नदी के किनारे देवी का स्थापना किया और तब से यही आरती गाई जा रही है. बाद के दिनों में शिवरीनारायण होते हुए उड़ीसा के मांझी लोग नदी के तट पर आकर बस गए धीरे धीरे गांव स्वरूप लेने लगा और आज लगभग 1500 की जनसंख्या वाला यह गांव, बेमेतरा जिले का आखरी गांव है.

संजीव तिवारी

वर्धा में आभासी मित्रों से साक्षात्कार


महात्मा गॉंधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में विगत दिनों आयोजित हिन्दी ब्लॉग संबंधी कार्यशाला से संबंधित अनुभव के पोस्ट प्रतिभागियों के ब्लॉगों में प्रकाशित हो रहे हैं। सभी की अपनी अपनी दृष्टि और अभिव्‍यक्ति का अपना अपना अलग अंदाज होता है, धुरंधर लिख्खाड़ों में डॉ.अरविन्द मिश्र एवं अनूप शुक्ल नें सेमीनार को समग्र रूप से प्रस्तुत कर दिया है अन्य पोस्टों में भी लगभग सभी पहलुओं को प्रस्तुत किया जा चुका है, उन्हीं वाकयों को बार बार लिखने का कोई औचित्य नहीं है, इस कार्यक्रम में जिन ब्‍लॉगर साथियों से हमारी मुलाकात हुई उनके संबंध में कुछ कलम घसीटी मेरे नोट बुक में पोस्‍ट करने से बचे थे जिसे प्रस्‍तुत कर रहा हूँ।

सबसे पहले मैं आप लोगों को बताता चलूं कि, मेरे इस कार्यशाला में जाने के पीछे तीन उद्देश्य थे। पहला, मैं महात्मा गॉंधी अंतरर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को देखना एवं वहॉं के साहित्‍य सृजन के लिए उर्वर वातावरण को महसूस करना चाहता था। दूसरा, इस कार्यशाला में उपस्थित होकर, आभासी मित्रों से मिलना चाहता था क्योंकि विश्वविद्यालय के पिछले ब्लॉगर सम्मेलनों में मैं चाहकर भी उपस्थित नहीं हो पाया था। तीसरा, मेरे छत्तीसगढ़ी के आनलाईन साहित्य संग्रह पोर्टल गुरतुर गोठ जैसे अन्य देशज भाषा के वेब पोर्टलों की आवश्यकता, उसकी उपयोगिता एवं देशज भाषा के साहित्य के अधिकाधिक पन्नों को आनलाईन करने हेतु ब्लॉगरों, छात्रों व विश्वविद्यालयों का आहवान करना चाहता था। इसमें से पहले दोनों उद्देश्यों की पूर्ति भलीभांति हुई, तीसरे के लिए चर्चा का समय नहीं मिल पाया। इस कार्यक्रम में हम अपने आभासी मित्रों से रूबरू मिले, जिन आभासी ब्लॉगरों से मुलाकात हुई उनके संबंध में कुछ बातें आप सबसे साझा करता हूँ।

इस कार्यक्रम के दूसरे दिन सेलेब्रिटी लेखिका, विचारक, ब्लॉगर मनीषा पांडे के दर्शन हुए। हिन्दी में 'बेदखल की डायरी' ब्लॉग लिख रहीं मनीषा के ब्लॉग पोस्टों को हम हिन्दी ब्लॉग के आरंभिक दिनों से पढ़ते रहे हैं। स्पष्टवादिता से लिखी गई इनके पोस्टों में झलकते इनके व्यक्तित्व से हम प्रभावित थे। मानस नें इनके ब्लॉग में लगे मासूम फोटो से इनके बिंदास लेखन का पहचान सेट कर लिया था। बाद के वर्षों में फेसबुक मे लम्बे लम्बे वैचारिक पोस्टों और उस पर अविराम बहसों नें मनीषा पाण्डेय की दबंग छवि को आत्मसाध किया। इनके ब्लॉग पोस्टों एवं फेसबुक वालों पर हमने कभी कोई टिप्पणी की या नहीं याद नहीं, बस बहसों को पढ़ते रहे। वैसे भी तीखी वैचारिक बहसों में उथली मानसिकता के टिप्पणियों का कोई औचित्य भी नहीं था  इन कुछ वर्षों में इन्होंनें बहुतेरे मुद्दों पर बात की। खासकर स्त्री स्वतंत्रता पर इनकी बहसों नें स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की परिभाषा को बहुत विस्तार दिया जो नवउदार मासिकता के युवाओं एवं तकनीकि दक्ष परम्पराओं के पैरोकार, भूतपूर्व युवाओं के बीच विमर्श का महत्वपूर्ण दस्तावेज बनकर बार बार फेसबुक के नोटीफिकेशन में हाईलाईट हुआ। इन बहसों के अतिरिक्त इन्होंनें हमेशा अपने वाल पोस्टों में अनेक मान्य परम्पराओं पर चोट करते हुए अपनी बुलंद छवि एवं व्यक्तित्व को सार्वजनिक किया। इसमें इनकी, कथनी एवं करनी के दोगलेपन से दूर स्पष्टवादी छवि विकसित हुई। हम दूसरे दिन कार्यक्रम की समाप्ति के बाद वापस आ गए इस कारण व्यक्तिगत रूप से मनीषा पांडे से ज्यादा समय तक नहीं मिल सके। उपर लिखी गई पंक्तियॉं उनके संबंध में आभासी जगत के अनुभ से प्राप्त जानकारी मानी जावे।

यहॉं हिन्दी ब्लॉग के चर्चित व्यक्तित्व डॉ.अरविन्द मिश्र से भी मिलना हुआ। डॉक्टर साहब के ब्लॉग पोस्ट व इनकी धारदार टिप्पणियों से हमारे मन में इनकी विद्वत छवि पूर्व से ही अंकित थी। हमारे एक पोस्ट के संबंध में चर्चा करने के लिए इन्होंनें हमें फोन भी किया और इसके बाद संवाद स्थापित रहा। इनके बीच संवादों की कड़ी में प्रो.अली सैयद भी रहे जिनके कारण ही डाक्टर मिश्र से आत्मियता स्थापित हुई। इनसे वर्धा में मिलना मेरे लिए सुखकर था, मैं इनके समीप रहकर इनका स्नेह आर्शिवाद लेना चाहता था जो मुझे यहॉं प्राप्त हुआ। वर्धा में सभी नें इनके मिलनसार छवि का साक्षात्कार किया होगा, डॉ.अरविन्द मिश्र से कुलपति की आत्मीयता को देखकर खुशी हुई।

इनके साथ ही ब्लॉग जगत में मौज लेने वाले फुरसतिया ब्लॉगर अनूप शुक्ल से भी मुलाकात हुई। नारद के जमाने में हिन्दी ब्लॉगों में हमारी रूचि बढ़ाने वालों में से अनूप शुक्ल मुख्य रहे हैं। तब छत्तीसगढ़ में संजीत त्रिपाठी और स्वयं मैं ब्लॉग में लगभग नियमित थे और जय प्रकाश मानस जी अंतरालों में लिखते थे। इनकी टिप्पणियों से हमारा उत्साह वर्धन होता था और हम उत्साह में पोस्ट ठेलते थे। इसी बीच नारद विवाद के समय हमने आत्ममुग्धतावश एक पोस्ट लिख दी थी। उस पोस्ट पर उस समय के कम चिट्ठाकारों के बावजूद तीखी झड़पें हुई थी और उसके तत्काल बाद हमारे ब्लॉग को किसी नें फ्लैग कर दिया था। हम इस संकट से उबरने की विधि नहीं जानते थे, बड़ी मुश्किल से हमें अपने ब्लॉग पर पुन: लिखने का अधिकार प्राप्त हुआ। इस समय मुझे लगता था कि मेरे ब्लॉग में गड़बड़ संभवत: अनूप शुक्ल नें तकनीकि विशेषज्ञ जितेन्द्र चौधरी से करवाया है। संजीत त्रिपाठी के द्वारा स्पष्टीकरण देनें व परिस्थितियों को समझानें के बाद मन नें अनूप शुक्ल को क्लीन चिट दिया। इसके बाद के वर्षों में मठाधीशी विवादों में अनूप शुक्ल को मौज लेते हुए देखना अच्छा लगता था। वर्धा में इनसे मिलकर अच्छा लगा दोनों दिन इनका स्नेह मुझे मिला, वापसी में बड़ी गाड़ी में हम नागपुर तक साथ आए।

ब्लॉग की दुनिया के धुरंधर खिलाड़ी अविनाश वाचस्पति से मुलाकात करने की हमारी इच्छा बहुत दिनों से थी। दिल्ली के परिकल्पना सम्मान समारोह में मैं इनसे मिल नहीं पाया था। इनके सहज सरल शब्दों से लिखे गए ब्लॉग पोस्टों से आप सब परिचित ही हैं। हिन्दी ब्लॉगिंग के संबंध में व व्यंग्य पर इन्होंनें किताबें भी लिखी है और इनके व्यंग्य आलेख लगातार पत्र पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। जहॉं तक मैंनें इन्हें समझा ये भौतिक व आभासी दोनों प्रकार के सोशल नेटवर्किंग के माहिर खिलाड़ी हैं। वर्धा में हसमुख, मिलनसार सभीपर आत्मीयता बरसाते अन्ना उर्फ मुन्ना भाई नें बिना स्वयं के मुख में मुस्कुराहट बिखेरे अपनी बातों से सबको हर पल मुस्कुरानें को विवश किया। मेरे रूम पार्टनर डॉ.अशोक मिश्र से मैं पहली बार मिला था, इनके ब्लॉग से भी मैं परिचित नहीं था किन्तु मुझे इन्होंनें सहृदयता से कमरे में स्थान दिया और लगने ही नहीं दिया कि हम अपरिचित हैं। बातचीत में इनके ब्लॉग शोध, पत्रकारिता व अकादमिक अनुभवों से साक्षात्कार हुआ। सहज सरल व्यक्तित्व के धनी प्रियरंजन जी मुझे सचमुच में प्रिय लगे।वापसी में हम नागपुर तक इनके साथ रहे। नागपुर तक साथ चलने वालों में हर्षवर्धन त्रिपाठी भी थे, शुरूआती ब्लॉगिंग के समय से हर्षवर्धन जी का ब्लॉग पढ़ते रहा हूं और कई वर्षों से मैं इनके ब्लॉग का ई मेल सब्साक्राईबर हूं लगभग प्रत्येक दिन इनका ब्लॉग अपडेट मेल से प्राप्त होता है। सामयिक विषयों और समाचारों को विश्लेषित करने का इंनका अंदाज मुझे पसंद है। पहले दिन वर्धा पहुचते ही हर्षवर्धन जी नें ही मेरा गर्मजोशी से स्वागत किया और पहले सत्र को संचालित करते हुए एक सफल टीवी डिबैट संचालक के रूप में अपनी छवि प्रस्तुत की, इनके बात करने का अंदाज मुझे बहुत पसंद आया ।

इनके अतिरिक्त इस कार्यक्रम में जिन ब्लॉग मित्रों नें स्मृति में छाप छोड़ा उनमें मस्त मौला संतोष त्रिवेदी, कार्यक्रमों की व्यस्तता के बीच भी मुस्कुराते रहने वाले कर्तव्यपरायण सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, इनके साथ परछाई जैसी आयोजन में हाथ बटाती श्रीमती रचना त्रिपाठी, मुस्कुराहट बिखेरते रहेने वाले डॉ.घापसे, साहित्य रसी व सफल प्रकाशक शैलेष भारतवासी, देसज ज्ञान के धनी प्रखर पत्रकार संजीव सिन्हा, गंभीर कविताओं की पक्षधर संध्या शर्मा, खालिस देसी पत्रकार बमशंकर टुन गणेश राकेश सिंह, वरिष्ठ पत्रकार इष्ट देव सांस्कृत्यायन, अपने ब्लॉग पोस्टों की ही तरह चिंतक प्रवीण पाण्डेय, अर्थ काम वाले अनिल रघुराज, ब्लॉगिंग के आरंभिक दिनों के आभासी साथी डॉ.प्रवीण चोपड़ा, आदि ब्लॉगर आलोक कुमार व तकनीकि विशेषज्ञ विपुल जैन, स्नेहमयी वंदना अवस्थी दुबे, गंभीर आवाज में अपनी बातें करने वाले कार्तिकेय मिश्र लगता था कि इन्होंनें एक एक शब्दों को बोलने के पहले तोला हो), इन्हीं की तरह मुम्बई से पधारे डॉ.मनीष कुमार मिश्र की भी बातें लगती थी उनकी बातें सुनते हुए यह स्पष्ट हो जाता था कि ये हिन्दी के प्राध्यापक हैं। इनके अतिरिक्‍त विश्‍वविद्यालय के माननीय कुलपति का हिन्‍दी ब्‍लॉगों के प्रति रूचि व छात्र छात्राओं की सीखने की ललक सेहम अत्‍यंत प्रभावित हुए। इस दो दिन के कार्यक्रमकी स्‍मृतियॉं हमेशा बनी रहेगी, धन्यवाद सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी।

मेरे पीछे शोध छात्र जोशी
चलते चलते :- इस कार्यक्रम में ब्‍लॉगरों के अतिरिक्‍त महाविद्यालय के छात्र जोशी (नाम ध्यान नहीं आ रहा है) से भी हमारी मुलाकात हुई। जनसंचार में एम.फिल. के बाद शोध कर रहे जोशी छत्‍तीसगढ़ के एक गॉंव से हैं। चर्चा में उनकी उत्‍सुकता एवं समझ से हमें अपनी पीढ़ी पर गर्व महसूस हुआ। जोशी नें अभनपुर के आस पास के गॉंवों में प्रचलित एक प्रथा/परम्‍परा के संबंध में हमें बतलाया जिसके अनुसार छत्‍तीसगढ़ की एक जाति किसी भी गॉंव में किसी व्‍यक्ति के मृत्‍यु के बाद मृतक के घर जाता है और दान प्राप्‍त करता है। मृतक के परिजन दान देने के बाद घर को गोबर से लीप बुहार कर, सभी कपड़ों को धोकर, घर पवित्र करते हैं। बसदेवा को दान देनें के बाद ही घर को साफ किया जाता है एवं तभी घर पवित्र होता है ऐसी मान्‍यता है। जोशी का कहना था कि यह आश्‍चर्य का विषय है कि खानाबदोश जीवन जीने वाले बसदेवा को कैसे ज्ञात हो जाता है कि अमुख गॉंव में अमुख के घर में मृत्‍यु हुई है और वह आवश्‍यक रूप से वहॉं पहुच जाता है। जोशी नें हमें कहा कि इस पर शोध किया जाना चाहिए। हमने कहा कि हमें इस प्रथा के संबंध में ज्‍यादा जानकारी नहीं है, ललित शर्मा जी आपके गॉंव के निकट ही रहते हैं, उनसे चर्चा करते हैं और शोध की दिशा में भी सोंचते हैं।

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...