रविन्द्र गिन्नौरे : सहज सरल व्यक्तित्व

पिछले दिनो मेरी मुलाकात छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार रविन्द्र गिन्नौरे जी से हुई, मैं उनसे कभी मिला नहीं था। रविंद्र गिन्नोरे जी के नाम से मेरा आरंभिक परिचय दैनिक भास्कर के परिशिष्ट सबरंग के साहित्य संपादक के रूप में था। बाद में उनका नामोल्लेख साहित्यिक और पत्रकारिता मंचों में ससम्मान होते पढ़ते सुनते रहा हूॅं। मेरी सर्वोत्तम जानकारी के अनुसार रविंद्र गिन्नौरी जी छत्तीसगढ़ के एसे वरिष्ठ पत्रकार हैं जिंहोने छत्तीसगढ़ के बहुत सारे समाचार पत्रों मे बतौर संपादक कार्य किया है। छत्तीसगढ़ के सन्दर्भ लेखन में उनका बड़ा योगदान है और उनकी किताबें छत्तीसगढ़ को असल रूप में प्रतिबिंबित करती हैं। लेखन और पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी ग्लेमराइज्ड छवि मेरे जेहन में बसी थी। भाटापारा में जब सहज और बेहद सरल रविन्द्र गन्नौरे जी से मुलाकात हुई तो एकबारगी मुझे विश्वास नहीं हुआ। जब उन्होंने आत्मीयता से मुझे स्नेह दिया और अपने घर चलने का निमंत्रण दिया तो समय की कमी के बावजूद मैं उनके साथ उनके साथ हो लिया। उनके साथ बात करते हुए उनके संबंध में जो कुछ मैं जान सका वह उनके व्यक्तित्व का एक छोटा सा पहलू है, फिर भी मैं उसे मित्रों से बाटना चाहता हूं।

रविन्द्र जी का घर एक जीवंत पुस्तकालय है, दुर्लभ किताबों के साथ ही उनके पास सभी विधा के नये पुराने लेखकों की किताबें, साहित्य, कला, संस्कृति व सामयिक पत्रिकायें हैं। वे अपने घर आने वालों को हमेशा किताबें भेंट स्वरूप देते हैं। किताबों के बीच उनके द्वारा लिखे जा रहे अलग अलग विषयों के फाइलें भी ढेरों व्यवस्थित रखे हैं।

रविन्द्र जी नें लेखन का आरम्भ व्यंग्य कालम लेखन से किया फिर वे फीचर लेखन के साथ ही फ्रंट लाइन पत्रकारिता में आ गए। इस बीच उन्होंने पुरातत्व, साहित्य, इतिहास, नृतित्व शास्त्र, पर्यावरण और विज्ञान पर लगातार लेखन किया। बहुआयामी लेखन करते हुए वे वर्तमान मे पर्यावरण उर्जा टाइम्स के संपादक हैं एवं छत्तीसगढ की लोक कथाओं और छत्तीसगढ़ के शक्ति स्थलों पर किताब लिख रहें हैं।

इन किताबों के संबंध में चर्चा करते हुए रविन्द्र गिन्नोरे जी बताते हैं कि, उन्हें छत्तीसगढ के शक्ति स्थल के सम्बन्ध में खोज करते हुए अनेक रोचक और चौकाने वाले तथ्य मिले। पूजन पदधति एवं परंपरा, मान्यता और किवदंतियों के संकलन में कहीं एतिहसिक कड़ियाँ जुडी तो कहीं कपोल कल्पना नजर आयी। छत्तीसगढ़ के शक्ति स्थलों पर उनके द्वारा लिखी जा रही किताब पर जब मेरी चर्चा हुई तो उन्होंने विस्तत चर्चा की और कुछ विशेष खुलासे किए।

उन्होंने छत्तीसगढ़ मे एक योनी पीठ होने के सम्बन्ध में बताया, भग्नावस्था में उपलब्ध इस योनि प्रतिकृति का आकर लगभग 2 बाई 2 है। कल्पना कीजिये यदि यह मूर्ति अपने वास्तविक आकार में होती तो यह कितनी विशाल होती। आगे वे बस्तर की एक देवी मंदिर का उल्लेख करते हैं जो साल मे सिर्फ एक दिन ही खुलता है जहाँ पुत्र प्राप्ति के लिए कामना की जाती है। मान्यता है कि यहाँ के आशीर्वाद से महिलाओं की गोद अवश्य भरती है। लोक मान्यता पर विशेष बल देने के प्रश्न पर वे कहते हैं कि, लोक मान्यता तथ्यों की समीक्षा नहीं करती वो तो अपने आस पास के जीवन व वाचिक परम्परा का अनुसरण करती है। इसका उदाहरण देते हुए वे छत्तीसगढ़ मे प्रचलित बहादुर कलारिन का उल्लेख करते हैं कि बहादुर कलारिन की मूर्ति मूलतः अष्टभुजी दुर्गा की मूर्ति है। लोक मान्यता के आधार पर इसे बहादुर कलारिन के रुप मे पूजा जाता है।

बातों बातों में वे दंतेश्वरी माता और संत घासीदास के सम्बन्ध में एक लोक प्रचलित कथा का उल्लेख करते हैं। जिसमे माता दंतेश्वरी के मंदिर मेँ धर्म ध्वजा फहराते घूमते घासीदास जी को बलि के लिए पकड़ कर लाया गया। बलि के पूर्व जब संत घासीदास की ईश्वरीय शक्ति का भान माता दंतेश्वरी को हुआ तब दंतेश्वरी माता ने उनकी बलि स्वीकारने से मना कर दिया। बलि की पूरी तयारी हो चुकी थी, ऐसी स्थिति मेँ वहाँ विराजमान भैरव ने विरोध जताया। भैरव के विरोध पर दंतेश्वरी माता क्रोधित हो गई। भैरव फिर भी नहीँ माना तब दंतेश्वरी माता ने भैरव को लात मारा। भैरव दूर नदी के उस पार जा गिरा। इसी समय से भैरव नदी के उस पार स्थित है।

छत्तीसगढ़ के बस्तर व मैदानी इलाके के लगभग 160 शक्ति स्थलों पर स्वयं जाकर सामाग्री इकत्रित करने व उनका विश्लेषण करने का काम वे अब तक कर चुके हैं एवं यह क्रम निरंतर जारी है। रविन्द्र जी देश के अनेक प्रतिष्ठित साहित्य पुरस्कारों के जूरी मेम्बर भी हैं। पुरातत्व पर उनकी एक महत्वपूर्ण किताब बहुचर्चित हुई। पुरातत्व पर इनके कइ शोध पत्र देश विदेश के शोध पत्रों में प्रकाशित हुए हैं। पर्यावरण विषयों पर विभिन्न पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित हुए हैं, मुनिस्‍पल एण्‍ड हास्पीटल वेस्ट मैनेजमैंट पर उनकी एक अंग्रेजी में किताब आई है। इनकी लिखी एक किताब बाटनी पर कुछ महाविद्यालयों के पाठयक्रम में पढ़ाई जाती है। छत्तीसगढ़ के वनोपज एवं औषधीय वनस्पतियों पर भी उन्होंनें लेखन किया है। वर्तमान में वे जंगलों में रहने वाले पारम्परिक वैद व गुनियॉं लोगों से प्राप्त ज्ञान व वैज्ञानिक शोध के उपरांत स्वयं औषधीय वनस्पतियों के द्वारा विभिन्न बीमारियों का अचूक इलाज कर रहे हैं।

क्रमश:

संजीव तिवारी

परिभाषाओं के पुर्नमूल्‍यांकन का समय

छत्तीसगढ राज्य अपना स्थापना सप्ताह मना रहा है। राज्य की राजधानी, जिलों एवम जनपदों मेँ राज्य स्थापना का उल्लास, आयोजनोँ के रुप मेँ नजर आ रही है। ऐसे समय मे राज्य के आदि साहित्यकार पंडित सुंदरलाल शर्मा की स्मृति मे दिये जाने वाले सुंदरलाल सम्मान के संबंध मे एक शुभ सूचना प्राप्त हुई है।

इस वर्ष राज्य सरकार की और से दिया जाने वाला यह सम्मान छत्तीसगढ़ के जाने माने साहित्यकार श्री तेजिंदर गगन जी को दिया जायेगा। यह सम्मान उनके निरंतर साहित्य साधना एवं उनके प्रसिद्द उपन्यास काला पादरी को रेखांकित करते हुए दिया गया है। इस बात की खुशी है कि, सरकार ने तेजिंदर गगन जी के लेखन का सम्मान किया। यद्यपि साहित्य को सीमा विशेष मे बांधा नहीँ जाना चाहिए फिर भी इस सम्मान के पीछे जो उद्देश्य रहा है वह यह कि, सरकार चाहती है कि प्रति वर्ष छत्तीसगढ़ के एक साहित्यकार को सम्मानित किया जाए और उसे दो लाख रुपये का आर्थिक सहयोग भी प्रदान किया जाय।

साहित्य बिरादरी मेँ इस पुरस्कार के चयन के संबंध मेँ पिछले तीन दिनोँ से लगातार काना फूसी चल रही थी। सरकार के द्वारा साहित्य के क्षेत्र में प्रदेश का सरदार, तेजिंदर गगन जी को घोषित किया जा रहा था वहीँ साहित्यिक गलियों में हमारे कुछ वरिष्ठ उन्हें असरदार बता रहे थे।

स्थानीय साहित्यिक बिरादरी में तेजिंदर गगन के चयन पर कुछ दबे जुबान पर तो कुछ स्‍पष्‍ट तौर पर विरोध जता रहे हैं। उनकी अपनी दलीलें हैं जिसमें उनका मानना है कि, तेजिंदर गगन जी छत्तीसगढि़या नहीं हैं। उन्होंने अपना ज्यादातर जीवन छत्तीसगढ से बाहर व्यतीत किया, कभी छत्तीसगढ़ से जुड़े हों ऐसा साबित भी नहीं किया। वैचारिक रुप से समृद्ध माने जाने वाले कुछ साहित्यकारोँ के मुख से, तेजिंदर जी को गैर छत्तीसगढ़िया बताने के पीछे मूल कारण, छत्तीसगढि़या शब्द की निर्धारित परिभाषा है। वर्तमान समय मेँ इस परिभाषा को पुनर्व्याख्यायित करने की आवश्यकता है।

जब जब छत्तीसगढ़िया के रुप मेँ किसी को परिभाषित करने की स्थिति आती है तो इस पर पिछले कई सालों से लोगोँ के द्वारा आवाज उठाया जाता रहा है। इस पर ज्‍यादा विवाद में पड़े मैं समझता हूं कि, छत्तीसगढिया वे सभी हैं जो, छत्तीसगढ़ के निवासी हैं, छत्तीसगढ के हितों के लिए सोचते हैं और उनके दिलोँ मेँ छत्तीसगढ की धारा बहती है। .. और भी बातेँ हो सकती हे जो छत्तीसगढिया होने के आवश्यक शर्तों को सिद्ध करे।

यह सत्‍य है कि, इस पुरस्कार के मूल मेँ छत्तीसगढ आवश्यक है। किंतु हमारे जिन वरिष्‍ठ साथियों को यह लगता है कि, तेजिंदर जी छत्तीसगढिया नहीँ हैं, उनसे मेरा अनुरोध है कि, छत्तीसगढ़िया की परिभाषा का पुर्नमूल्‍यंकन करें। .. बहरहाल मौजा ही मौजा ...

तेजिंदर गगन जी को पंडित सुंदरलाल शर्मा सम्‍मान के लिए मेरी ओर से अनेकानेक शुभकामनाए। जय हिंद ! जय छत्तीसगढ !

संजीव तिवारी

रपट: जमुना प्रसाद कसार स्मृति व्याख्यान एवं पुस्तक विमोचन


दुर्ग के वरिष्ठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं यशश्वी साहित्यकार जमुना प्रसाद कसार एक चिंतक और मानस मर्मज्ञ विचारक थे। उन्होंनें अपने साहित्य में अपने आस पास के परिवेश को लिखा। राम काव्य के उन पहलुओं और पात्रों के संबंध में लिखा, जिसके संबंध में हमें पता तो था, किन्तु जिस तरह से उन्होंनें उनकी नई व्याख्या की उससे उन चरित्रों की गहराईयों से हमारा साक्षात्कार हुआ। किसी रचनाकार के संपूर्ण रचना प्रक्रिया का मूल्यांयकन करना है तो यह देखा जाना चाहिए कि उसने क्याा कहा है। किन्तु एक चिंतक और विचारक की रचनाओं का मूल्यांकन करना है तो यह देखा जाना चाहिए कि, उसने उसे कैसे कहा है। कैसे कहा है इसे जानने के लिए आपको उसे गहराई से पढ़ना होता है। कसार जी की रचनाओं को आप जितनी बार पढ़ते हैं उसमें से नित नये अर्थ का सृजन होता है। कसार जी की पुण्य तिथि 30 अक्टूाबर को दुर्ग में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। प्रस्तुत है उसकी रिपोर्टिंग - 


दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति के द्वारा आयोजित वरिष्ठ साहित्यकार एवम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जमुना प्रसाद कसार जी की पुण्य तिथि पर स्मृति व्याख्यान एवं पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम 30 अक्टूजबर को दुर्ग मे संपन्न हुआ। कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रुप मे वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर, अध्यक्ष के रूप में पूर्व चुनाव आयुक्त एवं साहित्यकार डॉ सुशील त्रिवेदी एवं मुख्य वक्ता के रुप मे वरिष्ठ कथाकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी उपस्थित थे। कार्यक्रम को संबोधित करते हुए मुख्य वक्ता परदेशीराम वर्मा ने जमुना प्रसाद कसार जी के अंतरंग जीवन यात्रा और रचना यात्रा का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया। उन्होंनें स्वतंत्रता संग्राम के समय से अपने जीवन के अंतिम काल तक निरंतर सृजनशील जमुना प्रसाद कसार जी की लेखन जिजीविषा एवं सामाजिक संघर्षों पर प्रमुख रुप से प्रकाश डाला। उन्होंनें कसार जी के स्वनतंत्रता आन्दोलन के काल में किए गए विरोध प्रदर्शनों और सजा का रोचक ढ़ग से उल्लेख किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत तत्कालीन कलेक्टर से अंग्रेजी साहित्य पढ़ने के लिए साग्रह सहायता मागने एवं उसे लौटाने के वाकये का भी उन्‍होंनें कथात्‍मक झंग से उल्लेख किया। 

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि रमेश नैयर नें शेरों के माध्यम से कसार जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को रेखांकित किया। अध्यक्षता कर रहे डॉ.सुशील त्रिवेदी ने जमुना प्रसाद कसार जी के जीवन संघर्षों एवं उनके भावी पीढ़ी को दिए गए संस्कारों की प्रसंशा की। जमुना प्रसाद कसार जी की धर्म पत्नी श्रीमती शकुन्‍तला कसार एवं पुत्र अरूण कसार नें जमुना प्रसाद जी के अंतिम दिनों को याद करते हुए रूंधे गले से हिन्‍दी साहित्‍य समिति एवं झॉंपी पत्रिका के साहित्य यात्रा को निरंतर रखने का आहवान किया। 

कार्यक्रम में कसार जी की दो किताबें 'आजादी के सिपाही' का द्वितीय संस्‍करण एवं झाँपी के पद्मश्री अंक का विमोचन हुआ। आजादी के सिपाही में दुर्ग जिले के 65 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की कहानियां है एवं झाँपी का अंक छत्तीसगढ़ के 17 पद्मश्री पर केन्द्रित है।

कार्यक्रम का संचालन रवि श्रीवास्तव एवं स्वागत भाषण दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति के अध्यक्ष डॉ संजय दानी ने दिया, आभार प्रदर्शन अरूण कसार नें किया। कार्यक्रम मे महावीर अग्रवाल, अशोक सिंघइ, मुकुंद कौशल, गुलबीर सिंह भाटिया, आचार्य महेश चंद्र शर्मा, रघुवीर अग्रवाल पथिक, डा.निर्वाण तिवारी, डी.एन.शर्मा, शरद कोकाश, प्रभा गुप्ता, नीता काम्बोज, प्रदीप वर्मा, डा.नौशाद सिद्धकी, संध्या श्रीवास्तव, तुंगभद्र राठौर, अजहर कुरैशी आदि दुर्ग भिलाई के वरिष्ठ साहित्यकार, चिंतक एवम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उपस्थित थे। 

मस्‍त प्रश्‍न, समय और फेसबुक

आज सुबह जब छत्तीसगढ़ी के यशश्वी युवा व्यंग्यकार पी के मस्त जी को अपने नामानुरूप टाई कसे सड़क पर देखा तो अचानक मेरी उगलियॉं मेरे दाढ़ी पर रेंग गई. लम्बे पके दाढ़ी के बाल उंगलियों को अहसास करा रहेथे कि हमारा पके और चूसे आम वाला चेहरा अब रेशेवाली गुठली जैसे नजर आ रही होगी. हमने उंगलियां वहॉं से हटाते हुए अहसास को दूर झटका और मस्त जी को आवाज दिया. 

हम दोनों की बाईक समानांतर रूकी, मैंनें पूछा "यार आज टाई में बहुत खुबसूरत लग रहो हो!" मस्त जी नें सकुचाते हुए बतलाया कि उन्होंने पर्सनालिटी डेवलपमेंट का कोर्स ज्वाईन कर लिया है और वे वहीं जा रहे हैं, उन्होंने यह भी बतलाया कि वे वहॉं से पाये ज्ञान एवं अनुभवों से प्रत्येक शुक्रवार स्लम एरिया के युवाओं को पर्सनालिटी डेवलपमेंट का ज्ञान बांटते हैं. छत्तीसगढ़ी साहित्यकार का सुदर्शन रूप और उस पर लोगों को पर्सनालिटी डेवलपमेंट का ज्ञान बांटनें की बात पर मुझे बेहद खुशी हुई. क्या मेरी पर्सनालिटी भी डवलप हो सकती है? प्रश्न नें समय को अपने आगोश में ले लिया. चुप्पी के विस्तार के बीच मस्त जी नें चितपरिचित मुस्कान बिखेरा, किक लगाया और चले गए. 

मैं अपने आप को आम आदमी का प्रतिरूप मानते, दाढ़ी पर उंगलियॉं फेरेते हुए वहीं जमा रहा. अभी दो दिन पहले ही तो मेरी ऐसी सूरती चित्र फेसबुक में अपलोड हुआ था और जमकर लाईक व कमेंट आये थे. मेरी रचनायें, कवितायें वैश्विक स्‍तर पर पढ़ी जा रही हैं, सराही जा रही हैं. अब मुझे पहचान की कोई आवश्‍यकता ही नहीं है, मेरी पर्सनालिटी डवलपमेंट तो सोसल मीडिया ने कर ही दिया है फिर किसी कोर्स को ज्योइन कर समय और पैसे खर्च करने की क्या आवश्यकता? 

प्रश्‍न उठ रहे थे जो मुझे पहली कक्षा से परेशान कर रहे हैं, परीक्षा हाल में नये छपे पन्‍नों में बिखरे प्रश्‍न को देखते ही माथे में और हाथों में पसीना फूट पड़ता था. हर साल सरजी परीक्षा में अटपटे प्रश्‍न ही छांटते थे ताकि मैं, साल भर मेहनत करने के बावजूद, उन्‍हें हल ना कर सकूं. जैसे तैसे असंतुष्टि के साथ उत्‍तर देने के बाद जब पास होता तो रिजल्‍ट देखकर लगता कि उन प्रश्‍नों का उत्‍तर मुझे पता था. सालों साल यही होता रहा, परीक्षा के प्रश्‍नों के साथ ही जीवन के अचानक मुह बाए आ खड़े होने वाले प्रश्‍नों नें कभी मेरा पीछा नहीं छोड़ा. अब तो आदत हो गई है, बेफिक्री से उत्‍तर देता हूं किन्‍तु ये अशांत तो करते ही हैं. जिस दिन प्रश्नों से पीछा छूटेगा उसी दिन अनंत शांति मिलेगी. ब्‍लॉं ब्‍लॉं ब्‍लॉं .. दर्शन झाड़ने के लिए ही सहीं मन में समय नें विस्‍तार ले लिया था.

मोबाईल की घंटी बजने लगी थी, फेसबुक की यादों को बीच में बंद कर हमने "हलो!" कहा. दूसरी ओर हमारी पत्नी नें भी "हलो!" कहा. संक्षिप्त बातें हुई और विस्तारित समय सिमट कर जेब में समा गया. आज रात को ## हजार रुपए के साथ घर पहुंचना है, यह वाक्य प्रश्न नहीं था पर व्याकुल करने में समर्थ था. ओह, ये छुपा हुआ प्रश्‍न था. ये तो और खतरनाक है, छुपा हुआ प्रश्‍न. आठ घंटे में ## हजार की व्‍यवस्‍था कैसे होगी? मुझे लग रहा था कि इस शब्‍दांश में कोई अलंकार है, प्रश्‍न दिख भले नहीं रहा है. रात को नेट में, ओपन बुक में खोजूंगा, इसी बहाने एकाध कविता फेसबुक में ठोकनें लायक बन जायेगी. फेसबुक की यादों नें ## हजार के प्रश्‍न के भारीपन को हल्‍का फुल्‍का कर दिया. पी के मस्त जी की मस्‍त रचनायें, उनका डवलप्ड पर्सनालिटी, मेरे दाढ़ी के बालों में कहीं अटकी रही. उंगलियाँ बार बार उसे महसूस करती रही. हमने भी बुलेटिया किक अपने खट खटिया फटफटी को मारा और आगे बढ़ गए. पीछे धूल और धुवाँ देर तक उड़ता रहा. 
(यूं ही, लेखन के लिए वार्मअप होते हुए)

©तमंचा रायपुरी

पंडवानी की शैली : छत्तीसगढिया संगी जानें

समीर शुक्ल के द्वारा पंडवानी (Pandwani) के आदि पुरुष झाडूराम देवांगन के भांजे से लिया गया साक्षात्कार, आज छत्तीसगढी भाषा की सांस्कृतिक पत्रिका "मोर भूइयाँ" मेँ प्रसारित किया गया। समीर भाई नें पंडवानी की शैली के संबंध मेँ ज्वलंत प्रश्न किया। जिसका उत्तर भी चेतन देवांगन नें बहुत ही स्पष्ट रुप से दिया। मैंने बहुत पहले अपने ब्लॉग "आरंभ" मेँ पंडवानी की कपालिक व वेदमति शैली के संबंध मेँ एवं पंडवानी के नायकों के संबंध में दो पोस्ट प्रकाशित किया था। मैंने पंडवानी पर पीएचडी करने वाले डॉ बलदेव प्रसाद निर्मलकर से, उनके गाइड डॉ विनय कुमार पाठक के सामने भी ये प्रश्न रखा था। समय समय पर कई पंडवानी कलाकारोँ, विद्वानोँ और लोक अध्येताओं से इस संबंध मेँ विमर्श किया है।

आज के प्रसारण मेँ चेतन देवांगन के द्वारा इस पर दिया गया जबाब स्वागतेय है। उन्होंने स्पष्ट किया कि, वैदिक ग्रंथों के आधार पर गाए जाने वाली पंडवानी गायन की शैली, वेदमती है। और वैदिक पात्रों की कथाओं पर लोक कल्पनाओं व लोक मिथ के आधार पर गए जाने वाली, पंडवानी की गायन शैली, कापालिक है। उसने कुछ प्रसिद्ध कथाओं का जिक्र भी किया, जिसमे वध की कथाएँ थी। जिसमे समयानुसार लोक लुभावन प्रस्तुति और लोक मिथक स्वमेव समाहित हो गए।

छत्तीसगढ़ी संस्कृति पर भारत भवनीय दृष्टी नें इसे बेवजह स्थापित किया। क्योंकि तथाकथित आदि विद्वानों के द्वारा यही चस्मा उन्हें पहनाया गया। कथा के आधार वर्गीकरण को प्रदर्शन के आधार पर वर्गीकृत कर दिया, और मज़े की बात यह कि, पूरी जोर अजमाइस यह रही कि, अधूरी परिभाषा ही पंडवानी की शैली के रूप में स्थापित हो जाए।

मेरा शुरू से मानना है कि, मात्र बैठे और खडे होने से पंडवानी की शैली को परिभाषित ना किया जाए।

- संजीव तिवारी

वर्जित विषय : सांस्कृतिक उत्थान का प्रतीक है कण्डोम

जगतजननी माँ जगदम्बा की नवराती में भब्य पंडाल सजे हैं। बड़े होटलों, फाइव स्टार धर्मशालाओं और इंद्र की नगरी की भांति सर्व सुविधासंपन्न आश्रमों में रास गरबा करते खाए अघाए लोग नाच रहे हैं। गीतगोविन्दम के कृष्ण, राधा और गोपियाँ आस्था और भक्ति का संदेस देते जीवंत हो गए हैं।
ऐसे भक्तिमय समय में असंगत एवं असार्वजनिक बात सुना। कल जब शहर के पॉश कहे जाने वाले कालोनी में स्थित एक दवाई दुकान के मालिक ने बताया तो आश्चर्य हुआ।
"इन नौ दिनों में गर्भनिरोधक की बिक्री का आकड़ा सर्वाधिक होता है। साल भर में जितने पैकेट की बिक्री होती है उतनी ही इन नौ दिनों में बिक जाती है।"
@तमंचा रायपुरी

इसे फेसबुक पर प्रकाशित करने पर अधिकतम मित्रों नें स्वीकार किया किया कि इसमें सौ प्रतिशत सत्यता है. कमेंट इस प्रकार हैं —

Ashok Sharma - हां, ये दुखद सच है।
सूर्यकांत गुप्ता - तोर पोस्ट ल पढ़त हौं अऊ "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान. कितना बदल गया इंसान" वाले गाना रेडियो म सुनत हौं.....
रमेश चौहान - गंभीर, किन्तु कटु सत्य ये वासना के पुजारी की माया है
Swadha Sharma - आपकी इस पोस्ट से प्रेरणा मिली कि,, महूँ कुछ चेपव facebook माँ.
Anubhav Sharma - देशी वेलेंटाईन डे...की तरह गरबा रास...मुडिया पर्व ककसार की तरह....नैतिक रूप से इसके स्वरुप में नही जाऊंगा ...पर युवा पीढ़ी ने अपने लिए ये स्पेस निकाला है...
Kewal Krishna - स्वाभाविक है
Santosh Kumar — ये कड़वा सच है...
Pushpa Dubey — संजीव भैया जी लगता है अब भक्ति भी फ़ेसन ( दिखावा ) बन गयी है... असमाजिक तत्व भक्ति के आड़ में कुछ भी कर रहे हैं । ये वर्जित विषय नहीं है भैय्या जी आज के युग का ज्वलंत मुद्दा है ये...
नवीन तिवारी अमर्यादित तिवारी — <, आधुनिकता का पर्याय >>> <, अंधानुकरण , पर आपैं को सामाजिक सांस्कृतिक बताना ,, <, इसके आध में व्यभिचारी की छूट पाना ,, फिर सुरक्षा के आगे ,, ये सब जरुरी है
याज्ञवल्क्य वशिष्ठ — सहमत
Sanjeev Sahu — शत प्रतिशत सत्य बात है
Cap. Naveen Sahu — Kai po che फिल्म में भी....
Kaushal Mishra — ये कैसा भक्ति संदेश..... ??? बस पंडाल के बाहर दवा विक्रेता के स्टॉल की कमी रह गई है ... ये दिन भी दूर नहीं...
Lalchand Vaishnav — गरबा जिहाद वाले मन ये तफर ध्यान कैसे नि दये
Manoj Kumar — सत्य है 
Nishant Mishra — सच है ये बात. इस सीजन में गायनकोलॉजिस्ट भी बहुत व्यस्त हो जाती हैं.
Gyan Dutt Pandey सांस्कृतिक उत्थान का प्रतीक है कण्डोम।
Satyapriya Tiwari — गाँव गवई म दुकान नई रहय त ये सब बात पता नई चलय। फेर बिगड़े ब शहर आउ गाँव दुनो जघा के युवा पिढी मन बिगड़ गे हे। 
Kamlesh Verma — संजीव भाई गुजरात में शारदीय नवरात्री के समे मा गर्भनिरोधक के सर्वाधिक बिक्री के बात तो चार -पञ्च साल पहिली ले सुने हाबन,अब तो जादा लाहो लेवत होही.
Vivek Sao — कहीं पढ़ा था की गुजरात में सबसे ज्यादा एबॉर्शन इनही महीनों में होता है...
Pankaj Oudhia — http://www.dnaindia.com/.../report-as-garba-season... As garba season sizzles, condom sales hot up | -
According to an Ahmedabad-based psychiatrist, Dr. Mrugesh Vaishnav, young people enjoy a degree of personal freedom during Navaratri that is rarely granted to them at other times. The slackening of parental rules and supervision allows some of the youth to explore intimacy with the opposite sex. “Young people are excited by the festive mood and as a result, moral barriers are broken,” Vaishnav said. “It can also be viewed as an act of defiance against social norms.”
Amid the raging twirl of hormones, which is viewed with disdain in many quarters, there lies some reassuring news: boys and girls revelling in unmonitored liberty are at least aware of the risks, especially Aids.DNAINDIA.COM 
Sanjeet Tripathi — bhai sahab, yah bat mai 2004 me jab nav bharat me tha tab hi apne lekh me ullekhit kar chuka hun......

गीतों की बस्ती बसाने वाले गीतकार : बसंत देशमुख

छत्तीसगढ़ के कवि एवं गज़लकार बसंत देशमुख व्यवहार और रचनाओं में सरल व सरस कवि थे. उन्होंनें हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी में समान रूप से लेखन कार्य किया. उनकी हिन्दी रचनायें देशभर में सराही जाती रही है, काव्यमंचों पर उनके गज़लों के काफी दीवाने थे. छंदबद्ध रचनाओं के हिमायती बसंत जी नें छत्तीसगढ़ी में गज़ल संग्रह भी निकाला. अपने काव्य संकलन 'मुखरित मौन' में उन्होंनें लिखा हैं 'मैंने साहित्य कि दुरूहता से परे हटकर आज के आम आदमी कि घुटन एवं पीड़ा को सरल शब्दों में अभिव्यक्त करने की कोशिश की है.' यह सच है कि बसंत देशमुख की भाषा सहज और सरल थी जिसके कारण उनकी कवितायें सहजता से अभिव्यक्ति होती थी.

छत्तीसगढ़ की कला परम्पराओं एवं संस्कृति की धारा उनके हृदय में निरंतर बहती थी. नए बने प्रदेश छत्तीसगढ़ के विकास और छत्तीसगढ़ियों की खुशहाली के लिए वे हमेशा चिंतित रहते थे. सहजता उनका जीवन था, किन्तु सरलता के साथ ही विद्रूपों पर प्रहार करने के लिए उनकी लौह दृढता समय समय पर जागृत भी हो जाती थी. उन्होंनें इसे कविता में लिखा भी —

छत्तीसगढ़ के चावल से बना पोहा हूँ
कबीर की साखी हूँ तुलसी का दोहा हूँ
सीधा हूँ सरल हूँ पानी जैसा तरल हूँ
आग से पिघला हुआ भिलाई का लोहा हूँ

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में स्थित छोटे से ग्राम टिकरी में 11 जनवरी 1942 को बसंत पंचमी के दिन जन्में बसंत देशमुख जी विज्ञान स्नातक थे. पढ़ाई के बाद वे भिलाई इस्पात सयंत्र के सेवा से जुड़ गए. वहां वे निरंतर प्रगति करते हुए अनुसन्धान एवं नियंत्रण प्रयोगशाला से वरिष्ठ प्रबंधक के पद से सेवानिवृत हुए. सेवानिवृति के पश्चात् पूर्णरूपेण साहित्य सेवा में जुटे रहे.

बसंत देशमुख के साहित्य साधना में काव्य संग्रह मुखरित मौन, गीतों की बस्ती कंहाँ पर बसायें, सनद रहे, ग़ज़ल संग्रह धुप का पता, मुक्तक संग्रह लिखना हाल मालूम हो, छत्तीसगढ़ी ग़ज़ल संग्रह अलवा जलवा आदि प्रकाशित हुए. इसके अतिरिक्त सैकड़ों काव्य रचनायें पत्र—पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए, रेडियो टेलीवीजन पर प्रसारित हुए. मनोज प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित गजल संग्रह 'गज़लें हिंदुस्थानी' में इनकी ग़जलें समाहित की गई. वाणी प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित गजल संग्रह 'गज़लें दुष्यंत के बाद' में भी देशमुख जी की ग़जलें समाहित की गई. इनकी कवितायें बंगला भाषा में अनुदित भी हुई एवं 'अदल बदल' मासिक कोलकाता के अंकों में प्रकाशित हुई.

इंटरनेट में भी बसंत देशमुख की कवितायें संकलित है, काव्य संग्रह मुखरित मौन ब्लॉगर प्लेटफार्म में यहां  है. कविता कोश, हिन्दी समय एवं हिन्दी काव्य संकलन में भी इनकी कवितायें संकलित है.

लगातार सृजनशील एवं साहित्य के गतिविधियों में लगातार सक्रिय रहने वाले, गीतों की बस्ती बसाने वाले गीतकार बसंत देशमुख जी यद्यपि 12.05.2013 को हमें असमय ही छोड़ कर चले गए किन्तु कवितायें आज भी जीवंत हैं—

जिनके माथे पर पसीना है, आँखों में पानी है
जिन्दगी जिनकी कविता है , मौत एक कहानी है।

संजीव तिवारी

अब के कवि खद्योत सम जंह -तंह करत प्रकाश

विनोद साव जी नें अपने फेसबुक वाल में लिखा —

गोष्ठी, लोकार्पण और पुरस्कार अब वस्तुतः हिंदी साहित्य में छठ, तीज और गया में पिंड-तर्पण जैसे त्यौहार होकर रह गए हैं. पुरस्कार इतने दिए जा रहे हैं कि लगता है आज हिंदी साहित्य में प्रतिभाओं का आकस्मिक विस्फोट हो गया है.


हमने वहॉं लिखा —
यह सौ फीसदी सत्य है कि गोष्ठी, लोकार्पण और पुरस्कार अब हिन्दी साहित्य में मात्र परम्परा निर्वाह के खेल हो गए है. पुरस्कार की माया बड़ी है, जब तक दरवाजें में दस्तक ना दे, छोटी लगती है. अभी के समय में देने वाले जामवंतों की भी बाढ आई है, हनुमान से आशीष पाने के लिए यह सबसे अच्छा माध्यम है.

लोकार्पण, समीक्षा गोष्ठी तो सदियों से पूर्वनिर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आयोजित किए जाते रहे हैं. अब पूर्वाग्रह से प्रेरित लोग युग सत्य को कायम रखने, फोन पर गोष्ठी की दिशा बदलने चीत करते हैं. मुक्त संचार साधनों के माध्यम से प्रतिभाओं के आकस्मिक विष्फोट हुआ है जिससे लोकार्पण के आयोजनों की बाढ़ आ गई है. इनमें से अधिकांश प्रतिभायें पारंपरिक मठों से दीक्षित नहीं होते. इसी कारण इनके अंगूठे को दान में प्राप्त कर लेने की चेष्टा बार बार इनके संपर्क में आने वाला हर द्रोण करता है. इनमें से कुछ द्रोणों को धता बताते हुए कृतियों का संधान करते हैं. देखते ही देखते 'राजीव रंजन प्रसाद' जैसे अदना भूमिपुत्र के उपन्यास का एक साल में ही चार चार संस्करण निकल जाते हैं. .. और हम हमारे प्रदेश के होने के बावजूद हम उसे नहीं जानते. गोष्ठी होगी तभी तो जानेंगें ना.

समय के साथ ही, 'हिन्दी साहित्य' की परिभाषा भी बदली है. लोग पतनशील साहित्य तक लिख रहे हैं किन्तु साहित्य का पुछल्ला पतनशील का पीछा नहीं छोड़ रही है. साहित्य की विडंबना देखिए कि आदरणीय पतिराम जी साव जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों के द्वारा सिंचित, दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति जो 1928 से अस्तित्व में है, का मैं सचिव मनोनीत कर लिया जाता हूॅं. मैं, जिसे साहित्य का क ख ग भी मालूम नहीं. तथाकथित साहित्यकार चुनाव के भेड चाल में हाथ उठा लेने के बाद, अब एक दूसरे को फोन कर कर के पूछते हैं कि 'संजीव तिवारी' का साहित्य में क्या अवदान है. तो भईया, मेरे जैसे लोग बिना हींग फिटकरी के सबसे पहले चाहेंगें दो दो लाईन की तुकबंदी बनायें, डायरी में नोट करे और शीध्रातिशीध्र समिति की गोष्ठी आयोजित करे, गोष्ठी में कविता पाठ जरूर हो. इन्हीं स्थितियों से गोष्ठियों का यज्ञ मंडप अपवित्र होना आरंभ हुआ है.

इस पहलू के दूसरी तरफ, इंटरनेट में गोष्ठियों के लोकतंत्र नें कई प्रतिभाओं को सामने लाया जिसमें से एक गिरिराज भंडारी जी भी हैं जिन्होंनें पिछले दिनों एक आयोजन में साठ साल की उम्र में पहली बार माईक में, सार्वजनिक रूप से अपनी कविता पढ़ी. आप उनकी रचनायें उनके फेसबुक वाल में पढ़ सकते हैं. हमें उनकी रचनाओं के संबंध में कोई मगलाचरण पढ़ने की भी आवश्यकता नहीं है. चित्र में नजर आ रहे भाई अरूण कुमार निगम जी, छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ जनकवि कोदुराम दलित जी के सुपुत्र हैं, गीत लिखते हैं. इन्होंनें इंटरनेट में नव कवियों के ठिकानों जैसे ओपन बुक व अन्य पोर्टलों में नव लेखन को लगातार प्रोत्साहित किया है. इन्होंनें छंद मुक्त लेखन के दौर में गीत और गीतिका को ना केवल प्रोत्साहन दिया है, बल्कि प्रशिक्षण भी दे रहे हैं.

यह सहीं है कि, इंटरनेट का लोकतंत्र पारंपरिक हिन्दी साहित्य के पत्र—पत्रिकाओं के तिलस्म को भी तोड़ देगा. उसके बाद इन पत्रिकाओं के फ्रेम में मुस्कुराते चेहरे भी बदलेंगें. किन्तु इंटरनेट के चटर पटर के बरस्क लेखन का कोई तोड़ नहीं होगा. कहानी लिखने के लिए आपको कहानी ही लिखना होगा और कविता के लिए कविता. कोई धाल मेल नहीं. पुरस्कारों के बावजूद, चुटकुले दीर्घजीवी नहीं होंगें और विनोद कुमार शुक्ल बिना पुरस्कारों के भी साहित्य में जीवंत रहेंगें.

डिस्कलेमर :— इस टिप्पणी को हल्के फुल्के से लें, दरअसल साहित्य की चर्चा कर साहित्यकार के खेमें में अपना नाम लिखाने का प्रयास कर रहा हूं.

छत्तीसगढ़ का सोशल मीडिया, दायित्व और चुनौती

पारंपरिक संचार के जो साधन है उससे हट कर गैर पारंपरिक संचार का जो साधन वर्तमान समाज में सहज सरल रूप से उपलब्ध है वही सोशल मीडिया है. जिसे हम ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स अप आदि के नाम से पहचानते हैं. मीडिया के इसी माध्यम को हम सामान्यतया नागरिक मीडिया सिटिजन जर्नलिज्म भी कहते हैं. विकासशील समाज में आज सूचना की आवश्यकता सब को है, कल तक हमें सूचनायें पारंपरिक मीडिया जैसे समाचार पत्र, रेडियो और टीवी के माध्यम से प्राप्त होती थी. इन पारंपरिक माध्यमों के सामने चुनौती इनके संचालन के लिए भारी भरकम बजट की व्यवस्था रही है, धीरे धीरे इसके संचालकों में मीडिया से लाभ कमाने की प्रवृत्ति बढ़ती गई. जिसके कारण मुखर पत्रकारों पर संपादक का अंकुश और संपादकों पर विज्ञापन विभाग का अंकुश गहराता गया. सूचनायें प्रभावित होने लगी और लोकतंत्र के तथाकथित चौथे स्तंभ की निष्पक्षता संदिग्ध होती रही. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्वतंत्र भारत में भी अकुलाती, छटपटाती रही. सोशल मीडिया इसी अकुलाहट का परिणाम है. इसी कारण इसका तेजी से विकास हुआ, देखते ही देखते इसने मीडिया की परिभाषा बदल दी. पहले गिने चुनें उंगलियों में गिने जा सकने वाले पत्रकार होते थे आज आप सब पत्रकार हैं.

पूरी दुनिया में बदलाव की बयार लाती इस सोशल मीडिया पर चर्चा करने के पहले हमें प्रदेश के सोशल मीडिया के आरंभिक समय के संबंध में चर्चा कर लेना भी वर्तमान समय में आवश्यक है. हम इंटरनेट विश्व में सोशल मीडिया के विकास का क्रम क्या रहा इसके संबंध में बिना कुछ कहे हम छत्तीसगढ़ के सोशल मीडिया पर चर्चा करना चाह रहे हैं. आरंभिक समय में छत्तीसगढ़ में सोशल मीडिया का आगाज तीन दिशा से या कहें तीन माध्यमों से हुआ, याहू ग्रुप, आरकुट और ब्लॉग. यह समय इंटरनेट के सीमित प्रयोक्ताओं का समय था किन्तु इस समय में समाज के एलीट कहे जाने वाले लोग, मीडियाकर्मी, प्रशासनिक उच्चाधिकारी आदि इसमें सक्रिय रहे. प्रायः सभी के ई मेल का माध्यम याहू रहा और याहू नें जब अपने सदस्यों के बीच समूह वार्ता का विकल्प आरंभ किया तब सीजीनेट नें एक ग्रुप बनाया और छत्तीसगढ़ से संबंधित मसलों पर सदस्यों के बीच विमर्श का प्लेटफार्म तैयार किया. इस ग्रुप के माध्यम से जमीनी सूचनायें भी बाहर आने लगी, गंभीर विमर्श के दौर का आरंभ हुआ. छत्तीसगढ़ में यह नागरिक मीडिया का आगाज था. सुभ्राशु चौधरी नें इसी समय में बस्तर के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में यात्रायें की और उनके रपट दैनिक छत्तीसगढ़ में प्रकाशित हुए जिस पर इस ग्रुप में भी बहसें हुई. इस पर विस्तार से फिर कभी.

धीरे धीरे याहू ग्रुप में छत्तीसगढ़ से संबंधित या छत्तीसगढ़ के लोगों के द्वारा समूह बनाये गए एवं समूह चर्चा होने लगी, अभिव्यक्ति मुखर होने लगी. किन्तु याहू ग्रुप की सीमाओं के कारण लोगों को लगने लगा कि चर्चा और सूचनायें समूह सदस्यों तक ही सीमित हैं उसका विस्तार नहीं हो पा रहा है. ऐसे समय में गूगल का सोशल नेटवर्किंग साईट आरकुट अपने चरम पर था. रायपुर से अमित जोगी एवं पत्रकार संजीत त्रिपाठी जैसे लोग यहॉं सक्रिय थे. लोगों को जब लगने लगा कि हम सूचनायें एवं अभिव्यक्ति यहां सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत कर सकते हैं तो आरकुट के वाल एवं ग्रुपों में सूचनायें एवं अभिव्यक्ति प्रस्तुत होने लगी. आरकुट नें सोशल मीडिया के लोकतंत्र को बढ़ावा दिया, आम खास सब यहां आ गए. जमीनी सूचनायें यहां आने लगी, खासकर बस्तर के गांवों से, कस्बों से हकीकत सामने आने लगी.

शब्दों और प्रस्तुतिकरण की सीमायें जब आरकुट में नजर आने लगी तो तीसरा प्रवाह अपने चरम पर समानांतर बहने लगा. यह था ब्लॉग, छत्तीसगढ़ के चर्चित ब्‍लॉगों में अमित जोगी का अंग्रेजी ब्लॉग था. बाद में जय प्रकाश मानस नें हिन्दी ब्‍लॉगों का अलख जगाया. संजीत त्रिपाठी एवं बी.एस.पाबला हिन्दी ब्‍लॉगों में सक्रिय हुए. इसी समय में मैंनें भी हिन्दी ब्लॉग आरंभ को आरंभ किया. यह वह समय था जब पूरे विश्व में हिन्दी ब्‍लॉगों की संख्या कुछ सैकड़ों की थी जिसमें से सक्रिय ब्लॉगरों में हम कुछ लोग छत्तीसगढ़ के भी थे. जिनकी बातें अब दूर दूर तक एवं प्रभावी रूप से पहुच रही थी. परम स्वतंत्र अभिव्यक्ति के माध्यम इन हिन्दी ब्‍लॉगों की लोकप्रियता नें बाद के समय में छत्तीसगढ़ के अनेक बुद्धिजीवी, साहित्यकार एवं पत्रकारों को अपने पास बुलाया जिसमें से अनिल पुसदकर जी, गिरीश पंकज जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार भी थे और ललित शर्मा जी जैसे यायावर भी. जिन्होंनें छत्तीसगढ़ को ब्लॉगरगढ़ का नाम दिलाया.

इसी समय छत्तीसगढ़ के सोसल मीडिया में उल्लेखनीय कार्य हुए. तत्कालीन परिस्थितियां में छत्तीसगढ़ में लगातार नक्सल हिंसा का दौर चल रहा था और सरकार इससे निपटने के लिए लगातार दबाव बना रही थी. दिल्ली में और विदेशों में बैठे पारंपरिक मीडिया के लोग छत्तीसगढ़ सरकार की जमकर आलोचना कर रहे थे. साथ साथ छत्तीसगढ़ के पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और सोशल मीडिया में सक्रिय लोगों पर सरकार के पिछलग्गु होने का आरोप लगा रहे थे. इसी समय में आक्रामक रूप से लगातार तथ्यों के साथ पोस्ट पर पोस्ट लिखते हुए अनिल पुसदकर, कमल शुक्ला, राजीव रंजन प्रसाद, संजीत त्रिपाठी, रमेश शर्मा आदि नें छद्म प्रचार को रोका और हालात को स्पष्टत किया. क्योंकि हम यहां के हालात से वाकिफ थे इसलिए हम लोगों नें भी वही लिखा जो सहीं था. मैं यह नहीं जानता कि इस मसले पर छत्तीसगढ़ के ब्लॉतगों का क्या असर हुआ किन्तु एसी कमरों में बैठकर बस्तर पर रिपोर्टिं करने वालों के जड़ों पर प्रहार अवश्य हुआ.

आज का समय फेसबुक ट्विटर और व्हाट्स एप का है. इसके शोर नें कंगूरों को भुला दिया है. वह भी एक समय था जब सीजीनेट के इसी तरह के मिलन कार्यक्रमों में लोग अमरीका से भी दौड़े चले आते थे. देश में धारा 66 ए, साईबर एक्ट के तहत पहली शिकायत यहां के ब्लॉग बिगुल को आधार मानते हुए दर्ज की गई उसके बाद दूसरे हिस्सों पर दर्ज हुई और हल्ला हुआ मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुचा.

IRIS व ज्ञान फाउंडेशन नें पिछले लोकसभा चुनाव में बताया था कि देश के 543 लोकसभा सीटों में से 160 सीटों को सोशल मीडिया प्रभावित करेगी. राज्यों के लोकसभा सीटों के संबंध में शोध सर्वेक्षण का खुलाशा करते हुए संस्था नें कहा था कि छत्तीसगढ़ में भी सोशल मीडिया चार सीटों के नतीजों को प्रभावित करेगी. यह आप सबके ताकत का प्रमाण है, कौन कौन से सीट प्रभावित हुए इसकी जानकारी नहीं मिल पाई किन्तु इतना तो सिद्ध हुआ कि छत्तीसगढ़ के सोशल मीडिया में दम है.

छत्तीसगढ़ के सोशल मीडिया में सक्रिय संगवारी ग्रुप के द्वारा पिछले वर्षों से लगातार उल्लेखनीय कार्य किया जा रहा है. ग्रुप के सदस्य प्रदेश की समस्या, अस्मिता, साहित्य, कला और संस्कृति पर चर्चा कर रहे हैं. जिससे जागरूकता पैदा हो रही है और मुद्दे किसी ना किसी माध्यम से सरकार के कानों तक पहुच रही है. सोशल मीडिया की वैचारिक प्रतिबद्धता का उदाहरण देखिये कि नक्सल fहंसा के विरोध स्वरूप संगवारी के मित्र नक्सल गढ़ में दण्डकारण्ड पद यात्रा आयोजित करते हैं और देश की पारंपरिक मीडिया इनके साहस के किस्से छापती है. इसी तरह अन्य कई उदाहरण है जो सोशल मीडिया के प्रभाव से उठाए गए और बदलाव आया. अहफाज रशीद भाई अपने फेसबुक स्टेट्स के बलबूते पर शेख हुसैन जी के बीमारी के समय संस्कृति मंत्री को उनके बिस्तर तक ले आते हैं. नवीन तिवारी भाई के फेसबुक स्टेट्स से स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों की ड्यूटी शेड्यूल बदल दी जाती है. डॉ.शिवाकांत बाजपेई के डमरू उत्खनन के खुदाई में प्राप्त वस्तुओं का कालक्रम के संबंध में बहुत कम समय में जानकारी प्राप्त हो जाती है.

सोशल मीडिया नें हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है जिसका अर्थ उत्श्रृंखलता, अराजकता और अर्मयादित व्यवहार कतई नहीं है. हमें अपने नागरिक कर्तव्य समझने होगें. कल ही मेरे द्वारा एक स्टेट्स में दांयें बायें लिखने में हुई छोटी सी भूल बड़ी भूल बन गई और मुझे एक सम्माननीय श्री से डांट खानी पड़ी. मुख्यतया हमारा जो दायित्व बनता है वह है -

1. अफवाह को बढ़ावा न दें, ऐसे सूचनाओं की पड़ताल करें, तत्काल रोकें और प्रतिरोध दर्ज करायें, चुप ना बैठें.
2. चरित्र हनन व व्यक्तिगत आरोप न हो, स्वस्थ विमर्श करें. इस संबंध में पंकज कुमार झा का प्रयास मुझे अच्छा लगता है.
3. मुद्दों को भटकायें मत, बल्कि समाधान देने का प्रयास करें. प्रायः यह देखा जाता है कि कुछ विशेश वर्ग के लोग मुद्दों को अपने स्वार्थ के लिए बाकायदा हैक कर लेते हैं. जिससे मुद्दा अपने उद्देश्य से भटक जाता है ऐसे में मुद्दों को राह में लाईये.
4. आपराधिक गतिविधियों, कापीराईट उलंघनों का भी विरोध करें. दूसरों के स्टेट्स अपनी बौfद्ध्कता प्रदर्शन के लिए कापी पेस्ट ना करें बल्कि शेयर करें.
5. सूचना का प्रसार करें जैसे रोजगार, कानून, सेवा.
6. सृजनशीलता को बढ़ावा दें. कला साहित्य संस्कृति व भाषा से संबंधित अपने ज्ञान को बांटें.
7. किसी को ब्लाक कर उसकी शिकायत करने के बजाए आलोचना करें, विचार करें कि माध्यम दोषी है या मानसिकता.
8. इसके अतिरिक्त यह सही है कि सरकारी मशीनरी पर हमारा विश्वास उठ गया है फिर भी हम देख रहे हैं कि पुलिस, प्रशासन के ग्रुप और पेज पर हमारे लाईक बढ़ते ही जा रहे हैं. हम वहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाह रहे हैं ताकि हम उन्हें वाच कर सके. यह हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति है इसे बरकार रखे.
9. आदि इत्‍यादि 

विकास की ओर अग्रसर छत्तीसगढ़ के समक्ष जो चुनौतियां है वहीं सोशल मीडिया की भी चुनौती है. हमें यहॉं विकास के रास्तों का उल्लेख करना है. भ्रष्टाेचार, जमाखोरी, हिंसा के विरोध में माहौल बनाना है. जनता की खुशहाली एवं उन्नति के रास्तों को प्रशस्त करना है.

लंदन में पिछले वर्ष हुए आफ्टर द राईट्स के दंगों के संबंध में आप सब नें सुना होगा. लोगों नें कहा कि यह सोशल मीडिया की कारस्तानी है. ब्रिटैन सरकार के द्वारा जांच कराया गया. इंटरनेट में आफ्टर द राईट्स के लगभग 100 पन्नो की रिपोर्ट आपको मिल जायेगी. पूरे रिपोर्ट में कहीं भी सोशल मीडिया को दोश नहीं दिया गया है. जबकि इसके उलट भारत में तत्काल दोष मढ़े जाते हैं, अपराधी की खोज चालू हो जाती है वो इसलिए कि सरकारी तंत्र की नाकामी छिप जाए. मैं मानता हूं कि कुछ प्रतिशत कचरा यहां भी है किन्तु जनसंख्या के हिसाब से उनका प्रतिशत कुछ भी नहीं है यदि आप जागरूक हैं तो ऐसे कचरों को साफ किया जा सकता है. हमें लोकतंत्र के चौथे खम्बे का दायित्व निभाते हुए काम करते रहना है. संगवारी ग्रुप के द्वारा किए जा रहे ऐसे ही रचनात्मक कार्यों को मेरा सलाम, जय भारत, जय छत्तीसगढ़.

- संजीव तिवारी

इस विषय पर परिचर्चा का असयोजन संगवारी समूह नें किया था. कार्यक्रम के उपरांत भाई गिरीश मिश्र जी नें अपने फेसबुक वाल पर जो लिखा 'सोशल मीडिया और छात्तीसगढ़ को लेकर 'संगवारी समूह' के आयोजन से अभी -अभी लौटा हूँ. मैंने कहा, कि यहाँ के लोग सोशल मीडिया का रचनात्मक इस्तेमाल करे और देश -दुनिया में छत्तीसगढ़ की बेहतर छवि बनाये। सुभाष मिश्र, राजीव रंजन प्रसाद, शुभ्र चौधरी, संजीव तिवारी, मुकुंद कौशल और कुछ अन्य वक्ताओं ने अपने-अपने महत्वपूर्ण विचार रखे.सबके नाम मुझे याद नहीं आ रहे हैं, अनेक लोगो से पहली बार मिलना और उनके विचार सुनना अच्छा लगा. आयोजक गिरीश मिश्र मुम्बई में रहते हैं, रायपुर के मूल निवासी है.मगर बार-बार छत्तीसगढ़ आ कर हर बार किसी नए विषय पर विचार गोष्ठी का आयोजन करते है. यही है अपनी जड़ो से जुड़े रहना.' उसकी एक कड़ी यह भी है -


कार्यक्रम के संबंध में अतिरिक्‍त जानकारी एवं प्रतिक्रया आप संगवारी समूह में यहॉं देख सकते हैं.

1800 से पहले भारत में दलित नहीं थे : डॉ.बिजय सोनकर शास्त्री

विगत दिनों दुर्ग में आयोजित एक कार्यक्रम में हिन्दू जीवन दृष्टि एवं पर्यावरण विषय पर प्रकाश डालते हुए वक्ता डॉ.सच्चिदानंद जोशी, कुलपति, कुशाभाउ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय, रायपुर नें कहा कि हमारी हिन्दू संस्कृति में विशिष्ठ वैज्ञानिक एवं पर्यावरणीय चिंतन है. वैज्ञानिक जिस गॉड पार्टिकल की अवधारणा को सिद्ध कर रहे हैं उसे हमारे वेदो नें सदियों पहले ही सिद्ध कर लिया था. उन्होंनें हिन्दू जीवन पद्धति को विभिन्न वैज्ञानिक सिद्धांतों के साथ जोड़ते हुए बताया कि वेदों में तमाम बातें कही गई हैं जिसे विज्ञान अब सिद्ध कर रहा है. उन्होंनें अलबर्ट आंइन्टांईन को कोट करते हुए कहा कि कोई भी विज्ञान धर्म के बिना लंगड़ा है और कोई भी धर्म विज्ञान के बिना अंधा. सभा को संबोधित करते हुए बिरसराराम यादव नें गांव में बादल गरजने पर सब्जी काटने वाले हसिये को आंगन में फेंकने की परम्परा का उदाहरण देते हुए कहा कि हमारी भारतीय पारंपरिक ज्ञान में विज्ञान समाहित है. हमारे चिंतन और व्यवहार का आधर पूर्ण वैज्ञानिक है.

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए 'हिन्दू जीवन दृष्टि एवं वेद व विज्ञान' विषय पर अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत करते हुए डॉ.बिजय सोनकर शास्त्री, अखिल भारतीय प्रवक्ता भारतीय जनता पार्टी नें कहा कि सूर्य और चंद्र की दूरी वैज्ञानिकों नें यदि नहीं नापी होती तो क्या हमारे वेदों में दी गई सूर्य चंद्र की दूरी की सत्यता की जांच हो पाती. उन्होंनें वैज्ञानिकों से आहवान किया कि वे और शोध करें ताकि हमारे वेदों की प्रामाणिकता सिद्ध हो. उन्होंनें सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का उल्लेख करते हुए बताया कि हिन्दू जीवन पद्धति पूर्ण वैज्ञानिक है. हमारी पूजा पद्धति, रीति रिवाज, व्रत त्यौहार सब का वैज्ञानिक आधार है. भारत में कभी भी सामाजिक विषमता नहीं थी, मुस्लिम आक्रांताओं एवं अंग्रेजी फूट डालो की रणनीति नें हमारी संस्कृति पर बार बार आक्रमण किए हैं जिससे कि हमारा समाज बिखरने लगा. उन्हानें भारतीय संस्कृ्ति को सदैव जोड़ने वाला बताया, दलितों की उत्पत्ति के संबंध में उन्होंनें दावे से कहा कि सन् 1800 से पहले भारत में दलित थे ही नहीं, भारत में विदेशी आंक्रांताओं नें दलित पैदा किए. उन्होंने रामायण की पंक्ति ढोर गवांर की तथ्यपरक व्याख्या करते हुए अधिकारी शव्द का अर्थान्वयन किया. यानी ताड़ना देने का अधिकार इन पांचों के पास है.

उन्होंनें एकलव्य कथा का उल्‍लेख करते हुए कहा कि एकलव्‍य नें गुरू द्रोण से अर्जुन के समान होने का वरदान मांगा था. एकलब्‍य नें प्रत्‍यक्षत: इस बात को झुठला दिया था कि पृथ्‍वी में अर्जुन के समान धनुर्धर कोई नहीं है. किन्‍तु अर्जुन सब्‍यसांची धर्नुधर था अर्थात अर्जुन बांयें हांथ की उंगलियों और अंगूठे से धनुष की प्रत्‍यंचा में तीर चलाता था. एकलब्‍य दाहिने हाथ की उंगलियों और अंगूठे से धनुष की प्रत्‍यंचा में तीर चलाता था. द्रोण नें एकलव्‍य का अंगूठा लेकर उसे अर्जुन के समान सव्‍यसांची बनाया. इसके अतिरिक्‍त भारत में दलित, त्यौहार-पर्व-उत्सव में अंतर, मोक्ष-मुक्ति का अर्थ, हिन्दू की परिभाषा आदि विषयों को भी उन्‍होंनें सहज ढंग से समझाया.

कार्यक्रम के आयोजक टोटल लाईफ फाउन्‍डेशन के अध्यक्ष एवं समाज सेवी संतोष गोलछा नें कहा कि हमारी सांस्कृतिक परम्परा, उत्सव एवं त्यौषहार में प्रकृति की अहम भूमिका है. वसुधैव कुटुम्बकम की हमारी अवधारणा ही संपूर्ण वसुधा को व्यापक दृष्टि से एक कुटुम्बं के रूप में प्रस्तुत करती है. हिन्दू संस्कृति हमें नैतिकता सिखा कर हमें मानव बनाती है जिसके कारण ही हममे प्रेम और सहिष्णुता के गुणों के साथ ही आत्म स्वाभिमान का भाव जागृत होता है। उन्होंनें वेद की प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए हनुमान प्रसंग में आए ‘युग सहत्र योजन पर भानु’ को विश्लेषित करते हुए कहा कि इस पद में आए सूर्य की दूरी वर्तमान में वैज्ञानिकों के द्वारा सिद्ध किए गए दूरी से पूरी तरह मिलती है. इस तरह से हमारे वेद पूरी तरह से प्रामाणिक हैं। उन्होंनें भारतीय परम्पराओं का उल्लेख करते हुए कहा कि एक दूसरे को सहयोग करने की रीति भारत में रही है। राजा प्रजा को पुत्र की भांति स्नेह करता था और प्रजा की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति भी देता था इसीलिए भारतीय सनातन परम्परा में प्रजा के द्वारा राजा के विरूद्ध के कभी विद्रोह नहीं हुए।

कविता में शब्दों का निहितार्थ

कविता में शब्दों का निहितार्थ क्या है, कैसा है ? यह सोंचना कवि का काम नहीं है, पाठक अपनी मति के अनुसार से इसे ग्रहण करता है। ‘निपटाने‘ का आप चाहे जो भी अर्थ निकालें, पूर्व प्रधान मंत्री एवं भाजपा के शीर्ष मा. अटल बिहारी बाजपेयी के दांत अब झड़ गए हैं। नीचे दी गई बहुचर्चित पंक्तियों के रचनाकार ख्यातिलब्ध अंतर्राष्ट्रीय कवि पद्म श्री डॉ.सुरेन्द्र दुबे जी भाजपा शासित राज्य में भी सत्ता के केन्द्र में रहे और कान्ग्रेस के समय में भी सत्ता के कृपा पात्र बने रहे। पीठ पीछे इनका विरोध भी हुआ, इन्हें निपटाने वाले कई आए कई गए, सब निपटते रहे। दुबे जी 'अपन दाढ़ी म अंगरी धरे बइठे रहे,' उनको निपटाना आसान नहीं रहा। पिछले कई वर्षों से दुबे जी छत्तीसगढ़ राज भाषा आयोग के सचिव के पद पर आसीन हैं। विश्व के लगभग सभी प्रतिष्ठित देशों में वे कविता पाठ कर चुके हैं, अभी अभी अमरीका से कविता पाठ कर लौटे हैं, उन्होंनें बराक ओबामा के लिए भी कविता लिखी है और उनकी कविताओं को बराक ओबामा नें भी पसंद किया है। वामपंथियों को यह चारण लगे दक्षिणपंथियों को शौर्य गान लगे, इन सबकी परवाह किए बगैर वे राजभाषा आयोग की अगली पारी के लिए तैयार हैं। शब्दों के इस बाजीगर को हमारा सलाम!!



अटल बिहारी हमर कका ये
फेर कोनों नइ ये काकी।
कतको झन जय ललिता, ममता बेनर्जी
आवत हें जावत हें
कका सबला निपटावत हे।।
(पद्म श्री डॉ.सुरेन्द्र दुबे)

बस्तर : घोटुल

लिंगो पेन के भावनाओं के घोड़े
थम से गए है
जम गए हैं खदानों से उड़ते धूल
अट्ठारह वाद्यों में
गुम गए है आख्यान
आदिम गीतों में
शहर के पगधूलि नें कर
दिया है अपवित्र
पवित्र घोटुल को
प्रकृति का स्वर्गीय आनन्द
जहॉं अब कोई नहीं पाता.
अब चेलिक और मोटियारी
हाथों में हाथ ले
नहीं गाते रेला
नहीं उठते पैर
नृत्य के लिए
बेलौसा नहीं सिखाती प्यार
सरदार नहीं लगाता कोई जुर्माना
अब मुरिया बच्चों के लिए
खुल गए हैं स्कूल
जहॉं मास्टर नहीं आता.

... तमंचा रायपुरी

बस्‍तर : रिसता खून

पता नहीं कौन सा साल था वह, बचपन में उम्र क्या थी पता नहीं, वक्त भी पता नहीं, पर उजाला था आसमान में. उनींदी आंखों जब खुली तो सिर में खुजली हो रही थी. हाथ जब बालों में गई तो दर्द हुआ सिर में, दर्द हुआ उंगलियों में, कुछ चिपचिपा महसूस हुआ. झट बालों से बाहर निकले उंगलियों को जब अंगूठे नें छुआ, तो फिर दर्द हुआ. अंगूठे नें महसूस किया, आंखों नें देखा, चिपचिपे द्रव के साथ. कांछ उंगलियों में, सिर में, शरीर में, बाबूजी, दीदी के कपड़ों पर, बस में, चारो तरफ बिखरे थे. बाबूजी के सिर से भी खून बह रहा था पर उन्होंनें मुझे हिफाजत से पकड़ा था. बाहर पेंड ही पेंड, कुछ में लटो में आम, शायद जंगल था. नीचे गहरी खाई, बस का एक पहिया हवा में. पेंड से टकरा गई थी बस, खिड़कियों के शीशे हमारे शरीरों में चुभते हुए बिखर गई थी सड़क पर. बाबूजी नें कहा था एक्सीडेंट हो गया!. मेरे सिर के बालों में घुसे महीन कांछ के तुकड़े, बूंद बूंद खून सिरजा रहे थे. उंगलिंयॉं बार बार सिर खुजाने को बालों की ओर लपकती और बाबूजी मेरा हाथ रोक देते. एक बड़ा तुकड़ा भी गड़ गया था सिर में. दर्द से, जाहिर है, मेरे आंसू निकल रहे थे और मुह से नाद. अगले कुछ पलो में बस से सब अपना अपना सामान लेकर उतर गए. नीचे सड़क पर कांछ के साथ बस के आस पास बिखरे थे आम. बाबूजी के एक हाथ में भारी बैग दूसरे में मेरा हाथ. मैं दर्द भूलकर आम उठाने झुका और एक आम उठा भी लिया. बाबूजी नें अपने बंगाली के कंधे से सिर से आंख में बहते हुए खून को पोंछा और मुझे एक भद्दी सी छत्तीसगढ़ी गाली दी. मर रहे हैं और तुझे आम सूझा है. उन्होंनें शब्दों को आगे जोड़ते हुए कहा, तब तक मेरे खून सने हाथों नें आम को मुह तक पहुचा दिया था. दूसरी बस कब आई, कब हम जगदलपुर पहुंचे, मुझे नहीं पता.

किन्तु आज भी, जब कभी भी, बस्तर के जंगलों में हो रहे मार काट में किसी मानुस के खून बहने की खबर, समाचारें लाती है. मेरी उंगलियॉं मेरे सिर के बालों में अनायास ही चली जाती है. उंगलियॉं महसूसती है, चिपचिपा रिसता खून, और सिर में दर्द होने लगता है.
.. तमंचा रायपुरी.

छत्‍तीसगढ़ी प्रभात

छत्तीसगढ़ी में 'सुकुवा उवत' मतलब लगभग चार बजे सुबह, ब्रम्ह मुहूर्त, जब शुक्र तारे का क्षितिज में उदय हो। अब घडी आगे बढ़ी और 'कुकरा बासने' लगा यानी मुर्गे ने बाग दिया, लगभग पाँच बजे सुबह। इसके बाद 'मुन्धर्हा' और 'पहट ढीलात', सुबह का धुंधलका और पशुओं को चराने के लिए ले जाने का समय। मेरा अनुभव यह रहा है कि सबेरे के पहट में दूध देने वाले पशु को ग्वाले ले जाते हैं फिर उन्हें वापस कोठे में लाकर दूध दुहते हैं। इन शब्दों के साथ ही 'बेरा पंग पंगात' का उपयोग सूर्योदय के ठीक पहले के उजास के लिए होता है। छत्तीसगढ़ी में सुबह के लिए प्रयोग होने वाले शब्दों को जोड़ते हुए पिछले दिनों मैंने एक स्टैट्स अपडेट किया था। उस पर कुछ चर्चा करने के उद्देश्य से उन्हीं शब्दों को फिर से रख रहा हूँ। कहीं कुछ असमानता हो तो बतावें। बेरा बिलासपुर मे पंग पंगाते हुए..
19.06.2014


दलित विमर्श ... द्वन्द

दलित साहित्य और दलित विमर्श का विषय हमारे जैसे अल्पज्ञों के समझ से अभी दूर है। फिर भी थोडा बहुत जो अध्ययन है उसके अनुसार से यह प्रतीत होता है कि इस विषय को वामपंथ ने 'हैक' कर रखा है। इस विषय पर दक्षिणपंथ का या तो ज्यादा योगदान नहीं है या फिर उनके लेखन को जानबूझ कर हासिए पर धर दिया गया है। इस पर आप का क्या विचार है ?

मेरे इस प्रश्न का उत्तर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता, पूर्व सांसद, विचारक एवं लेखक डॉ.विजय सोनकर शास्त्री ने विभिन्न उदाहरणों के साथ विस्तार से दिया। उनकी बातों में से कुछ कड़ियाँ रिकार्ड हो पाई जिसमे से एक, यह कि, आधुनिक समय में वेद पर तर्क से ज्यादा कुतर्क हुए। दूसरा यह कि, मुस्लिम आक्रमणकारियों, शासको और अंग्रेजो नें तथाकथित दलित समाज का बीज अपने स्वार्थ के कारण बोया। और तीसरा यह कि, कागजो में दलित विमर्श करने के बजाय दलितों की समस्याओं को दूर करने, उन्हें मुख्य धारा में लाने का प्रयास होना चाहिए।

डॉ. शास्त्री ने वेद, विज्ञान, समरस समाज सहित दलित समाज पर बीसियों ग्रन्थ लिखे हैं। कल दुर्ग में हमारी संस्था टोटल लाइफ़ फाउंडेशन के द्वारा आयोजित एक अखिल भारतीय व्याख्यान में वक्ता के रूप में वे आमंत्रित थे। कार्यक्रम में मुख्य वक्ता डॉ.सच्चिदानंद जोशी, कुलपति पत्रकारिता वि.वि.रायपुर थे जिन्होंने प्रकृति, पर्यावरण और भारतीय संस्कृति पर सारगर्भित वक्तव्य दिया। डॉ. जोशी एवं डॉ.शास्त्री के व्याख्यान पर चर्चा फिर कभी।

अभी यह कि, दोपहर डॉ.शास्त्री के साथ दुर्ग पत्रकार संघ का प्रेस वार्ता हुआ। वार्ता के अंत में एक तिलकधारी पत्रकार नें मुझसे डॉ.शास्त्री का पूरा नाम पूछा। मैंने बताया, वो 'सोनकर' पर अटक गए। मैंने उनके सम्बन्ध में जब संक्षिप्त परिचय दिया तो वे 'शास्त्री' पर व्यंग मुस्कान बिखेरते हुये, 'खटिक' को स्थापित करते रहे। उनकी घडी स्वल्पाहार तक उसी शब्द पर अटकी रही। हालाँकि, किसी भी पत्रकार नें उसकी बातों को तूल नहीं दिया .. किन्तु .. दलित विमर्श ... द्वन्द जारी रहा।

तमंचा रायपुरी

फेसबुक व ट्विटर में सक्रिय छत्‍तीसगढ़ी भाषा भाषी साथियों से एक विनम्र अपील

साथियों यह खुशी की बात है कि देखते ही देखते छत्‍तीसढ़ी भाषा के प्रेमी फेसबुक व ट्विटर एवं अन्‍य सोशल नेटवर्किंग माध्‍यमों में सक्रिय हो रहे हैं। आपकी उपस्थिति से इंटरनेट में छत्‍तीसगढ़ी भाषा का प्रचार प्रसार बढ़ा है एवं अपनी मातृभाषा के प्रति लोगों की रूचि बढ़ी है। देखनें में यह आ रहा है कि हम अपनी अभिव्‍यक्ति अपनी मातृभाषा में फेसबुक व ट्विटर के द्वारा बखूबी अभिव्‍यक्‍त कर रहे हैं किन्‍तु फेसबुक व ट्विटर के साथ एक समस्‍या है कि यह दीर्घकालीन माध्‍यम नहीं है। यहॉं प्रस्‍तुत अभिव्‍यक्ति आपसे जुड़े लोगों तक सीमित पहुंच में है।

आप अपनी अभिव्‍यक्ति मुफ्त उपलब्‍ध साधन ब्‍लॉग के द्वारा प्रस्‍तुत करें एवं उसका लिंक फेसबुक व ट्विटर आदि में देवें इससे यह होगा कि आपकी अभिव्‍यक्ति का दस्‍तावेजीकरण होगा एवं रचनाऍं सर्चइंजन के माध्‍यम से इच्‍छुक पाठकों तक पहुच पायेंगी। इससे इंटरनेट में छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य का भंडारन भी होता जायेगा जो आगामी पेपर लेस दुनिया के लिए उपयोगी होगा।

आप स्‍वयं महसूस कर रहे होंगें कि छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य का प्रिंट वर्जन जन सुलभ नहीं है। हम आप अपनी रचनाओं का संग्रह 100-500 प्रतियों में छपवाते हैं और उसे छत्‍तीसगढ़ी के ज्ञात रचनाधर्मियों को मुफ्त में बांट देते हैं। इस प्रकार हमारी रचनाऍं उन प्रतियों की संख्‍याओं तक ही सीमित हो जाती है एवं उनका आंकलन भी उन्‍हीं संख्‍या के पाठकों तक हो पाता है। ऐसे में संभव है कि हमारी रचनाओं का उचित आंकलन मठाधीशी व पूर्वाग्रहों के कारण ना हो पाये।

यदि आप अपनी रचनाऍं नेट में ब्‍लॉग के माध्‍यम से भी प्रस्‍तुत करेंगें तो निश्चित है कि आगामी पेपर लेस जमाने में कम से कम शोध छात्र को अवश्‍य फायदा पहुचेगा एवं नयी पीढ़ी के सामने साहित्‍य का समग्र रूप छुप ना सकेगा। हो सकता है कि यह बातें अभी कपोल कल्‍पना लगे किन्‍तु यह शाश्‍वत सत्‍य है।

इस बात की महत्‍ता को स्‍वीकार करते हुए पूर्व से ही ललित शर्मा, सुशील भोले, जनकवि कोदूराम दलित जी के पुत्र अरूण कुमार निगम, जयंत सा‍हू, राजेश चंद्राकर, संतोष चंद्राकर, डॉ.सोमनाथ यादव, मथुरा प्रसाद वर्मा, शिव प्रसाद सजग आदि इत्‍यादि अपनी छत्‍तीसगढ़ी रचनाओं के साथ इंटरनेट में सक्रिय हैं।

अत: आपसे अनुरोध है कि शीध्र ही अपना छत्‍तीसगढ़ी भाषा के रचनाओं के लिए एक ब्‍लॉग बनायें एवं अपनी रचनाऍं उसमें अपलोड करें।

जय छत्‍तीसगढ़, जय भारत।

संजीव तिवारी.

एक ठो अउर राजधानी नामा: बौद्धिकता का पैमाना

हमारे पिछले फेसबुक स्टेट्स ‘पवित्र उंगलिंयॉं‘ में  कमेंटियाते हुए प्रो.अली सैयद नें हमारी पर्यवेक्षणीयता की सराहना की थी. हम भी सोंचें कि ऐसा कैसे हुआ, व्यावसायिक कार्य हेतु दिल्ली, ट्रेन से आना जाना तो लगा रहता है पर ऐसी पर्यवेक्षणीयता हर बार नहीं होती. बात दरअसल यह थी कि मोबाइल चोरी चला गया था, ना कउनो फेसबुक, ना ब्लॉग पोस्ट, ना मेल सेल, ना एसएमएस, ना गोठ बात. तो कान आंख खुले थे जब किटिर पिटिर करने को मोबाईल ना हो तो, खाली मगज चलबे करी.

त हुआ का कि, हमारे सामने के सीट म एक नउजवान साहेब बइठे रहिन. टीटी टिकस पूछे त, बताईन हम रेलवे के साहब हूं. हम देख रहे थे, बिल्कुल साहेब जइसे दिख भी रहे थे. हमने सोंचा भले साहब की रूचि हम पर ना हो फिर भी समें काटे खातिर उनसे बात शुरू की जाए. बाते म पता चली कि साहेब भारतीय रेलवे अभियांत्रिकी सेवा के अधिकारी हैं, झांसी में पदस्थ हैं, नाम है अहमद, लखनउ के हैं. 

अहमद साहेब के रौब दाब देख के हमहू बताए दिए के बंगलोर में हमारे भी मित्र है, रेलवे अभियांत्रिकी सेवा के साहब हैं. अहमद साहब हमारा मन रखने के लिए पूछे के, ‘का नाम है, आपके मित्र का.‘ हमने बताया ‘प्रवीण पाण्डेय.‘ सामने बइठे अहमद साहब तनि चकराए. अब उनकी आवाज से लगा के कउनो तवज्जो दीन है साहब नें. अहमद साहेब खुश होकर बताने लगे के ‘प्रवीण पाण्डेय साहब तो झांसी में रहे हैं. हमसे सीनियर पोस्ट में थे, बड़ा नाम है साहब का झांसी में, कड़क और इमानदार साहब हैं.‘ हमसे पूछा कि ‘आपसे कइसे पहचान है.‘ 

हम सोंचे बड़ बुडबक है यार उ पांडे हम तेवारी ऐतना नइ बुझाता. फिर खामुस खा गए. थूंक घुटके फिर बोले ‘उ बड़ा उम्दा हिन्दी ब्लागर हैं और हम भी ब्लॉगर हैं एइ कारन पहचान है.‘ अहमद साहेब नें दूसरा क्बेसचन दागा, ‘मतलब आपका ये टिकट पाण्डेय साहब के अप्रोच से कनफर्म हुआ है.‘ हम चकराए कि इनको कईसे पता चला कि अपरोच से टिकट कनफर्म हुआ. कने लगे, ‘लिस्ट में आपके नाम के आगे एच. ओ. लिखा है, दो दिन पहले बना टिकट कहीं इन दिनों बिना अपरोच के कनफर्म होता है भला.‘ हमने कहा ‘अरे नहीं भाई, ई तो हमारे कलाईंटें न कटवाया है, कउनो मंत्री संत्री से करवाए होंगें कनफर्म. हमको नइ पता.‘ उन्होंनें कहा ‘ओह!‘

इसी बात पर अहमद साहब नें टिकट कनफर्म कराने आने वाले मित्रों और रिश्तेदारों के फोन की कथा सुनाई और अपनी बेबसी का खुलासा किया. हमने भी कहानियों को सुनते हुए उन्हीं की तरह बार बार बोला ‘ओह!‘

तब तक अहमद साहब प्रवीण पाण्डेय जी का ब्लॉग ‘न दैन्यं ना पलायनम‘ माबाईल में ढूंढ निकाले थे और प्रशन्नता से बांचने लगे... खामोशी. 

कुछ देर बाद हमें लगा के इन पर अब अपना रौब दाबा जाए. हमने बताया के ‘हमहू हिन्दी ब्लॉगर हैं अउर हमारी भी वैश्विक पहचान है. फलां फलां सम्मान मिला है, ये है, वो है, माटी वाले हैं, कुल मिला कर हम हम हैं.‘ 

‘वाह भई!‘ तब तक अहमद साहब हमारा ब्लॉग भी मोबाईल में चाप लिए थे. आपके ब्लॉग में तो दूसरों के भी पोस्ट हैं. हम तनि झेंपियाते हुए बोले ‘का है ना कि हम आजकल बहुत बियस्त रहते हैं इस कारन पोस्ट नहीं लिख पाते...‘ ये तो गनीमत था कि अहमद साहब ब्लॉगर नहीं थे नहीं तो हमारी वैश्विक पहचान दुई मिनट में धूल में मिल जाती, हालांकि एसी कूपे में मिलाने लायक धूल नहीं थी इस बात का भी सकून था. उनके हाव भाव से पता चल रहा था कि हमारे बताने के बावजूद वे हमें असामान्य कतई नहीं मान रहे थे जबकि हम अपनी वैश्विकता सिद्ध करना चाह रहे थे. 

बात ना बनते देख हमने एक चांस अउर लिया. हमने उन्हें बताया कि ‘इलाहाबाद में हमारे एक और पहचान के हैं. रेलवे में बड़का पोस्ट में है, नाम है उनका ज्ञानदत्त पाण्डेय.‘ अहमद साहब उपर पंखे की ओर देखते रहे, लगा वे उसकी रफ़तार बढ़ाना चाह रहे थे. 

हमने आगे बताया कि ‘वे मालगाड़ी परिवहन से संबंधित विभाग में बड़का साहेब हैं.‘ अहमद साहब नें कहा कि ‘वो कोई बड़ा पोस्ट नहीं होता.‘ बात गिरते देखकर हमने कहा कि ‘नइ जी, बड़े पोस्ट में हैं, बिट्स पिलानी के ग्रेजुएट हैं, सीनियर हैं.‘ अहमद साहब झट इलाहाबाद फोन लगा लिए. पूछने लगे ‘किसी ज्ञानदत्त पाण्डेय को जानते हो.‘ उधर से आ रही आवाजों को हम अहमद के आंखों की चमक से सुनने लगे. फोन बंद करने के बाद अहमद साहब नें मुस्कुराते हुए बताया कि ‘ज्ञानदत्त पाण्डेय जी चीफ आपरेटिंग मैनेंजर हैं अब गोरखपुर में हैं.‘ उन्होंनें स्वीकारा कि वे बहुत बड़े पोस्ट में हैं, दिल को सूकूं मिला. 

आगे अहमद साहब नें बताया कि जिनको उन्होंनें फोन किया था वे ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की काफी प्रशंसा कर रहे थे, कह रहे थे कि ‘बहुतै अच्छे अदमी हैं, कबि हैं मने गियानी हैं..‘

बातों बातों में झांसी टेसन आ गया, अहमद साहब हाथ मिलाकर दरवाजे की ओर चले गए. हम भी दुर्ग उतर गए, फिन अब तक सोंच रहे हैं. ज्ञानदत्त जी तो गद्यकार हैं, उनके कवि होने की जानकारी हमें नहीं है. संभवतः सामने वाले नें कवि होने का मतलब बौद्धिकता से लगाया होगा, मने बौद्धिकता का पैमाना कविता है.

संजीव तिवारी 


यह पोस्‍ट मेरे ब्‍लॉग आरंभ में यहॉं भी है.

ढ़ोलकल: बस्तर का रहस्य


मनुष्य सदैव रहस्य की खोज में रहता है, उसकी उत्सुकता रहस्यों को निरंतर उद्घाटित करने की रहती है. रहस्य की परतें, परत दर परत जब खुलती है तो सीधे सपाट घटनाओं में भी रोचकता बढ़ती जाती है. पौराणिक आख्यानों में नागों के संबंध में भी ऐसे ही रहस्यमय घटनाओं का उल्लेख आता है. नाग लोक, वासुकी, तक्षक, शेष नाग, इच्छाधारी नाग नागिन जैसे रहस्यमयी नागो की कथायें हमें रूचिकर लगती है. राजीव रंजन प्रसाद द्वारा रचित एवं पिछले माह प्रकाशित उपन्यास ‘ढ़ोलकल‘ हमारी इसी रूचि को बढ़ाती है.

‘ढ़ोलकल‘ बस्तर के नाग शासकों पर केन्द्रित उपन्यास है, बस्तर में नाग शासकों का एक वैभवशाली अतीत रहा है. बस्तर में यत्र तत्र बिखरे पुरावशेष आज भी समृद्ध नागों के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं. जिसके बावजूद बस्तर के नागों को लगभग बिसरा दिया गया है. ‘ढ़ोलकल‘में बस्तर के नाग शासकों के इसी विस्मृत काल का चित्रण करते हुए लेखक नें पौराणिक व ऐतिहासिक घटनाओं को अपने चितपरिचित कथात्मक शैली में पिरोया है. इस उपन्यास में नागो से जुड़े मिथकों तथा ऐतिहासिक तथ्यों का सुन्दर समन्वय है. राजीव रंजन प्रसाद जी नें इस उपन्यास में यथार्थ और कल्पना का एक रहस्यमय लोक तैयार किया हैं. उपन्यास के शब्द दर शब्द और पृष्ट दर पृष्ट नागों की जीवन शैली एवं उनके सांस्कृतिक-राजनैतिक इतिहास को राजीव नें ऐसा बिखेरा है कि एक बार पढ़ना आरंभ करने के बाद आप उसे अंत तक पढ़े बिना नहीं रह सकते.

‘ढ़ोलकल‘ उपन्यास की मूल कथा के अनुसार वारंगल से अपने राज्य विस्तार के हेतु से बस्तर की ओर बढ़ते चालुक्य वंशी राजा अन्नमदेव, नाग शासक हरिश्चन्द्र देव के चक्रकोट किले पर आक्रमण करता है. वृद्ध नाग शासक पिता के युद्ध में आहत होने के कारण नाग राज कुमारी चमेली बाबी अन्नमदेव से युद्ध करती है. अन्नमदेव उसकी वीरता एवं सौंदर्य से आकर्षित होता है किन्तु वीरांगना चमेली बाबी प्रणय निवेदन व पराजय स्वीकार करने के बजाए आत्मदाह कर लेती है. इसी घटना को आधार लेते हुए लेखक नें नागों के इस गौरव गाथा को विस्तारित किया है. पौराणिक दंत कथाओं, आख्यानों, मिथकों एवं इतिहास को आधार बनाते हुए नागों से संबंधित सभी संदर्भों को लेखक नें इस उपन्यास में स्थान दिया है. जिसमें कश्यप ऋषि की पत्नी विनीता व कद्रु से आरंभ नाग वंश, रामायण कालीन व महाभारत कालीन नागों का उल्लेख एवं ऐतिहासिक नागवंश के प्रत्येक महत्वपूर्ण घटनाओं व पात्रों को समाहित किया है. उपन्यास में नागों के संबंध में संदर्भ का उल्लेख एवं घटनाओं का कथात्मक विस्तार लेखक के गहन शोध को दर्शाता है. उपन्यास में संदर्भों एवं घटनाओं में लयात्मकता है, कथा का प्रवाह अद्भुत रोचकता के साथ अविरल है.

अजेय बस्तर की राज कुमारी चमेली बाबी को सलाम सहित, राजीव रंजन प्रसाद जी को मै बस्तर के नाग शासकों की गौरव गाथा के अभूतपूर्व सृजन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद देता हूं.

संजीव तिवारी

धूप की नदी: कील कॉंटे और कमन्द

वरिष्ठ साहित्यकार, कथाकार, कवि, पत्रकार सतीश जायसवाल जी का हालिया प्रकाशित यात्रा संस्मरण ‘कील कॉंटे कमन्द’ की चर्चा चारो ओर बिखरी हुई है। मैं बहुत दिनों से इस जुगत में था कि अगली बिलासपुर यात्रा में श्री पुस्तक माल से इसकी एक प्रति खरीदूं किन्तु उच्च न्यायालय के शहर से पहले स्थापित हो जाने के कारण, प्रत्येक दौरे में शहर जाना हो ही नहीं पा रहा था और किताब पढ़ने की छटपटाहट बढ़ते जा रही थी। इसी बीच कथा के लिए दिए जाने वाले प्रसिद्ध वनवाली कथा सम्मान से भी सतीश जायसवाल जी नवाजे गए। दो-दो बधाईयॉं ड्यू थी, और हम सोंच रहे थे कि अबकी बार बधाई वर्चुवल नहीं देंगें, उन्हें भिलाई बुलाते हैं और भिलाई साहित्य बिरादरी के साथ उन्हें बधाई देते हैं। जब वे बख्शी सृजन पीठ के अध्यक्ष थे तो भिलाई उनका निवास था इस कारण उनका लगाव भिलाई से आज तक बना हुआ है। शायद इसी जुड़ाव के कारण उन्होंनें हमारा अनुरोध स्वीकार किया। वो आए और भिलाई साहित्य बिरादरी के साथ एक सुन्दर आत्मीय मिलन का कार्यक्रम हुआ। इस कार्यक्रम की चर्चा फिर कभी, इस कार्यक्रम से ‘कील कॉंटे कमन्द’ में आवरण चित्रांकन करने वाली डॉ.सुनीता वर्मा जल्दी चली गयीं। प्रकाशक नें उनके लिए ‘कील कॉंटे कमन्द’ की एक प्रति सतीश जायसवाल जी के माध्यम से भेजा था, वह प्रति तब बतौर हरकारा मेरे माध्यम से भेजा जाना तय हुआ। किताब उन तक पहुचाने में विलंब हो रहा था और पन्ने फड़फड़ाते हुए आमंत्रित कर रहे थे कि पढ़ो मुझे।


स्कूल के दिनों में स्कूल खुलने के तत्काल बाद और नई पुस्तक खरीद कर जिल्द लगाने के पहले, नई किताबों से उठते महक को महसूस करते, हिन्दी विशिष्ठ में लम्बे और अटपटे से लगते नाम के लेखक की रचना ‘नीलम का सागर पन्ने का द्वीप’ को हमने तीस साल पहले पढ़ा था। बाद में हिन्दी के अध्यापक नें बताया था कि यह यात्रा संस्मरण है। जीवंत यात्रा संस्मरणों से यही हमारी पहली मुलाकात थी, बाद के बरसों में वाणिज्य लेकर पढ़ाई करने के बावजूद मैं हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन ‘अज्ञेय’ को बूझने का प्रयास उनकी कृतियों में करते रहा। पत्र-पत्रिकाओं में अन्यान्य विधाओं के साथ कुछेक यात्रा संस्मरण भी पढ़े, किन्तु अज्ञेय का वह जीवंत संस्मरण आज तक याद रहा। और यह कहा जा सकता है कि यात्रा संस्मरणों के प्रति मेरी दिलचस्पी बढ़ाने में वह एक कारक रहा। 

आदिवासी अंचल का यात्रा संस्मरण हाथ में था और जब हमने उसे खोला तो हमारी आंखें इस लाईन पर जम गई ‘... आखिरकार, यह एक रचनाकार का संस्मरण है। इसमें रचनाकार की अपनी दृष्टि और उसकी आदतें भी शामिल है।’ लगा किताब मुझे, अपने विशाल विस्तार में गोते लगाने के लिए बुला रही है। गोया, लेखक नें भी इस विस्तार को कई बार धूप की नदी के रूप में अभिव्यक्त किया है। आदिवासी अंचल की जानकारी, यात्रा विवरण, रचनाकार की दृष्टि एवं रचनाकार की आदतें सब एक साथ अपने सुगढ़ सांचे में फिट शब्दों के रूप में आंखों से दिल में उतर रहे थे। दिल में इसलिए कि रचनाकार नें किताब को अपने मित्र को समर्पित करते हुए लिखा ‘अपनी उस बेव़कूफ सी दोस्त के लिए जिसकी दोस्ती मैं सम्हाल नहीं पाया और अब उसका पता भी मेरे पास नहीं ...।’ इसे पढ़नें के बाद इतना तो तय हो जाता है कि आगे किताब के पन्नों पर दिल धड़केगा, रूमानियत और इंशानी इश्क की पोटली से उठती खुश्बू अलिराजपुर के मेले से होते हुए भोपाल तक महकेगी। 

लेखक किताब की भूमिका में बताते हैं कि मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा प्रदेश के 16 वरिष्ठ साहित्यकारों को आदिवासी क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजा गया था। लेखक नें अपनी स्वेच्छा से आदिवासी क्षेत्र झाबुआ अंचल को अध्ययन के लिए चुना और यह संस्मरण उसी अध्ययन का प्रतिफल है। लेखक अपनी भूमिका में ही नायिका हीरली और नायक खुमfसंग का हल्का सा चित्र खींचते हैं। आदिवासी झाबुआ के भगोरिया मेले में आदिवासी बालायें प्रेमियों के साथ भागकर व्याह रचाती हैं। हीरली भी इसी मेले में अपने पहले पति को छोड़कर खुमfसंग के साथ भागी थी। आगे बढ़ते हुए लेखक स्पष्ट करते हैं कि यह किताब नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन के लिए नही है। 

अपनी बातें शुरू करने के पहले वे एक कविता भी प्रस्तुत करते हैं जिसमें fसंदबाद, मार्कोपोलो, ह्वेनसांग, फाह्यान व राहुल सांकृत्यायन के बाद की कड़ी में अपने आप को रखते, यायावरों की सांस्कृतिक परम्पराओं का निर्वाह करते हुए, अपरिचित ठिकानों से हमें परिचित भी कराते चलते हैं। लेखक यात्रा का पता ठिकाना बताते हुए अपने शब्दों के साथ ही पढ़नें वाले को भी झाबुआ के दिलीप fसंह द्वारा से आदिवासी भीलों की आदिम सत्ता में प्रवेश कराते हैं जहां आदिवासी भीलों की अपनी आचार संहिता है। साथ है आनंदी लाल पारीख , जो प्रसिद्ध छायाकार है और गुजरात, राजस्थान की सीमा से लगे मध्य प्रदेश के इस आदिवासी भूगोल के चप्पे चप्पे के जानकार हैं। अरावली पर्वत से गलबईहां डाले अनास और पद्मावती नदी के कछारों व पहाड़ों में समय के मंद आंच में निरंतर fसंकती भीलनियों के साथ ‘डूंगर खॉंकरी’ व ‘ग्वाल टोल’ खेलते हुए। कपास धुनकिए के आवाज में धुन मिलाते हुए भटकते हुए। 

किताब के शीर्षक कील कॉंटे कमन्द के साथ लेखक उस लापता मित्र वीणा परिहार से भी मिलवाते हैं जो असामान्य कद की लम्बी महिला हैं और कटे बालों के साथ झाबुआ के महाविद्यालय में प्राध्यपक हैं। लेखक नें यद्यपि उनका कद किसी फीते में नापा नहीं है किन्तु साथ चलते हुए परछाइयों में उसका यह कद दर्ज हुआ है। वह अंग्रेजी साहित्य में चर्चित शब्द ‘हस्की वॉइस्ड’ सी लगती है किन्तु लेखक उसकी प्रशंसा करते सकुचाते हुए से कहते हैं ‘... हमारे सामाजिक शिष्टाचार की संहिता में ‘सेक्सी ब्यूटी’ को ‘काम्पलीमेंट’ (प्रशंसा) अथवा ‘एप्रीशिएट’ (सराहना) करना तक जोखिम से भरा हो सकता है।’ लेखक के इस वाक्यांश से वीणा परिहार को समझ पाना आसान हो उठता है। सुकून मिलता है जब पता चलता है कि सुदूर कानपुर उत्तर प्रदेश से मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल में अकेली रहती उस अकेली लड़की के अकेलेपन में उसका ईश्वर भी हैं।

सफर के पहले पड़ाव के रूप में गझिन अमराई, पद्मावती नदी, काकनवानी, चाक्लिया गॉंव, चोखवाड़ा गढ़ी के आसपास के आदिवासी fस्त्रयों के स्तन-सूर्य का आख्यान, उनकी संस्कृति, सौंदर्यानुभूति को छूते हुए, मालवा के पारंपरिक दाल बाफले और चूरमे के सौंधी महक और भूख के साथ दिया बाती के समय में, जरायम पेशा भीलों की बस्ती बालवासा गॉंव मे, जब लेखक पहुचता है, तो ढ़िबरियों की रौशनी में गॉंव का सरपंच और लेखक का मेजबान रामसिंग कहीं खो जाता है। रामसिंग राजस्थान के किसी गॉंव में हालिया डाका डालकर यहॉं छुपा बैठा है और पुलिस उसे तलाश रही है। लेखक अपने यात्रा के सामान के साथ गॉंव में भोजन के लिए जलते लकड़ी के चूल्हे के बहाने परिवार की एकजुटता और परिभाषा की कल्पना करता है।

मेजबान रामसिंग के व्यक्तित्व की बानगी करते हुए लेखक उस अंचल के भीलों के जीवन में झांकते हैं। घटनाओं को जीवन और कल्पनाओं से जोड़ते हैं। यादों में झाबुआ के इस बीहड़ गॉंव में यात्रा प्रारंभ करने के पूर्व झाबुआ कलेक्टर के नाम जारी म.प्र.साहित्य परिषद एवं अदिवासी कल्याण विभाग से जारी अध्ययन यात्रा में सहयोग करने की अनुशंसा पत्र की अहमियत पर सवाल उठाते हैं। उस पत्र की फटी पुर्जी के पृष्ट भाग पर अपना नाम लिखकर कलेक्टर से मिलने के लिए भिजवाते हुए इस व्यवस्था को सिर झुकाकर स्वीकार भी करते हैं। 

किताब की नायिका हीरली के गॉंव गुर्जर संस्कृति से ओतप्रोत, अलिराजपुर में भीलों के धातक घेरे का विश्लेषण करते हुए बताते हैं कि कैसे भीलनी हीरली नें अपने पहले पति को छोड़कर अपने प्रेमी के साथ भागी थी और उसके भाई नें जब उसके प्रेमी को मारने के लिए तीर छोड़ा था तो वह सामने आ गई थी, उसके शरीर को बेधते हुए पांच तीर लगे थे और वह आश्चर्यजन रूप से बच गई थी। ताड़ी के मदमस्त नशे में होते अपराध, नशे के कारण होते अपनों के बीच की मार काट, सजा आदि की पड़ताल किताब में होती है। fहंसा के विरूद्ध प्रेम की सुगंध दृश्य अदृश्य रूप से महकता है।

लंका जैसे भौगोलिक आकृति के गॉंव साजनपुर में ताहेर बोहरा की कहानियॉं यत्र तत्र बिखरी हैं, खतरे वाले 16 किलोमीटर के घेरे में बिखरे इन कहानियों को लेखक बटोरता है और सीताफल की दो टोकरियॉं साथ लेकर लौटता है। लेखक चांदपुर, छोटा उदयपुर, छकतला गॉंव व नर्मदा बचाओ आन्दोलन के नवागाम बांध को समेटते हुए कर्मचारियों के स्थानांतरण के हेतु से सिद्ध कालापानी क्षेत्र के गांव मथवाड़ जहॉं भिलाला आदिवासियों की आबादी है, से साक्षात्कार कराता है। झाबुआ के लघुगिरिग्राम माने हिल रिसोर्ट आमखुट की यात्रा रोचक है। लेखक का 100 वर्ष पुराने चर्च की मिस ए.हिसलॉप यानी मिस साहेब से विक्टोरियन शैली की मकान मे मुलाकात, आदिवासी अंचलों में हो रहे धर्मांतरण के नये अर्थ गढ़ते हैं। केरल से आकर पुरसोत्तमन का वहॉं आदिवासियों के बीच काम करना, कुलबुलाते प्रश्न की तरह उठता है जिसका जवाब वे स्वयं देते हैं ‘... आदिवासी असंतोष और पृथकतावादी आन्दोलनों के आपसी रिश्ते मुझे एक त्रिकोण में मिलते हुए दिख रहे थे।’ आमखुट में विचरते हुए चंद्रशेखर आजाद भी सोरियाये जाते हैं, यहॉं अलिराजपुर और जोबट के बीच छोटी सी बस्ती भाबरा है जहॉं चंद्रशेखर आजाद का जन्म हुआ था। ऐसी कई नई जानकारियॉं हौले से बताते हुए वे इस तरह शब्दों के माध्यम से यात्रा में साथ ले चलते हैं कि समूचा परिदृश्य जीवंत हो उठता है।

मानव स्वभाव है कि वह अनचीन्हें को अपने आस पास के प्रतीकों से जोड़ता है, शायद इसीलिए वे पूरी यात्रा में वहॉं के स्थानों, व्यक्तियों से छत्तीसगढ़ की तुलना करना नहीं भूलते जिसके कारण अनचीन्हें परिदृश्य बतौर छत्तीसगढ़िया मेरे लिए सुगम व बोधगम्य हो उठते हैं। किताब पढ़ते हुए लगता है कि लिखते हुए अंग्रेजी साहित्य उनके जेहन में छाए रहता है वे कई जगह अंग्रजी साहित्य के चर्चित पात्रों व घटनाओं को यात्रा के दौरान के पात्रों और घटनाओं से जोड़ते हैं। शिविर समेटते हुए उनके लेखन में झाबुआ कलेक्टर के साहित्य के प्रति घोर अरूचि और आई.ए.एस. प्रशिक्षार्थी विमल जुल्का का साहित्य प्रेम भी प्रगट होता है जो नौकरशाहों की संवेदनशीलता का स्पष्ट चित्र खींचता है। यात्रा में कई सरकारी व असरकारी सहयोगियों का उल्लेख आता है जिनमें से लेखक आदिवासी लोक के चितेरे झाबुआ क्षेत्रीय ग्रामीण बैक के अध्यक्ष सुरेश मेहता का उल्लेख करते हैं जो संभवतः वही हैं जिनके साथ लेखक नें बस्तर के घोटुलों की यात्रा की थी। लोक कलाओं, परंपराओं और संस्कृतियों पर चर्चा करते हुए वे झाबुआ के कपड़े और तिनके से कलात्मक गुड़िया के निर्माण को कोट करते हैं जो झाबुआ के लोक कला को अंतर्राष्‍ट्रीय पहचान देनें में सक्षम है। इस पर जमीन से जुड़ाव के मुद्दे पर कहते हैं कि ‘.. लोक कलाओं को उसके नैसर्गिक परिवेश से अलग करके उनकी सहज स्वाभाविकता में ग्रहण नहीं किया जा सकता।’ 

यात्रा के दौरान बिम्बों, प्रतीकों, परम्पराओं के माध्यम से वे आदिवासी अंचल का विश्लेषण करते हैं। छोटी सी छोटी और नजरअंदाज कर देने वाली बातों, घटनाओं से भी वे चीजें बाहर निकालते हैं। वे नदी पार करते हुए नदी में पानी भरने आई भीलनियों के पात्रों से भी भीलों की सामाजिक आर्थिक संरचना का अंदाजा लगाते हैं। कल कल करती नदी को धूप की नदी कहते हैं, यह उनकी अपनी दृष्टि है एवं कल्पना है जिसके विस्तार का नाम है कील काटे कमन्द।

संजीव तिवारी
14.04.2014

कील कॉंटे कमन्द
सतीश जायसवाल
प्रकाशक मेधा बुक्स, एक्स 2, 
नवीन शाहदरा, दिल्ली 110 032, 
फोन 22 32 36 72
प्रथम संस्करण, पृष्ट 140, 
हार्ड बाउंड, मूल्य 200/- 
आवरण चित्र डा.सुनीता वर्मा

सतीश जायसवाल
कृतियॉं - 
कहानी संग्रह - जाने किस बंदरगाह पर, धूप ताप, 
कहॉं से कहॉं, नदी नहा रही थी
बाल साहित्य - भले घर का लड़का, हाथियों का सुग्गा
मोनोग्राफ - मायाराम सुरजन की पत्रकारिता पर केfन्र्गत
संपादन - छत्तीसगढ़ के शताधिक कवियों की कविताओं का संग्रह कविता छत्तीसगढ़ 
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नया भू अधिग्रहण अधिनियम : सरकार एवं न्यायालय को तत्काल संज्ञान लेना चाहिए

नया भू अधिग्रहण अधिनियम (भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनव्य र्वस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013  Right to Fair Compensation and Transparency in Land Acquisition, Rehabilitation and Resettlement Act, 2013) के प्रभावी हो जाने के बावजूद छ.ग.शासन के द्वारा पुराने अधिनियम (भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894) के तहत् की जा रही भू अधिग्रहण कार्यवाही उद्योगपतियों एवं नौकरशाहों के गठजोड़ का नायाब नमूना है. भारत गणराज्य के चौंसठवें वर्ष में संसद के द्वारा नया भू अधिग्रहण अधिनियम अधिनियमित कर दिया गया है जिसका प्रकाशन भारत का राजपत्र (असाधारण) में दिनांक 27 सितम्बकर 2013 को किया गया है.

नया भू अधिग्रहण अधिनियम के प्रवृत्त होने की तिथि के संबंध में इस नये अधिनियम की धारा 1 (3) में कहा गया है कि ‘यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा, जो केन्द्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे’ इसी तरह पुराने अधिनियम के व्यपगत होने के संबंध में इस नये अधिनियम की धारा 24 में स्पष्टत किया गया है कि जहॉं पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के द्वारा जारी कार्यवाही में यदि धारा 11 के अधीन कोई अधिनिर्णय नहीं लिया गया है वहॉं नये अधिनियम के प्रतिकर का अवधारण किये जाने से संबंधित सभी उपबंध लागू होंगे. यदि किसी मामले में पांच वर्ष पूर्व भी कोई अधिनिर्णय लिया गया हो किन्तु भूमि का वास्तविक कब्जा नहीं लिया गया हो या प्रतिकर का संदाय नहीं किया गया हो तो वहॉं पुरानी कार्यवाही को व्यपगत करते हुए, नये अधिनियम के उपबंधों के तहत अर्जन कार्यवाही नये सिरे से आरंभ की जावेगी.

पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के स्थान पर नये भू अधिग्रहण अधिनियम के प्रभावी होने की तिथि के संबंध में केन्द्रीय सरकार के द्वारा भारत का राजपत्र (असाधारण) में दिनांक 19 दिसम्बिर 2013 को अधिसूचना जारी कर दी गई है जिसके अनुसार नया अधिनियम 1 जनवरी 2014 से प्रवृत्त हो गया है.

नये अधिनियम के प्रवृत्त हो जाने की तिथि 1 जनवरी 2014 के बाद भी छत्तीसगढ़ शासन के द्वारा हजारों एकड़ भूमि के अधिग्रहण के लिए पुराने अधिनियम के तहत् धारा 4, 6, 11 आदि का निरंतर प्रकाशन किया जा रहा है. जो मौजूदा अधिनियम के अनुसार व्यपगत कार्यवाहियॉं है. छत्‍तीसगढ़ शासन के नौकरशाह इसके लिए प्रशासनिक बौद्धिकता, कार्यालयीन श्रम, राज्‍य वित्त व समय का बेवजह व्यय करवा रहे है जो उचित नहीं है. इसके साथ ही यह भारतीय कानून एवं संविधान के प्रति जनता की आस्था पर भी कुठाराधात है. इस संबंध में सरकार एवं न्यायालय को तत्काल संज्ञान लेना चाहिए एवं पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत् व्यवहरित अधिग्रहण कार्यवाहियों पर रोक लगाया जाना चाहिए.


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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...