पंद्रहवॉं बहुमत सम्मान चंदैनी गायक रामाधार साहू को

कैबिनेट मंत्री प्रेम प्रकाश पांडेय ने मंगलवार को कहा कि बहुमत सम्मान जैसे आयोजनों से सही मायनों में लोक कला व संस्कृति का संरक्षण हो रहा है। श्री पांडेय भिलाई निवास में आयोजित रामचंद्र देशमुख बहुमत सम्मान समारोह में मुख्य अतिथि की आसंदी से बोल रहे थे। लगातार 15 वें वर्ष आयोजित समारोह में चंदैनी गायक रामाधार साहू को सम्मानित किया गया। मुख्य वक्ता कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि के कुलपति डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि मनुष्य की रचनात्मक वृत्ति जिस कला के सबसे करीब है, उसे ही लोककला कहा जाता है। अध्यक्षता महिला एवं बालविकास मंत्री रमशीला साहू ने की। विशेष अतिथि बीएसपी के डायरेक्टर इंचार्ज मेडिकल डॉ. सुबोध हिरेन ने भी संबोधित किया। विनोद मिश्र ने अतिथियों का स्वागत किया। अंत में रामाधार साहू ने अपने समूह के साथ चंदैनी गायन की प्रस्तुति दी।

कार्यक्रम में पुरस्कृत रामाधार साहू ने कहा कि जिस तरह से इंसान अपने कर्मो से पहचाना जाता है।इसी तरह यह पुरस्कार कला से पहचाना जाता है। यह कला के प्रति कलाकार का सम्मान है। कार्यक्रम में आए वक्ताओं ने कहा कि सकारात्मक रूप को लेकर कार्य करने वाले बहुत कम ही आयोजन होते है। इनमें से यह सम्मान भी है, जो पिछले १४ सालों से दिया जा रहा है। परम्पराओं और मर्यादाओं को समझकर कार्य करने वाले ऐसे सभी आयोजनों के परिणाम हमेशा दूरगामी रहे हैं।

इस कार्यक्रम में बहुमत कला विशेषांक २०१४ के ४५ वे अंक का विमोचन किया गया। इसमें विदेश भर की प्रसिद्व कहानियां सम्मिलित की गई। इन सभी चर्चित कहानियों का विदेशी भाषाओं से हिन्दी भाषा में अनुवाद किया गया। इसमें अक्षर और देह, मंगलवार का दिन, फांसिस कोचवान, चांद के उजाले में जैसी कहानियां को सम्मिलित किया गया है। कार्यक्रम में रंगकर्मी आनंद अतृप्त के नाट्य संग्रह न अटक का विमोचन किया गया है।

क्‍या है चंदैनी में लोरिक चंदा गाथा :
लोरिक चंदा प्रेम गाथा गायन अपने अलग अलग स्‍वरूप में बिहार, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में वाचिक परम्‍परा के रूप में गाया जाता है। चंदैनी का पारंपरिक गायक अहीर जाति के गायकों के द्वारा किया जाता हैं। मैथिली और मगही क्षेत्र में चदैनी को लोरिकायन, भोजपुरी क्षेत्र में लोरिकी या लोरिकायन एवं अवधी और छत्तीसगढ़ मे चनैनी या चंदैनी कहते हैं।

कथा गायन के अनुसार आरंग के राजा का नाम महर था। एक समय पनागर राज्य के बोड़र साव अपनी पत्नी और भाई कठायत के साथ आरंग आए। बोड़र साय नें आरंग के राजा महर को एक सोन पड़वा अर्थात सुनहरे रंग के भैंस का बच्चा भेंट किया। भेंट से राजा प्रसन्न हुए एवं उन्‍होंनें बोड़रसाव को रीवां का राज्‍य दे दिया। बो़ड़र साव रीवां में राज्‍य करने लगा, कालांतर में बोड़र साव का पुत्र बावन और भाई कठायत का बेटा लोरिक हुआ।

राजा महर की खूबसूरत बेटी चंदा का विवाह राजकुमार बावन से हुआ। विवाह के बाद राजकुमार बावन किशोरावस्‍था में ही, गृहस्थ जीवन त्यागकर तपस्या करने महानदी के तट पर चला गया। बाद में जब गौना का समय आया तो बोड़र साय ने अपने भाई के बेटे लोरिक से विनती करके गौना लाने के लिए दूल्हा के रूप में भेज दिया। गौना करके आते समय घने जंगल में जब चंदा ने डोली के भीतर घूंघट उठाकर अपने दूल्हे को देखा तो वह आश्‍चर्य चकित हो गई। चंदा अपने पति बावन को डोली में ना देखकर, डोली से कूदकर जंगल की ओर भाग गई। लोरिक भी असमंजस में उसके पीछे भाग, यहॉं जंगल में दोनों की बातें हुई और चंदा लोरिक से मोहित हो गई। चंदा डोली में राजमहल आ गई। इधर लोरिक और चंदा का प्रेम परवान चढ़ने लगा, लोरिक और चंदा राजमहल में चोरी छिपे मिलने लगे। इस बात की जानकारी राजा महर को लगी तो उसने चंदा पर सिपाहियों का पहरा लगा दिया। प्रेम से तड़फते दोनों नें भाग जाने का फैसला किया और भागकर दूर जंगल के बीच में महल बनाकर रहने। इधर जब राजा बावन को इस बात की जानकारी हुई तो वह नाराज होकर रीवां राज्‍य में आक्रमण कर दिया और बोड़र साव से राज्‍य छीन लिया। लोरिक बारा साल तक चंदा के साथ रहा और अपनी सेना का निर्माण करता रहा, बारा साल बाद अपने राज्य रींवा में राजा महर के सेना के उपर आक्रमण कर दिया जिसमें उसकी जीत हुई।

इस कथा के विविध रूपों में बावन के साधु होने या बावन को कोढ़ रोग होने के कारण लोरिक को गौना हेतु भेजने का उल्‍लेख आता है। इसी तरह लोरिक को राजा का भतीजा ना बताकर सामान्‍य गाय चराने वाला, आकर्षक व सुदर्शन युवक बताया जाता है। इस छत्‍तीसगढ़ी लोक गाथा के संबंध में विस्‍तृत विवरण आप डा. सोमनाथ यादव जी के ब्‍लॉग पर पढ़ सकते हैं।

चिपचिपा रिसता खून

पता नहीं कौन सा साल था वह, बचपन में उम्र क्या थी पता नहीं, वक्त भी पता नहीं, पर उजाला था आसमान में. उनींदी आंखों जब खुली तो सिर में खुजली हो रही थी. हाथ जब बालों में गई तो दर्द हुआ सिर में, दर्द हुआ उंगलियों में, कुछ चिपचिपा महसूस हुआ. झट बालों से बाहर निकले उंगलियों को जब अंगूठे नें छुआ, तो फिर दर्द हुआ. अंगूठे नें महसूस किया, आंखों नें देखा, चिपचिपे द्रव के साथ. कांछ उंगलियों में, सिर में, शरीर में, बाबूजी, दीदी के कपड़ों पर, बस में, चारो तरफ बिखरे थे. बाबूजी के सिर से भी खून बह रहा था पर उन्होंनें मुझे हिफाजत से पकड़ा था. बाहर पेंड ही पेंड, कुछ में लटो में आम, शायद जंगल था. नीचे गहरी खाई, बस का एक पहिया हवा में. पेंड से टकरा गई थी बस, खिड़कियों के शीशे हमारे शरीरों में चुभते हुए बिखर गई थी सड़क पर. बाबूजी नें कहा था एक्सीडेंट हो गया!. मेरे सिर के बालों में घुसे महीन कांछ के तुकड़े, बूंद बूंद खून सिरजा रहे थे. उंगलिंयॉं बार बार सिर खुजाने को बालों की ओर लपकती और बाबूजी मेरा हाथ रोक देते. एक बड़ा तुकड़ा भी गड़ गया था सिर में. दर्द से, जाहिर है, मेरे आंसू निकल रहे थे और मुह से नाद. अगले कुछ पलो में बस से सब अपना अपना सामान लेकर उतर गए. नीचे सड़क पर कांछ के साथ बस के आस पास बिखरे थे आम. बाबूजी के एक हाथ में भारी बैग दूसरे में मेरा हाथ. मैं दर्द भूलकर आम उठाने झुका और एक आम उठा भी लिया. बाबूजी नें अपने बंगाली के कंधे से सिर से आंख में बहते हुए खून को पोंछा और मुझे एक भद्दी सी छत्तीसगढ़ी गाली दी. मर रहे हैं और तुझे आम सूझा है. उन्होंनें शब्दों को आगे जोड़ते हुए कहा, तब तक मेरे खून सने हाथों नें आम को मुह तक पहुचा दिया था. दूसरी बस कब आई, कब हम जगदलपुर पहुंचे, मुझे नहीं पता.

किन्तु आज भी, जब कभी भी, बस्तर के जंगलों में हो रहे मार काट में किसी मानुस के खून बहने की खबर, समाचारें लाती है. मेरी उंगलियॉं मेरे सिर के बालों में अनायास ही चली जाती है. उंगलियॉं महसूसती है, चिपचिपा रिसता खून, और सिर में दर्द होने लगता है.
.. तमंचा रायपुरी.


हमारी भाषा एवं संस्कृति का जो मान नहीं रखेगा उसे हम जूता मारेंगें

पिछले दिनों कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष भूपेश बघेल के द्वारा मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह के लिए की गई टिप्पणी 'परोसी के भरोसा लईका पैदा करे' पर बहुत शोर शराबा हुआ एवं मीडिया नें भी इसे बतौर समाचाार लगातार छापा. इस बीच कुछ पत्रकार मित्रों के फोन भी आए कि इस कहावत पर जानकारी दूं एवं इस पर त्वरित टिप्पणी भी दूं. किन्तु मेरी निजी व्यस्तता व समयाभाव के कारण कुछ लिख नहीं पाया. भूपेश बघेल नें अपनी टिप्पणी 'परोसी के भरोसा लईका पैदा करे' पर सफाई दिया कि यह छत्तीसगढ़ी लोकोक्ति है जिसका अर्थ है किसी अन्य के श्रम से सफलता प्राप्त करना. धान के मूल्य वृद्धि के लिये केन्द्र को लिखे पत्र को आधार बनाकर बधेल नें मुख्यमंत्री को घेरा था.

केन्द्र के पैसे से मुख्यमंत्री वाहवाही लूटना चाहते हैं इस बात को प्रभावी ढंग से कहने के लिए भूपेश बघेल नें यह टिप्पणी की थी. भाजपा के विजय बघेल नें इसे स्तरहीन व भद्दी टिप्पणी मानते हुए धरना प्रदर्शन भी किए थे. पलटवार करते हुए भूपेश बघेल टिप्पणी के विरोध को छत्तीसगढ़ी भाषा संस्कृति का विरोध बताते हुए अपनी बात पर अड़े रहे.

जब पत्रकार मित्रों नें इस मुहावरे/लोकोक्ति का जिक्र किया तभी एकबारगी दिमाग नें इसे छत्तीसगढ़ी मुहावरा/लोकोक्ति के रूप में स्वीकार नहीं किया था तो इस बीच मै इसे पूर्व प्रकाशित पुस्तकों में ढ़ूढ़ने का काम भी करता रहा. किताबों में यह ना तो मुहावरे के रूप में मिला ना ही लोकोक्ति के रूप में. गांवों में कुछ फोन भी घुमाया, तब तक समाचार पत्रों नें बात फैला दी थी और लगा कि लोग राजनीति से प्रेरित होकर जवाब दे रहे हैं. कुछ स्पष्ट लोगों नें कहा कि यह ना तो प्रचलित मुहावरा है और ना ही प्रचलित लोकोक्ति, यह हो सकता है कि यदा कदा या किसी गांव विशेष में इसका प्रयोग हो रहा हो किन्तु बहुत बड़े भू भाग में इसका प्रयोग नहीं सुना गया है. इसी कारण इस बात पर छत्तीसगढ़ी के किसी आम—खास नें बयान नहीं दिया. छत्तीसगढ़ी भाषा में कई ऐसे मुहावरे व लोकोक्तियॉं हैं जो अश्लील हैं, किन्तु व्यवहार में उन मुहावरों का प्रयोग सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाता. भूपेश बघेल के द्वारा प्रयुक्त टिप्पणी अश्लील नहीं है, किन्तु इसका प्रयोग मुख्यमंत्री के लिए सार्वजनिक मंच से नहीं किया जाना चाहिए था.

कल सदन में हुए बहस में भूपेश नें इसी बात को संयमित तरीके से कहा. उनके मुख्यमंत्री के अन्य प्रदेश से आने की बात पर प्रेम प्रकाश पाण्डेय की बहस हम छत्तीसगढ़ियों के लिए सामान्य बात नहीं है. यह सत्य है कि छत्तीसगढ़ के मूल निवासी आदिवासी ही हैं बाकी सभी इस भू भाग में बाद में ही आए हैं किन्तु जो हमारी भाषा एवं संस्कृति का मान नहीं रखते वहीं असल में गैर छत्तीसगढ़िया हैं. इसमें कोई दो मत नहीं कि मुख्यमंत्री ठेठ छत्तीसगढ़िया हैं, हॉं यह अवश्य है कि मंत्रीमंडल के कुछ सदस्य सिर्फ दस्तावेजी आधार पर छत्तीसगढ़िया हैं. ऐसे दस्तावेजी छत्तीसगढ़िया यदि छत्तीसगढ़ी भाषा एवं संस्कृति का मान नहीं रख सकेंगें तो जनता मौके पर मजा चखाती भी है. प्रेमप्रकाश पाण्डेय के संबंध में कहा जाता था कि पिछले विधान सभा अध्यक्ष काल में उन्होंनें अपने पास बिहारियों का आभामण्डल बना कर रखा था, छत्तीसगढ़ी भासियों का पीपीपी के बंगले में कोई पुछंतर नहीं था, इसीलिये जनता नें उन्हें हरा दिया था. इस विधान सभा चुनावी समय में कुछ दिनों मैंनें पीपीपी के बंगले एवं क्षेत्र का हालचाल लिया है जहॉं छत्तीसगढ़ियों के लिए आशा की किरण नजर आई है. उन्होंनें अपने व्यक्तित्व पर लगे बहुत सारे तथाकथित मिथकों को तोड़ा है और जीत के आए हैं. वैसे राजनीति और प्रेम में सब जायज है. तो हम क्यूं फोकट में बहसियायें.

छत्तीसगढ़ के भिलाई जैसे औद्यौगिक क्षेत्रों में विभिन्न प्रदेशों के लोग रहते हैं, जिनमें से अधिकतम लोग छत्तीसगढ़ी बोल नहीं सकते. छत्तीसगढ़ी नहीं बोल पाना कोई अपराध नहीं है, हमारी भाषा का मान नहीं रखना अपराध है. खासकर ऐसे क्षेत्रों के नवधनाड्यों के घरों में यह परिपाटी के तौर पर देखनें को मिलता है क्योंकि उनके घरों में काम करने वाले निचले तबके के कर्मचारी छत्तीसगढ़ी भाषी होते हैं. वे समझते हैं कि छत्तीसगढ़ी दीनों की भाषा है, इस संबंध में एक अनुभव मैं आप सब से शेयर करना चाहता हूं. लगभग सात—आठ साल पहले आरकुट के दिनों में मैंनें आरकुट में छत्तीसगढ़ी मुहिम चलाई थी तब भिलाई के एक बहुत ख्यात डाक्टर की युवा पुत्री नें अंग्रेजी में मुझे कमेंट किया था कि छत्तीसगढ़ी गई उसके 'एश होल' में. मैं इसे तूल नहीं देना चाहता था और उस समय प्रतिरोध के तरीको ​का मुझे भान नहीं था इसलिए चुप रहा. किन्तु अब जब नुक्कड़ से लेकर सदन तक बात छत्तीसगढ़िया की आ गई तो इस पर सनद के तौर पर कुछ लिख देना आवश्यक जान पड़ा. सो नोट किया जाए हमारी भाषा एवं संस्कृति का जो मान नहीं रखेगा उसे हम जूता मारेंगें.

तमंचा रायपुरी



ओंकार ..... नत्‍था ..... पीपली लाईव .... और एड्स से मौत

पिछले पंद्रह दिनों से मीडिया में चिल्‍ल पों चालू आहे, ओंकार .... नत्‍था ....... पीपली लाईव ....... आमीर खान ....... अनुष्‍का रिजवी। यहां छत्‍तीसगढ़ भी इस मीडिया संक्रामित वायरल के प्रकोप में है। रोज समाचार पत्रों में ओंकार से जुडे समाचार कहीं ना कहीं किसी ना किसी रूप में प्रकाशित हो रहे हैं। हमें भी मीडिया से जुडे साथियों के फोन आ रहे हैं कि नत्‍था पर कुछ लिखो, फीचर पेज के लिए नत्‍था पर सामाग्री चाहिए। ....... पर अपुन तो ठहरे मांग और शव्‍द संख्‍या के परिधि से परे कलम घसीटी करने वाले ....... सो लिखने से मना कर दिया है। ... पर लिखना जरूर है सो कैमरा बैग में डालकर पिछले सात दिनों से आफिस जा रहे हैं, शायद समय मिल जाए तो ओंकार के घर जाकर उसके परिवार का फोटो ले लें।

 ओंकार का घर मेरे सुपेला कार्यालय से बमुश्‍कल एक किलोमीटर दूर होगा, पर मुझे पांच मिनट के लिए भी समय नहीं मिल पा रहा है। ओंकार स्‍वयं एवं उसके दोस्‍त यार भी व्‍यस्‍त हैं मेल-मुलाकात चालू है इस कारण उसका मोबाईल नम्‍बर भी नहीं मिल पा रहा है। बात दरअसल यह है कि पीपली लाईव के पहले खस्‍ताहाल ओंकार का मोबाईल नम्‍बर रखने की हमने कभी आवश्‍यकता ही नहीं समझी, बल्कि उसे हमारा नम्‍बर अपने गंदे से फटे डायरी में सम्‍हालनी पड़ती थी और हम उसके नचइया गवईया किसी दोस्‍त को हांका देकर बुलवा लेते थे। .... खैर वक्‍त वक्‍त की बात है। हबीब साहब के दिनों में नया थियेटर की प्रस्‍तुतियों में भी ओंकार का ऐसा कोई धांसू रोल नहीं होता था कि प्रदर्शन देखने के बाद ग्रीन रूम में जाकर ओंकार को उठाकर गले से लगा लें ...  हाथ तक मिलाने का खयाल नहीं आता था क्‍योंकि हबीब साहब के सभी हीरे नायाब होते थे। वह 'महराज पाय लगी ....' कहते हुए स्‍वयं हमसे मिलता था।
कल रविवार डाट काम में रामकुमार तिवारी का पीपली पर एक आलेख पढ़ा तो लगा यहां ओंकार के लिए वही लिखा गया है जो मैं महसूस करता हूं। नत्‍था के इस ग्‍लैमर को ओंकार को बरकरार रखना होगा, उसे और मेहनत करनी होगी। नत्‍था आमीर के प्रोडक्‍ट को बाजार में हिट कराने का एक साधान मात्र था, अब ओंकार को अपने जन्‍मजात नत्‍थेपन को सिद्ध करना होगा। यदि ओंकार पर नत्‍था हावी हुआ तो उसके जीवन के अन्‍य  पीपली लाईवों में वह लाईव नहीं रह पायेगा क्‍योंकि उसकी मांग उसके सामान्‍य होने में ही है। जैसा कि कुछ पत्रकार मित्रों नें कहा कि नत्‍था के तेवर कुछ बदले हुए से हैं, खुदा करे ऐसा ना हो। पिछले दिनों ओंकार के भिलाई वापस आने के पहले मैनें अपने सहयोगी जो ओंकार के पुत्र का मित्र है को ओंकार के घर भेजा कि मैं उनसे मिलना चाहता हूं वे मुझसे मिलने को समय देंगें क्‍या, पर ओंकार की पत्‍नी नें झुझलाते हुए कहा कि 'हलाकान होगेन दाई ..................'
अब ओंकार से अपने संबंधों को कुरेदने लगा हूं, कड़ी पे कड़ी जोडने लगा हूं यह बताने जताने के लिए कि नत्‍था से मेरा परिचय किस कदर लगोंटिया रहा है। पर पीपली लाईव को देखते हुए दूर मानस में राजू दुबे का नाम भी उभर रहा है, अभी पिछले दिनों ही तो मैं उसके भयंकर रूप से बीमार होने की खबर पर उसे देखने गया था और खबर यह है कि अभी कुछ दिन पहले ही उसकी भी मौत हो गई। कोई मीडिया नहीं, कोई सरकारी कर्मचारी नहीं, कोई नेता नहीं। एक खामोश मौत जैसे पीपली लाईव में उस मिट्टी खोदने वाले की हुई थी। ऐसी मौत तो हजारों हो रही है पर ये खिटिर-पिटिर क्‍यूं, मन कहता है, ... तो नत्‍था के मौत से इतना बवाल क्‍यूं ... मन फिर कहता है, वो आमीर के फिल्‍म में नत्‍था की मौत है ..... हॉं ....  बेमेतरा से कवर्धा जाने वाली रोड के किनारे स्थित एक गांव उमरिया में राजू दुबे की एड्स से मौत हुई है जो मेरा रिश्‍तेदार था। हॉं ठीक है ... एड्स से मरा है तो चुप रहो ना, किसी से क्‍यू कहना कि मेरा रिश्‍तेदार एड्स  से मर गया, नाहक अपनी इज्‍जत की वाट लगा रहे हो। नत्‍था से रिश्‍तेदारी की बात करो राजू दुबे को भल जाओ।
राजू दुबे को भूलना संभव नहीं क्‍योंकि राजू दुबे सचमुच मेरा रिश्‍तेदार था, उसके मां बाप बेहद गरीब हैं वह एक ट्रक ड्राईवर था, लाईन में उसे ये बीमारी लगी और उसने अपने उस बीमारी को अपनी पत्‍नी ... और संभत: अगली पीढ़ी में रोप गया और यही भूल पाना मुश्किल हो रहा है जिन्‍दा लाशों को देखकर। उसकी मौत तो हो गई अब पीढि़यों को उसके पाप को बोझा ढोना है, एक कम उम्र की पतिव्रता  पत्‍नी को छिनाल पति के विश्‍वास के मुर्दे को गाढ़ कर .......  जब तक सांसे हैं .....  जिन्‍दा रखना है। पिछली मुलाकात में राजू दुबे की मॉं ने बहुत खोदने पर अपना विश्‍वास प्रस्‍तुत किया था कि गांव के डाक्‍टर नें सुई नहीं बदला और फलाना का रोग इसे हो गया। मैं इसे स्‍वीकारने को तैयार नहीं हूं, राजू दुबे की प्रवृत्ति उत्‍श्रंखल थी, चाहे एक बार भी हो उसको वह रोग असुरक्षित शारिरिक संपर्कों से ही हुआ होगा, किन्‍तु मॉं को उसने जो विश्‍वास दिलाया है उसे वो कायम रखे हुए है, उसके मरने बाद भी और संभवत: अपने मृत्‍यु पर्यंत, क्‍योंकि वह मॉं है।

साथियों राजू दुबे की पत्‍नी एचआईवी पाजेटिव पाई गई है, उसका बच्‍चा सुरक्षित है किन्‍तु उसकी पत्‍नी को वर्तमान में टीबी है और गांव में इलाज चल रहा है, बच्‍चे का भविष्‍य असुरक्षित है। एड्स के क्षेत्र में कोई एनजीओ यदि छत्‍तीसगढ़ में कार्य कर रही हो तो मुझे बतलांए कि उस पीडित परिवार तक कैसे और किस हद तक सहायता पहुचाई जा सकती है।
राजू दुबे की मृत्‍यु के बाद मैं उस गांव में गया जहां के डाक्‍टर के सूई पर आरोप थे, लोगों से चर्चा भी किया तो लोगों नें कहा कि सरकारी आकड़ों की बात ना करें तो यहां इस गांव में दस बीस एड्स के मरीज होगें और लगभग इतने ही इस गांव के मूल निवासी भी एड्स मरीज होगें जो वर्तमान में अन्‍यत्र रहते हैं। इतनी बड़ी संख्‍या में एक गांव में एड्स के मरीज पर शासन प्रशासन चुप है, उसे पता ही नहीं है राजू दुबे जैसे कई एड्स संक्रमित उस गांव में हैं, जानकारी लेने पर यह भी ज्ञात हुआ कि वहां ड्राईवरों की संख्‍या भी बहुत है। अब ऐसे में एड्स पर काम करने वाले एनजीओ और स्‍वास्‍थ्‍य विभाग कान में रूई डाले क्‍यू बैठी है समझ में नहीं आता। क्षेत्रीय मीडिया को भी इसकी जानकारी नहीं है क्‍योंकि यह बाईट नत्‍था के मौत की नहीं है राजू दुबे की मौत की है।

मेरी अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं : प्रेम साइमन का विरोध

विश्व रंगमंच दिवस पर नेहरू सांस्कृतिक सदन सेक्टर-१ में शनिवार को तीन नाटकों का मंचन किया गया। भिलाई के रंग कर्मियों और क्रीड़ा एवं सांस्कृतिक समूह बीएसपी के सहयोग से आयोजित इस कार्यक्रम में नाटकों का मंचन कर रंगकर्मियों ने दर्शकों को संदेश दिया। इस मौके पर इप्टा द्वारा रमाशंकर तिवारी, श्रीमती संतोष झांझी और चंद्रशेखर उप्पलवार का सम्मान किया गया।
कार्यक्रम में प्रोफेसर डीएन शर्मा और वरिष्ठ साहित्यकार रवि श्रीवास्तव विशेष रूप से उपस्थित थे। इस मौके पर बालरंग द्वारा अदालत, आह्वान संस्था द्वारा विरोध और वयम द्वारा नृत्य नाटिका की प्रस्तुति दी गई। छत्तीसगढ़ के प्रख्यात नाटककार स्व. प्रेम साइमन द्वारा लिखे गए नाटक "विरोध" की प्रभावी मंचन किया गया। इसमें खोखले विरोध, दिशाहीन विरोधियों और उनका एक सूत्रीय मुद्दा सत्ता हथियाना दिखाया गया। ये लोग बिना किसी मुद्दे के अपनी लड़ाई लड़ते हैं और छोटी से छोटी हड्डी देखकर तलवे चाटने लगते हैं। सर्वहारा को अंधे भिखारी के रूप में दिखाया गया जो पहले तो विरोधियों का साथ देता है लेकिन उनकी असलियत देख उससे अलग हो जाता है। सत्ता, अंधे के विरोध को विद्रोह के स्वर में बदलने से पहले ही दबा देना चाहती है। नाटक के अंत में इस पूरे घटनाक्रम को देख महात्मा गांधी की प्रतिमा सजीव हो उठती है और अपने पूरे दर्शन शास्त्र को बदलते हुए शोषित वर्ग को ही अपनी लाठी पकड़ाते हुए कहते हैं "मेरी अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं हैं" इसी सूत्र वाक्य के साथ नाटक का समापन होता है।
"विरोध" के नाट्य निदेशक भिलाई के रंगकर्मी यश ओबेराय थे, प्रदीप शर्मा ने अंधे भिखारी, अनिरुद्ध श्रीवास्तव ने मोची तथा वाजिद अली, विजय शर्मा, टी सुरेंद्र ने विरोधियों, सुरेश गोंडाले ने हवलदार, श्रीमती शरदिनी नायडू ने नेता की भूमिका निभाई, गांधी हरजिंदर मोटिया बने थे।
नाटकों के मंचन के पूर्व विश्व रंगमंच दिवस पर आयोजित एक गोष्‍ठी में इप्टा के मणिमय मुखर्जी ने विश्व रंगमंच दिवस पर संदेश का पठन किया। यह संदेश इंटरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट द्वारा प्रेषित किया गया था जो कि यूनेस्को की एक इकाई है। ब्रिटिश अभिनेत्री एम जूडी डैंच द्वारा अंग्रेजी में भेजे संदेश का श्री मुखर्जी ने हिंदी में अनुवाद कर वाचन किया। उन्होंने कहा कि विश्व रंगमंच दिवस नाटक के अनगिनत रूपों को मनाने का मौका है। रंग मंच मनोरंजन व प्रेरणा स्रोत है और उसमें सारी दुनिया की विविध संस्कृतियों तथा जनगणों को एकताबद्ध करने की क्षमता है। लेकिन रंगमंच इसके अलावा भी बहुत कुछ है। नाटक सामूहिक कर्म से जन्म लेता है।
इस अवसर पर वरिष्ठ रंगकर्मी यश ओबेराय ने कहा कि भिलाई में रंगमंच पर बच्चों के लिए ज्यादा से ज्यादा काम होना चाहिए। थिएटर वर्कशॉप करने से रंगमंच के प्रति लोगों का रूझान बढ़ेगा। श्री ओबेराय का कहना था कि रंगमंच का कोई विकल्प नहीं है। रंगमंच जो संतुष्टि दर्शक व कलाकार को देता है उसकी कोई दूसरी विधा नहीं है। रंगमंच समाज का आइना है और यह विधा कभी समाप्त नहीं हो सकती। छत्तीसगढ़ में ढाई हजार साल पुरानी नाट्य शाला मौजूद है, पुराना इतिहास है। रंगमंच के क्षेत्र में भिलाई का अहम योगदान है।
विश्व रंगमंच दिवस पर नेहरू सांस्कृतिक सदन सेक्टर-१ में आयोजित इस संपूर्ण कार्यक्रमों में हमारे ब्‍लागर साथी बालकृष्‍ण अय्यर जी भी उपस्थित थे एवं उन्‍होंनें भी रंगमंच पर अपने विचार रखे.

मैं हमेशा की तरह नेहरू सांस्कृतिक सदन सेक्टर-१ थियेटर के अंतिम पंक्तियों के कुर्सी में बैठे इस कार्यक्रम का लुफ्त उठाता रहा.
'विरोध' के अंतिम दृश्‍यों के पूर्व ही घर से श्रीमतीजी का फोन आया. कि पहले घर बाद में समाज और फिर देश की चिंता कीजिए. सुबह 9 से रात के 9 बजे की ड्यूटी के बीच भी 'नौटंकी' और साहित्‍य के लिए समय चुरा लेते हो पर घर के लिये समय नहीं होता. इस उलाहना मिश्रित विरोधात्‍मक फोन आने पर मैं 'गृह कारज नाना जंजाला' भुनभुनाते हुए बिना मित्रों से मिले झडीराम सर्वहारा बनकर दुर्ग अपने घर आ गया.

क्या इंटरनेट परोस रहा है नक्सल विचार धारा ??

गूगल सर्च में यदि आप अंग्रेजी एवं हिन्दी में ‘नक्सल’ शब्द को खोंजें तो लगभग पांच लाख पेज की उपलब्धता नजर आती है. इन पांच लाख पेजों पर सैकडों पेजों के लिखित दस्तावेज, चित्र व फिल्मो के क्लिपिंग्स उपलब्ध हैं जिनमें से कईयों मे, लाल गलियारे को स्थापित करने वाली विचारधारा को हवा दी गई है. इन पेजों में घृणा का बीज बोंते लोग भी हैं तो मावोवादी विचारधारा के विरूद्ध आवाज उठाने वाले लोग भी हैं जो टिमटिमाते दिये के सहारे इस हिंसक विचारधारा के अंधेरे को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं.

सैकडों व हजारों की संख्या में प्रतिदिन क्लिक होने वाले. खूब पढे जाने वाले इन ब्लागों में शहीद कामरेडों के चित्रों, छत्तीसगढ में हुए तथाकथित पुलिस बर्बरता के किस्से, फर्जी मुठभेडों व शोषण के शब्द चित्रों, बलत्कार के वाकयों को बयां करते लेखों व विचारों की अधिकता है. इसके साथ ही मानवतावा‍दी विचारधारा वाले व हिंसा से विरत रहने के अपील करते लेखों व नक्सल समस्या पर सार्थक विमर्श करते ब्लागों की भी कतारें  हैं. इसके अतिरिक्त नेट में फैले तथाकथित मानवतावादी, खालिस मावोवादी, नक्सलवादी व जनवादियों एवं बस्तर, नक्सल व छत्तीसगढ के मुद्दों पर बहस करने वालों या इन पर कलम चलाने वालों की भी लम्बी फेहरिश्त है. समाचार सूचना के अन्य माध्यम व पिंट मीडिया को जिसके लिये सेंसर, नैतिक कर्तव्य व सरकारी मंशा के साथ ही बहुसंख्यक जनता का ध्यान रखते हुए लेखन व प्रकाशन करना पडता है. वहीं इन पोर्टलों व ब्लागों में सीधे जमीन से उपजे समाचार व आन्दोलित कर देने वाले विचारों का पुलिंदा वीडियों, आडियो व फोटो सहित नेट में प्रतिदिन प्रकाशित हो रहे हैं. पुलिस संभावित आरोपियों के घरों से नक्सल साहित्य के नाम पर तलासी में सिर खपाती रही है और यहां ये हाईटेक लोग अपने दस्तावेज आनलाईन कर मुफ्त में हर किसी के लिए उपलब्ध करा रहे हैं. खून को खौलाने के हर हथकंडे अपनाए जा रहे हैं और वाद व विचारधारा के शब्दजाल बुनकर जनमानस को अपने पक्ष में करने का चक्र-कुचक्र जारी है.

वर्तमान में छत्तीसगढ व नक्सली मुद्दों पर ज्यादातर अंग्रेजी में पोर्टल व ब्लाग उपलब्ध हैं. जिनमें ब्लागों की संख्या अधिक है. विश्व सुलभ भाषा अंग्रेजी में होने के कारण बस्तर या छत्तीसगढ के नक्सल व सलवा जुडूम के संबंध में जो जानकारी यहां है वह संपूर्ण विश्व के पाठकों तक उसी रुप मे सर्वसुलभ हो जा रही है. यह भी हो सकता है कि ये ब्लाग के लेखक छत्तीसगढ में ही बैठकर अपना विरोध और अपने चिंतन को तथ्यात्मक रूप से सप्रमाण (ऐसा उनका मानना है) वहां परोस रहे हों. जैसा वहां प्रस्तुत हो रहा है वैसा ही विश्व बौद्धिक समाज उसे ग्रहण कर रहा है और छत्तीसगढ शासन व पुलिस के विरूद्ध मानसिकता तैयार हो रही है. इंटरनेट में फैलाये जा रहे इस तथाकथित वैचारिक क्रांति की संवेदनशीलता इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि विगत दिनों पुलिस प्रमुख व नक्सली प्रवक्ता गुडसा उसेडी एवं सुभ्रांशु चौधरी के बीच जो विमर्श का दौर छत्तीसगढ समाचार पत्र में प्रकाशित हो रहे थे उसमें पुलिस प्रमुख विश्वरंजन जी नें लिखा था कि उन्हे इंटरनेट में हो रहे छत्तीसगढ शासन व पुलिस विरोधी हलचलों की जानकारी गूगल रीडर व एलर्ट से त्वरित रूप से हो जाती है. यानी डीजीपी स्वयं नक्सल विचारधारा के नेट दस्तक के प्रति संवेदनशील हैं. और ... नेट में ऐसे दस्तक प्रतिदिन हो रहे हैं.

सलवा जुडूम,डॉ.बिनायक सेन, अजय जीटी का मसला संपूर्ण विश्व में किस कदर छाया इसका उदाहरण बर्कले मे सामने आया. अमेरिका के सर्वाधिक प्रतिष्ठित बर्कले विश्वविद्यालय में आयोजित एक सम्मेलन मे  संपूर्ण विश्व के चिंतको के सामने छत्तीसगढ के डीजीपी विश्वरंजन जी के विरूद्ध वहां के छात्रो ने ‘विश्वरंजन वापस जावो’ जैसे नारे लगाए और तख्तियां टांगनें पर उतारू हो गए. यह सब पूर्वनियोजित तरीके से नियमित रूप से इंटरनेट के माध्यम से छत्तीसगढ विरोधी खबरें विश्व के कोने कोने में फैलाये जाने से हुआ. बर्कले विश्वविद्यालय कैलीफोर्नियां में दक्षिण एशियाई संगठन के छात्र, प्रिस्टन, हार्वड, येल और अन्य जानेमाने विश्वविद्यालयों के छात्र व शिक्षक एक सुर में छत्तीसगढ शासन व पुलिस के विरोध में खडे हो गए. हालांकि छत्तीसगढ से उस कार्यक्रम में शिरकत करने वाले डीजीपी एवं छत्तीसगढ के संपादक सुनील कुमार जी नें दमदारी से अपना पक्ष रखा था. विदित हो कि संपूर्ण विश्व में इस बडे आयोजन का हो – हल्ला हुआ था, विश्व के प्रबुद्ध समाज इससे वाकिफ हुआ था या इससे वाकिफ कराया गया था. विदेशों में खासकर इंडोनेशिया के महीदी, सीयरालियोन के कामजोर, सूडान के जंजावीद, रवांडा, चाड, आफ्रीका व विश्व के तमाम जन मिलिशियाओं के चिंतकों व शुभचिंतकों तक बस्तर की संवेदनाओं को बांटने एवं उनके समर्थकों/विचारकों को बस्तर के विषय में गंभीर होने एवं अपना समर्थक बनाने में कारगर माध्यम बनने के लिए इंटरनेट बेताब है, यह बर्कले में स्पष्ट हो गया.

इन परिस्थितियो मे नेट मे सक्रिय छत्तीसगढ के हितचिंतको का चिंतन आवश्यक है. क्योकि वर्तमान मावोवादी विचारधारा किसी भौतिक बारी बखरी से सुविधाविहीन नेतृत्व के द्वारा आरंभ होकर अब पूर्णतया सुविधा सम्पन्न एवं तकनीकि सूचना तंत्रों के बेहतर जानकार लोगों के नेतृत्व में फल-फूल रही है. अब नक्सल विचारधारा के पोषक इंटरनेट के द्वारा संपूर्ण विश्व में अपने वाद को उचित ठहराने के उद्देश्य से सक्रिय हैं. यह विश्वव्यापी त्वरित प्रभावी सूचना तकनीकि बहुत ही सहज व सरल है इस कारण उनकी बातों को स्वीकारने वाले एवं उनके पक्षधर पाठकों की संख्या में दिनो दिन इजाफा हो रहा है. वे अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए बस्तर एवं देश के अन्य नक्सल प्रभावित क्षेत्र की तस्वीर जिस रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, उनके पाठक उसी रूप में उसे स्वीकार कर रहे हैं और तथाकथित क्रांति के इस यज्ञ में अपने अपने सामर्थनुसार हबि डालने को उत्सुक नजर आ रहे हैं. दूसरी तरफ इस बात की सच्चाई उजागर करने वालों की जमात इंटरनेट की दुनिंया में कम है. यदि है भी तो वे स्पष्ट रूप से सरकार या पुलिस से प्रायोजित प्रतीत हो रहे हैं जिसके कारण उनकी विश्वसनीयता सामान्य पाठक के लिए संदिग्ध है.

पिछले दिनों भिलाई के आसपास छुपाये गए हथियारों के जखीरों के मिलने पर पूर्व मंत्री भूपेश बघेल जी द्वारा शासन व पुलिस की भर्त्सना एवं न‍क्सलियों के विरूद्ध वैचारिक क्रांति का जो शंखनाद किया था उस वक्त समाचार पत्रों नें हथियारों के इस खेल को ‘नक्सलियों के शहरी नेटवर्क’ का नाम दिया था. डीजीपी विश्वरंजन जी नें भी पिछले दिनों भोपाल में कहा था कि भारत में कुल हिंसक वारदातों में से 95 प्रतिशत हिस्सा मावोवादी हिंसा है. इसके साथ ही उन्होनें यह भी कहा कि नक्सलियों के दो तरह के कार्यकर्ता होते हैं एक पेशेवर और दूसरे जो अंशकालिक तौर पर और कोई दूसरा काम करते हुए उनका शहरी नेटवर्क. मेरी समझ के अनुसार यह शहरी नेटवर्क संचार तंत्र का भरपूर उपयोग करता है और सहीं मायनों में यही धुर जंगल में कैम्प कर रहे लोगों तक विचारों को थोपता है. व्यापक रूप से इन्ही शहरी नेटवर्कों का माइंड वाश किया जाना आवश्यक है. क्योकि शहरी नेटवर्क के बिना नक्सली पंगु हो जावेंगें. शायद इसे ही विगत दिनों विचारकों के द्वारा ‘स्‍ट्रेटेजिक हैमलेटिंग’ कहा-समझा गया. मेरा विचार है कि इन शहरी नेटवर्कों के द्वारा जिस प्रचुरता से इंटरनेट में नक्सल व मावो समर्थित लेख व सलवा जुडूम के विरोध में लेख परोसे जा रहे हैं उसी प्रचुरता से उन विचारधाराओं के समीक्षात्मक व वास्तविक चित्रण प्रस्तुत करते हुए विचार व समाचार नेट में भी उपलब्ध हों. ताकि दुनिया में छत्तीसगढ की सही तस्वीर प्रस्तुत हो सके.

संजीव तिवारी

छत्तीसगढ के असुर: अगरिया

जनजातीय समाज के लोग अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से अपनी संस्कृति, परंपरा व प्रकृति को धरोहर की भांति निरंतर सहेजते रहे है, एवं समयानुसार इन्हें सवांरते भी रहे है. आज के विकसित समाज के मूल में इस भूगोल के प्राय: सभी हिस्‍सों में, जनजातीय संस्कृति उनकी परंपरांए उनमें प्रचलित मिथक और विश्‍वास गहराईयों में सुसुप्‍त किन्‍तु जीवंत हैं. छत्तीसगढ सनातन काल से ही इन जनजातीय समाज का बसेरा रहा है जहां संस्कृतियां फली फूली हैं. इन्ही आदिम जनजातियों में से अगरिया ऐसी जनजाति है जिनका जीवन लोहे और आग का लयबद्धत संगीत है.

The  Tribes and Castes of the Central Provinces of India By R.V. Russell   


छत्‍तीसगढ़ सहित भारत के विभिन्‍न क्षेत्र में निवासरत अगरिया लोग अपनी उत्पत्ति को वैदिक काल से संबद्ध मानते हैं. जब समुद्र मंथन हुआ और देवताओं के द्वारा संपूर्ण अमृत अकेले प्राप्त कर लेने हेतु चतुर चाल चले गए तब असुरों नें अमृत घट चुरा लिया था. जिसे छल से स्त्री वेष धर कर विष्‍णु नें वापस प्राप्त किया और भागने लगे तब असुरो के देवता राहु नें उनका पीछा किया जिससे पीछा छुडाने के लिए सूर्य देव नें चक्र से राहु का सिर धड से अलग कर दिया. राहु का धड विष्‍फोट के साथ पृथ्वी पर गिरा और जहां जहां उसके शरीर के तुकडे गिरे वहां वहां पृथ्वी में असुर पैदा हुए. धड विहीन राहु आकाश में भ्रमण करते हुए प्रतिशोध स्वरूप सूर्य को अवसर प्राप्त होने पर ग्रसते रहता है. यही राहु अगरियों का आदि देव है. जो कालांतर में इनके नायक लोगुंडी राजा एवं ज्वालामुखी, करिया कौर हुए जो अपने अलग-अलग रूप में आज भी पूजे जाते हैं.

अगरियों से परे तथ्यात्मक संदर्भों का अवलोकन करने पर वैरियर एल्विन कहते हैं कि ‘उनकी उत्पत्ति अस्पष्‍टता के गर्त में है किन्तु पौराणिक असुरों से अपने आप को जोडने की उनकी धारणा रोचक है.’ लोहे के इतिहास पर यदि नजर डालें तो युद्धों में मारक अश्‍त्रों का उपयोग ई.पू.2000 से 1000 के बीच से आरंभ है. प्राचीन इतिहासकार हेरोडोट्स लिखता है कि जेरेक्सेस की सेना के भारतीय योद्धा लोहे के बडे फलों वाले भाले से सुसज्जित थे. यानी भारतीय लोहे का सफर विदेशों तक तब भी हो रहा था. भारतीय लोहे की गुणग्राह्यता के संबंध में डब्लू.एच.शैफ नें द इस्टन आयरन ट्रेड आफ रोमन एम्परर में लिखते हैं कि प्राचीन रोम में तद्समय ज्ञात सर्वोत्तम किस्म के स्टील का आयात भारत से होता था. अयस्कों को आदिम विधि से पिघलाकर बनाया गया लोहा तद्समय के बहुप्रतिष्ठित समाज के लिए सर्वोत्तम स्टील रहा है. और संपूर्ण विश्‍व में इस सर्वोत्तम स्टील को बनाने वाले भारत के अगरिया रहे हैं.

अरबी इतिहासकार हदरीषी नें भी लोहे के उत्पादन में हिन्दुओं की प्रवीणता को स्वीकारते हैं वे कहते हैं कि हिन्दुओं के बनाए गए टेढे फलों वाली तलवारों को किसी अन्य तलवारों से मात देना असंभव था. उन्होंनें आगे यह भी लिखा कि हिन्दुस्तान में अयस्कों से लौह निर्माण व हथियार निर्माण करने के निजी कार्यशालाओं में विश्‍व प्रसिद्ध तलवारें ढाली जाती थी. एक और इतिहासकार चार्डिन कहता है कि पर्शिया के लडाकों के लिए बनने वाले तलवारों को ढालने के लिए भारतीय लोहे को मिलाया जाता था क्योंकि भारतीय लोहा पर्शियन के लिए पवित्र था और उसे श्रद्धा से देखा जाता था जिसे इतिहासकार डूपरे नें भी स्वीकार किया था.

The Tribes and Castes of the Central Provinces of India By R.V. Russell
अन्य उल्लेखों में फ्रांस का व्यापारी ट्रेवेनियर को गोलकुंडा राज्य के लौह कर्मशालायें बेहद पसंद आई थी जहां तलवारें, भाले, तीर ढलते थे, उसे गोलकुंडा में ढलने वाले बंदूक के पाईप भी बहुत अच्छी गुणवत्ता के नजर आये थे जो बारूदों के प्रभाव से पश्चिमी देशों के बंदूकों की तरह फटते नहीं थे. ये सारे संदर्भ नेट में यत्र-तत्र बिखरे पडे हैं एवं भारतीय पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं किन्तु हमें अपना ध्यान अगरियों पर ही केन्द्रित रखना है इस कारण लोहे पर अन्य जानकारी यहां देनें की ज्यादा आवश्‍यकता नहीं हैं.  .............................

जनजातीय इतिहास के संबंध में रसेल व हीरालाल की दुर्लभ लेखनी इंटरनेट में उपलब्‍ध है जिसे बाक्‍स में दिये गये लिंक से पढा जा सकता है.                                   

अगरिया पर मेरी कलम घसीटी के अंश
संजीव तिवारी

कौन है आदिवासियों के असल झंडाबरदार

छत्‍तीसगढ़ के समाचारों की सुर्खियों में पिछले दिनों से एस्‍सार के नक्‍सली सहयोग की समाचारें प्रमुखता से प्रकाशित हो रही हैं। रोज इस संबंध में कुछ ना कुछ छप रहा है और इस वाकये की तह में क्‍या है यह स्‍पष्‍ट नहीं हो पा रहा है। समाचार के मूल में यह है कि 11 जनवरी 2010 को विकीलिक्‍स नें खुलासा किया था कि छत्‍तीसगढ़ के नक्‍सलियों को एस्‍सार द्वारा अपने कार्य को सुचारू रूप से चलाने एवं दखल ना देने के लिए नक्‍सलियों को भारी मात्रा में मुद्रा दिया जाता है साथ ही यह भी जानकारी दी गई थी कि नक्‍सलियों को फिलिपीनों विद्रोहियों एवं एलटीटीई के द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके बाद से ही छत्‍तीसगढ़ पुलिस एस्‍सार और नक्‍सलियों के बीच के संबंधों को खंगालने में लगी थी।

बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनी एस्‍सार का किरंदुल, बस्‍तर के पास 80 लाख सालाना क्षमता वाला लौह अयस्‍क परिष्‍कार संयंत्र है। यहां से लौह अयस्‍क तरल रूप में 267 किलोमीटर लम्‍बी पाईप लाईन के द्वारा विशाखापट्टनम में स्थित कम्‍पनी के ही पैलेट संयंत्र में जाती है। विशाखापट्टनम में एस्‍सार की 8 मिलियन टन स्‍पात उत्‍पादन क्षमता की एक इकाई स्‍थापित है। बस्‍तर की कीमती लौह अयस्‍कों को कम्‍पनी कौड़ी के मोल लेकर विशाखापट्टनम ले जाती है, बस्‍तर से विशाखापट्टनम तक का यह सफर घने जंगलों और धुर नक्‍सल इलाके से होकर पूरा होता है। एस्‍सार द्वारा यहां द्वारा बिछाया गया पाईप लाईन दुनिया की दूसरे क्रम की सर्वाधिक लम्‍बी पाईप लाईन है इस पाईप लाईन को बिछाने से लेकर सुविधापूर्वक संचालन के लिए एस्‍सार को नक्‍सलियों को निरंतर पैसे देने पड़े हैं। पिछले वर्ष नक्‍सलियों के द्वारा बस्‍तर से लगे उडीसा के चित्रकोंडा इलाके में इस पाईप लाईन को विष्‍फोट से उडा दिया गया था, उस समय लोगों का कहना है कि इसे उडाने में नक्‍सलियों और किसी ट्रांसपोर्टर का हाथ है। पाईप लाईन के फूटने पर ट्रांसपोर्टरों की बन पड़ी थी और लौह अयस्‍क ट्रकों के द्वारा ढोया जाने लगा था। यद्धपि नक्‍सलियों के द्वारा समय समय पर लौह अयस्‍क की ढ़ुलाई करते ट्रकों को जलाया गया और ढुलाई बंद रखने को कहा गया किन्‍तु दो-चार दिनों के विराम के बाद पुन: ढुलाई चालू हो गई। अयस्‍कों की ज्‍यादातर ढुलाई ठेकेदार बी.के.लाला के ट्रकों के द्वारा ही किया गया और ज्‍यादा मात्रा में इसी के ट्रकों को नक्‍सलियों नें फूंका भी।

एस्‍सार को बस्‍तर से लौह अयस्‍क को पाईप लाईन के द्वारा विशाखापट्टनम ले जाने के लिए लगभग साढ़े चार लाख क्‍यूसेक पानी की आवश्‍यकता पड़ती है। यह पानी बस्‍तर के कोंख से निकाल कर समुद्र में व्‍यर्थ बहा दी जाती है, अयस्‍क के साथ ही बस्‍तर का पानी भी लूट लिया जाता है। यदि इस पाईप लाईन के बदले ट्रकों से अयस्‍क की ढुलाई होती तो ये पानी बचता और स्‍थानीय लोगों को कुछ अतिरिक्‍त रोजगार मिल पाता। किन्‍तु कम्‍पनी द्वारा परिवहन की लागत से बचने वाले बड़े मुनाफे में नक्सलियों को हिस्सेदारी दे दी जाती है और स्‍थानीय लोग ठगे रह जा रहे हैं। स्‍थानीय लोगों को रोजगार की मांग यहां के राजनैतिक नेता लोग करते रहे हैं किन्‍तु खानापूर्ती के अतिरिक्‍त स्‍थानीय लोगों को रोजगार कभी भी दी नहीं गई है सिर्फ मूर्ख बनाया गया है।

प्रकाशित समाचारों के अनुसार विगत 9 सितम्‍बर को पालनार इलाके के साप्‍ताहिक बाजार से एक ठेकेदार बी.के.लाला एवं लिंगाराम कोड़ोपी को पुलिस नें 15 लाख रूपये नगद के साथ गिरफ्तार किया उस समय गाड़ी में उपस्थित महिला सोनी सोढ़ी भाग गई। पुलिस अधीक्षक ने बताया कि ठेकेदार ने साफ तौर पर स्‍वीकार किया है कि प्रतिबंधित संगठन को पैसा देने के लिए यह रकम एस्‍सार कंपनी नें दिया है। पुलिस अधीक्षक अंकित गर्ग के द्वारा खुलासा किये जाने के बाद यह स्‍थानीय एवं राष्‍ट्रीय-अंतर्राष्‍ट्रीय समाचारों की सुर्खियां बनके छा गई। लिंगाराम कोड़ोपी और सोनी सोढ़ी पंद्रह लाख लेकर दरभा कमेटी के नक्‍सली विनोद और रघु को सौंपने वाले थे। विनोद और रघु बाजार से लगभग तीन किमी दूर उनका इंतजार कर रहे थे। पुलिस की भनक लगते ही विनोद और रघु भाग गए।

गिरफ्तार लिंगाराम कोड़ोपी के समर्थन में बस्‍तर में जय जोहार नाम का संगठन चलाने वाले और बहुचर्चित गांधीवादी हिमाशु कुमार के साथ छत्‍तीसगढ़ शासन के प्रति हरेक सांस में आग उगलने वाले प्रशांत भूषण एवं नक्‍सलियों को छोड़कर संपूर्ण छत्‍तीसगढ़ को शोषक समझने वाली बुकर विजेता अरूंधती राय सामने आये हैं और रोज इनके कुछ ना कुछ बयान आ रहे हैं। तथाकथित रूप से रूपयों की डिलीवरी लेने वाला लिंगाराम कोडेपी कोई आंडू पांडू व्‍यक्ति नहीं है वह कई बड़े मीडिया ग्रुप को बस्‍तर की स्‍थानीय भाषा में सहयोग करने वाला अहम व्‍यक्ति रहा है। उसे पिछले वर्ष पुलिस नें मावोवादी होने का आरोप लगाते हुए लगभग 40 दिन तक गैरकानूनी रूप से अपने हिरासत में रखा था और उच्‍च न्‍यायालय के हस्‍तक्षेप के बाद उसे छोड़ा गया था। लिंगाराम दिल्‍ली के किसी प्रतिष्ठित पत्रकारिता अध्‍ययन शाला में पत्रकारिता के गुर सीख रहा है। लिंगाराम के गैरकानूनी हिरासत के संबंध में पिछले दिनों सभी बड़े मीडिया समूहों नें समाचार प्रकाशित किए थे जिसमें लिंगाराम अपने प्रिय स्‍वामी अग्निवेश के साथ पत्रकारों को संबोधित करते नजर आए थे। इस वाकये में आये सोनी सोढ़ी नाम की महिला बस्‍तर के किसी आश्रम शाला में प्राचार्य है और लिंगा की चाची है, उसके भी वीडियो और बयान समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए थे जिसमें उन्‍होंनें पुलिस पर ज्‍यादती के आरोप लगाए थे। 

समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों के अनुसार बी.के.लाला नें यह दलील भी दी कि जब उसकी 18 लाख की गाडियों को नक्‍सलियों नें आग के हवाले कर दी तब नक्‍सलियों नें उससे फोन पर संपर्क किया। यह भी हो सकता है कि गाडि़यां जलाने के पूर्व उससे रकम वसूली के लिए फोन आये हों। पुलिस के मुताबिक लाला नें लगातार नक्‍सलियों से बातचीत की है, लगभग एक प्रकार से संपर्क निरंतर बनाए रखा है। एस्‍सार और नक्‍सलियों के बीच लायजनिंग का काम मुख्‍यतया बी.के.लाला नें ही किया है। एस्‍सार को बस्‍तर से लौह अयस्‍क लूटना था और नक्‍सलियों को इसके एवज में पैसे चाहिए थे, लाला को दलाली चाहिए थी और बस्‍तर के कुछ तथाकथित आदिवासियों को अपने ही बस्‍तरिहा भाईयों के प्रति गद्दारी करनी थी।

वर्तमान परिस्थितियों से यह स्‍पष्‍ट हो गया है कि लंगोटी धारी आदिवासियों के हक से जल-जंगल-जमीन छीनकर एस्‍सार और टाटा जैसी बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनी अपना धन का भंडार निरंतर भर रही है। आदिवासियों के हक के लिये हथियार उठाने वाले तथाकथित नक्‍सली भी अब स्‍वयं पैसे के एवज में आदिवासियों के आबरू को बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनी से लुटवा रहे हैं। एक तरफ वे भोली जनता को बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनी और शोषक वर्ग के विरोध में भड़का कर हथियार उठाने को मजबूर कर रहे हैं और दूसरी तरफ शोषक वर्ग के कंधे में कंधा मिलाकर उनसे पैसा वसूल रहे हैं। बस्‍तर व देश के अन्‍य हिस्‍से में हो रहे शोषण, भ्रष्‍टाचार और कमजोर वर्ग के प्रति अत्‍याचार के विरूद्ध मुखर होने का ढ़ोंग रचने वाले इन लोगों नें नक्‍सलबाड़ी से उठे आन्‍दोलन के उद्देश्‍यों को भुला दिया है। अब यह संगठन पूर्णतया वसूली उगाही का संगठन बन कर रह गया है जो जनता के प्रति जुल्‍म कराने की छूट देने के एवज में जुल्‍म करने वालों से पैसा वसूलती है। जंगल में जनता मूर्ख बनकर इन्‍हें अपना आका मानती है और ये समय-समय पर आदिवासियों के पीठ में छूरा भोंकते रहते हैं। अपने मतलब के लिये पुलिस से लड़वाते हैं और पैसा वसूली हो जाने पर आदिवासियों को लंगोटी के हाल में छोड़कर पुलिस का दबाव का बहाना बनाते हुए उन्‍हें उनकी ही हाल पे छोड़ खसक जाते हैं। उगाही का यह पैसा जंगलों से शहरों के आरामगाहों तक पहुचता है और यह तथाकथित वाद एक मजाक के सिवा कुछ नहीं रह जाता।

ट्रांसपोर्टर लाला के खबर के साथ ही मुझे पिछले वर्ष की एक घटना याद आ रही है। किरंदुल के परिवहन व्‍यवसाय में रोजगार कर रहे लगभग पच्‍चीस-तीस लोगों से मेरा पिछले वर्ष सामना हुआ था। दुर्ग से बिलासपुर साउथ बिहार एक्‍सप्रेस के स्‍लीपर बोगी में टीटीई और बिहार के कुछ नौजवानों के बीच नोकझोंक हो रही थी। रायपुर से भाटापारा तक हो रहे इनके नोकझोंक को मैं दो बोगियों में आते जाते हुए सुनते रहा। टीटीई का कहना था कि दो बोगियो में एक जैसे नाम के लगभग तीस सीट बुक हैं, तुम लोगों नें कुछ ना कुछ तो फर्जी किया है मुझे सही आईडी बतलाओ किन्‍तु उनके पास कोई सही आईडी नहीं था। ड्राईविंग लायसेंस पर टीटीई को शक था क्‍योंकि लायसेंस पुराना था और फोटो एवं नाम धुंधले पड़ गए थे। बात बढ़ते देखकर उन्‍हीं में से एक लड़का सामने आया और अपने आप को एक प्रतिष्ठित टीवी मीडिया का पत्रकार बतलाते हुए टीटीई पर धौंस जमाने लगा। खैर मामला जैसे तैसे निबटा क्‍योंकि लायसेंस फर्जी थे यह स्‍पष्‍ट था जिसमें फोटो सहीं लगे थे उसका नाम कुछ और था टीवी पत्रकार दलील देता रहा कि उसका नाम सर्टिफिकेट में 'अ' है बोलचाल में 'ह' है आपने पूछा तो वह हड़बड़ा कर अपना नाम 'ह' बता रहा है। यह किस्‍सा बिल्‍हा तक चलते रहा और प्रथम दृष्‍टया दस्‍तावेजी साक्ष्‍यों के आधार पर टीटीई को उन्‍हें सफर करने की अनुमति देनी पड़ी।

हमने कुछ और जानकारी उन लड़कों से लेनी चाही तो पता चला वे लौह अयस्‍क की ट्रक में ड्राईवर क्‍लीनर है। किरंदुल से विशाखापट्टनम चलते हैं, ट्रक ही उनका घर है। नक्‍सल इलाकों में काम करने से डर नहीं लगता पूछने पर उनका कहना था कि वे हमें कुछ नहीं करते, ट्रक मालिक पैसा देता है इस कारण उसका ट्रक बिना बाधा के चलता है ... अभी मालिक ने पैसा नहीं दिया इसलिये उसकी ट्रकें जला दी गई है ... और हम लोग नया ट्रक आते या जली ट्रकों के बनते तक खाली हैं ... इसलिये कम्‍पनी नें हमें छुट्टी दे दिया है। टीवी पत्रकार से उसके संबंध में पूछने पर पहले वह बिहारी अंदाज में उडता रहा, पहले अपने आप को पत्रकार, फिर कैमरामैंन फिर असिस्‍टेंट फिर कैमरामैन का मोटरसाईकल चालक के रूप में अपने आप को स्‍वीकार किया, उसे अपनी औकात इसलिये बतलानी पड़ी कि हम बस्‍तर में काम कर रहे टीवी पत्रकारों के संबंध में उससे पूछने लगे और उसे लगने लगा कि अब उसकी पोल खुल जायेगी तो बतलाया कि वह कभी कभार मोटर सायकल चलाता है और टीवी वालों के लिए फोकस पकड़ता है, उनके लिये चाय गुटका लाता है। बात करते करते हमारा स्‍टेशन आ गया और हम बिलासपुर में उतर गए।

कभी इस घटना को किसी से जोड़ने का प्रयास नहीं किया हॉं एक बात जरूर बाहर निकल कर आई कि विशाखापट्ठनम के पोर्ट एरिया में हजारों टन अनक्‍लेम्‍ड पड़े लौह अयस्‍कों के खेल में इन ट्रांसपोर्टरों का बहुत बड़ा हाथ है। विशाखापट्ठनम के पोर्ट एरिया से लौह अयस्‍क विदेश निर्यात भी किये जाते हैं। ऐसे छोटे निर्यातक जिनके पास अयस्‍क निर्यात का लायसेंस है और वे नियमित रूप से खदानों से माल नहीं खरीद पाते। वे ऐसे माल की तलाश में रहते हैं जो लूप के सहार उन्‍हें मिल जाए। इधर उधर से फर्जी दस्‍तावेज तैयार कर वे इसे विदेशों में निर्यात कर सकें। हकीकत के नजदीक की संभावनाओं में ये माल इन्‍हें बस्‍तर के खदानों के आस-पास चोरी से संग्रहित किये गए एवं नक्‍सली उत्‍पात में बिखर गए एवं बाद में पोर्ट एरिया में लाए गए माल होते हैं। ऐसी भी स्थिति होती होगी जब नक्‍सलियों के द्वारा पचास-पचास ट्रकों को जला दिया जाता हो और इन्‍हें फिर से लोडिंग किया जाता है तो कम्‍पनी को माल कम मिलता है बीच में कुछ ट्रक मालों की अफरा तफरी भी हो जाती है। इस खेल में ट्रांसपोर्टर और छोटे निर्यातक बढि़या रकम बनाते हैं और बस्‍तर का अयस्‍क बड़े छोटे व्‍यवसायियों से ऐसे ही लुटता रहता है।

आज जब लाला की खबर से रोज समाचार रंग रहे हैं तो याद आ रहे हैं वे ड्राइवर और क्‍लीनर। उनकी स्‍वीकारोक्ति थी कि ट्रक चलाने के लिये मालिक नोट देता है और उसके ट्रकों को कोई भी नहीं रोक सकता, नोट नहीं देने के कारण या कोई गलतफहमी के कारण ही मालिक की ट्रकें फूंकी गई। पुलिस के अनुसार लाला नें यह स्‍वीकार किया है कि वह 15 लाख रूपये मावोवादियों को देने जा रहा था किन्‍तु उसके साथ गिरफ्तार लिंगाराम इसे स्‍वीकार नहीं कर रहा है। हैं। लिंगाराम के हितचिंतकों का कहना है कि लिंगा को बेवजह फंसाया गया है। जिस जगह में पुलिस उन दोनों को गिरफ्तार करना बता रही है वहां से उन्‍हें नहीं पकड़ा गया है बल्कि उन्‍हें अलग-अलग स्‍थानों से पकड़ कर झूठी कहानी गढ़ी जा रही है। अब हकीकत क्‍या है ये अंकित गर्ग जी जाने एवं मानवाधिकारवादी जाने।

लिंगा और सोनी वास्‍तविक अपराधी हैं या नहीं यह तो न्‍यायालय तय करेगी किन्‍तु इस वाकये से ये बात तो खुल कर समने आ गई है कि एस्‍सार जैसी कम्‍पनियां एक तरफ शासन के साथ मिलकर माओवाद के खात्‍में की वकालत करती है दूसरी तरफ माओवाद को बढ़ावा देनें के लिए उन्‍हें सहायता करती है। बस्‍तर के जानकारों का कहना है कि बस्‍तर में काम करने वालों की यह मजबूरी है चाहे वे उद्योगपति हों, व्‍यवसायी हो, सरकारी अधिकारी हों या नेता हो बस्‍तर में सांस लेने का टैक्‍स उन्‍हें देना पड़ता है। बस्‍तर की अकूत सम्‍पत्ति को लूटने के एवज में लेवी उन्‍हें देना पड़ता है जो बस्‍तर के आदिवासियों के हक के झंडाबरदार हैं। पिछले दिनों पकड़ाए एक नक्‍सल नेता की माने तो मावोवादियों का सालाना वसूली लक्ष्‍य छत्‍तीसगढ़, झारखण्‍ड बिहार के लिए 5000 करोड रूपये है। यदि यही राशि आदिवासियों को सीधे मिल जाए तो क्‍उन्‍हें चिकित्‍सा, शिक्षा व रोजगार के लिए खून की आंसू बहाना नहीं पड़ेगा। इस पैसे में से आधा मावोवादियों के एशो आराम और कैम्‍पेनिंग में और आधा दहशत फैलाने के एवज में खर्च दिया जाता है। अब बताये आदिवासियों का सबसे बड़ा शोषक कौन हुआ, नक्‍सल के नाम पर आदिवासियों का शोषण करते इन लोगों को आप क्‍या कहेंगें ... क्‍या यही है आदिवासियों के असल झंडाबरदार ....


संजीव तिवारी


लिंगा के संबंध में जनज्‍वार में हिमाशु कुमार की रिपोर्ट
जनतंत्र में लिंगा
मोहल्‍ला लाईव में लिंगा
आईबीएन में लिंगा
तहलका में सोनी सोढ़ी और लिंगा

एक यायावर : हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन ‘‘अज्ञेय’’

आज लेखक कवि अज्ञेय की महानता के सम्बंध में विशेष रूप से कुछ कहने की आवश्यकता बाकी नही है । हिंदी सहित्य के वे अपने ढंग के मूर्धंय लेखक व सर्वधिक चर्चित रचनाकार थे ।१९२४ में “सेवा” नामक पत्रिका में अज्ञेय जी की पहली रचना प्रकशित हुई तब वे मात्र १३ वर्ष के थे, उसके बाद वे कभी मुड के नहीं देखे ईसी के बल पर् वे लगभग १५ कविता संग्रह, ७ कथा संग्रह, ४ उपन्यास सहित ७५ कृतियों के श्रृष्ठा बने । वे पिछले लगभग ५ दसकों से हिंदी कविता को लगातर प्रभावित किये रहने वाले और हिंदी उपन्यास लेखन पर अनेकों प्रश्न चिंह व विवाद खडे करने वाले नई शैली के श्रृष्ठा थे।

अज्ञेय जी के अद्भुत वाक्य संयोजन ने मुझे “नीलम का सागर पन्‍ने का द्वीप” मे प्रभावित किया, इसे पढने के बाद इस विशिष्‍ठ लेखक के सम्बंध में जानकारी इकट्ठे करना प्रारंभ कर दिया था, यह लग्भग २४ वर्ष पूर्व की बात थी, किंतु यह ऐसा लेखक था कि इसकी जीवनी अस्पस्ट होती थी। इन्‍होंने आज तक कहीं अपने बारे में कुछ् लिखा व कहा नहीं, वे स्वभावत: मौन ही रहते थे। अज्ञेय जी एक क्रांतिकारी थे, इनके क्रांतिकारी मित्र राजकमल राय अपने पुस्तक “शिखर से सागर तक” में इनके मौन का उल्लेख तद समय के साहित्यकारों की जुबान में करते हैं यथा - विमल कुमार जैन “वात्सायन शुरु से कम व स्पस्ट बोलते हैं” रघुबीर सहाय “वे अपने जीवन में किसी भी किस्म की घुसपैठ पसंद नहीं करते।“

इसी सम्बंध में मनोहर श्याम जोषी कहते हैं “वे भला कब किसको अवसर देते हैं की कोइ उंहें कुछ भी जान सके, किसको वे अपने भीतर प्रवेश करने देते हैं, जो भी उनके बारे में जानने का दावा करता है, ब्यर्थ करता है।“  कुछ कही कुछ सुनी व कुछ पढी गई बातों के आधार पर उंहें लोग याद करते हैं। उनके जीवन के सम्बंध में न सहीं उनके सहित्य के सम्बंध मे लोग उन्‍हें जानते हैं व उनकी लेखन क्षमता का लोहा मानते हैं। एक जमाने में “विशाल भारत” पत्रिका में छपने वाली कहानियों के नायक “सत्या” का जन्‍मदाता अज्ञेय जनमानस के लिये एक विचित्र लेखक हुआ करता था। कहां प्रेमचंद के कहनियों की भाषा भाव की सादगी और कहां यह अज्ञेय की भाषा जिसके अनेकों शब्दों को समझना तो दूर सहीं ढंग से उच्चारण कर पाना भी मुश्किल होता था, तिस पर एक अदभुत नायक “सत्य” एसा आदमी प्रेमचंद के नायकों सा जनमानस नहीं होता था। अत: कहनी के उद्देश्यों को समझने में लोगों को कई दिन लग लग जाते थे। जब वे समझते थे तो विस्मित रह जाते थे सत्य पर और अज्ञेय पर।

अपनी इसी शैली एवं क्रांतिकारी व भ्रमणशील जीवन का सुंदर समन्‍वय प्रस्तुत करते हुये दिल्ली जेल,  लाहोर, मेरठ, आगरा, डल्हौजी जैसे जगहों पर आपने अपनी उतकृष्‍ठ कृतियों का सृजन किया। अज्ञेय जी को भारत की संस्कृति एवं इतिहास के अतिरिक्त अन्य देशों की संस्कृति व इतिहास व तात्कालिक परिस्थितियों का विशद ज्ञान था। इसकी स्पट झलक उनकी कहानी व यात्रा वृतांतों में दृटिगत होता है, १९३१ में दिल्ली जेल में लिखी गयी उनकी कहानी “हारिति” अपने आप में संम्पूर्ण रूस को चित्रित करने वाली कहानी है, इसके नायक क्वानयिन व हारिति लम्बे समय तक याद किये जायेंगे, कहानी में शब्दों का प्रयोग इस ढंग से किया गया है कि आंखों के सामने सारा घटनाक्रम प्रस्तुत हो रहा है, ऐसा प्रतीत होता है। अज्ञेय जी स्वयं क्रांतिकारी रहे हैं इस कारण वे क्रांति का चित्रण बहुत सटीक ढंग से करते थे। रूसी क्रांति की पृष्टभूमि पर लिखी गयी एक और कहानी “मिलन” में दमित्र्री व मास्टर निकोलाई का मिलन और रूस की उस समय की परिस्थिति का स्पष्ट चित्रण इस बात का ऐहसास देता है कि वे रूस के चप्पे चप्पे से वाकिफ थे। इसके अतिरिक्त “विवेक से बढकर” ग्रीक पर तुर्की आक्रमण एवं “स्मर्ना नगर का भीषण आग” “क्रांति का महानाद” “अंगोरा के पथ पर” जैसे कहानी में किया गया है, इन कहानियों को बार बार पढनें को जी चाहता है।

कहानी उपन्यास एवं कविता के साथ साथ संपादन के क्षेत्र में उनका योगदान उल्लेख्नीय है, हिन्दी पत्रकारिता को उन्होंने नई दिशा “दिनमान” “नवभारत टाईम्स” और “सैनिक” आदि के सहारे जो दिया उसे भुलाया नहीं जा सकता। एक संपादक के रूप में समाचार पत्र और जनता के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वहन में वे सर्वप्रथम रहे। इस संबंध में एक दिलचस्प वाकया प्रस्तुत है, आगरा के एक दैनिक समाचार पत्र के अज्ञेय जी संपादक थे और इसके प्रबंध संपादक कृष्ण दत्त पालीवाल थे। वे उस समय चुनाव लड रहे थे और चाहते थे कि सैनिक के संपादकीय में उनकी प्रसंशा नगम मिर्च लगाकर प्रकाशित की जाय। अज्ञेय जी को यह उचित नहीं लगा और इस प्रस्ताव को उन्होंने बडे सरल शब्दों में ठुकराकर जनता एवं पत्रकारिता धर्म के प्रति अपना फर्ज निभाया।

ऱचनात्मक लेखन व संपादन के क्षेत्र में “प्रतीक” “विशाल भारत” व “नया प्रतीक” का संपादन उनकी सर्जनात्मक प्रतिभा का महत्वपूर्ण योगदान है। अज्ञेय जी को अपने जीवन काल में ही कई छोटे बडे पुरूस्कार भी मिले और वे अलंकरणें से विभूषित भी हुए। इसी क्रम में भारतीय साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार १४ वां ज्ञानपीठ पुरस्कार “कितनी नावों में कितनी बार” के लिये प्राप्त हुआ। इसके पूर्व उनका नाम दो बार नोबेल पुरस्कार चयन समिति के बीच भी प्रस्तुत हुआ किन्तु यह सम्मान उन्हें नहीं मिल पाया।

१४ वां ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह कलकत्ता के कला मंदिर में बुधवार २८ दिसम्बर १९७९ को आयोजित हुआ था। उक्त अवसर पर पुरस्कृत काव्य कृति “कितनी नावों में कितनी बार” के साथ साथ ही उनकी एक अन्य कविता “असाध्य वीणा” को मंच पर नृत्य नाटिका रूपक में प्रस्तुत किया गया। यह अकेली कविता “असाध्य वीणा” अज्ञेय जी के कवि रूप के विविध आयामों को समेटे हुए उनकी रचना शिल्‍प और शैली का प्रतिनिध्त्वि करती है। पुरस्कार प्राप्ति के बाद मंच से अपने धीर वीर गंभीर वाणी में उन्होंने कहा था 'मेरे पास वैसी बडी या गहरी कोई बात कहने को नहीं है .. … किन्तु वे बडी गहरी व गूढ बात कहते हुए उसी प्रवाह में कहते चले गये .. साहित्य एक अत्यंत ऋजु कर्म है उसकी वह ऋजुता ऐक जीवन व्यापी साधना से मिलती है । नव लेखन एवं साहित्य के क्षेत्र में हुए नव प्रयोग के संम्बंध में उन्होंने कहा था, नये सुखवाद की जो हवा चल रही है उसमें मूल्यों की सारी चर्चा को अभिजात्य का मनोविलाश कह कर उडा दिया जाता है पर मैं ऐसा नहीं मानता और मेरा सारा जीवनानुभव इस धारणा का खण्डन करता है। मेरा विश्वास है कि इस अनुभव में मैं अकेला भी नहीं हूं।

अज्ञेय के समकालीन प्राय: सभी साहित्यकारों से उनके मधुर संबंध थे किन्तु यशपाल एवं जैनेन्द्र जी से उनका गहरा व पारिवारिक संबंध था। यशपाल के साथ वे सदा जेल में एवं बारूदों के बीच में रहे। इन दोनों के बीच में रहे एक क्रांतिकारी ने कहा था, कि क्रांतिकारी पार्टी में दो लेख्क थे, एक जनाब पिक्रिक एसिड धोते थे और दूसरे साहब श्रंगार प्रसाधन की सामाग्री बनाते थे, वे थे क्रमश: यशपाल व अज्ञेय। जैनेन्द्र जी से भी अज्ञेय जी का संम्बन्ध उल्लखनीय था। लेखक अज्ञेय ही थे जिनको लेकर जैनेन्द्र जी बहुत सी बातें करते थे, अज्ञेय को लेकर जैनेन्द्र जी हमेशा भावुक हो उठते थे, शायद इसका एक कारण तो यही था कि हिन्दी में अज्ञेय जी को परिचित कराने का दायित्व सर्वप्रथम उन्होनें ही वहन किया था।

अज्ञेय जी लाहौर के क्रांतिकारियों में मुख्य थे, उन्हे सजा हुयी तो दिल्ली जेल में रखा गया। उस समय उन्होंने अपनी कहानियां अपने वास्तविक नाम से जैनेन्द्र जी को भेजी, और जैनेन्द्र जी नें रचनाओं पर उनका असली नाम न देकर अज्ञेय नाम दिया, और इसी नाम से रचनायें प्रकाश्नार्थ पत्र पत्रिकाओं में भेजी। आगे जाकर वात्सायन का नाम अज्ञेय ही हिन्दी संसार में प्रतिष्ठित हुआ। अज्ञेय जी लम्बे समय तक जैनेन्द्र जी के साथ जुडे रहे उनके घर में भी रहे शंतिनिकेतन में भी रहे। जैनेन्द्र जी के उपन्यास “त्यागपत्र” का “द रेजिगनेशन” नाम से अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। जैनेन्द्र जी ये मानते थे कि अज्ञेय अहं से कभी उबर नहीं पाये और ज्ञेय होने की सहजता उनसे हमेशा दूर रही किन्तु अज्ञेय जी के मन में अंत तक जैनेन्द्र जी के प्रति असीम श्रद्धा विद्यमान रही।

बहुयामी बहुरंगी प्रतिभा संपन्न और सामाजिक मर्यादाओं के संदर्भ में स्वच्छंद जीवन जीने वाले, अज्ञेय जी का लम्बे समय से न केवल उनकी रचनायें, अपितु उनका व्यक्तित्व भी, अपनी तरह का आर्कषण बनाये हुए था। इनके व्यक्तिगत जीवन में संतोष साहनी, कपिला व इला का हस्तक्षेप सर्वविदित है। कपिला दूर रह के भी अपने नाम के पीछे वात्सायन लिखती रहीं और अज्ञेय जी विवाह न करके भी इला के साथ रहे। इन बातों के बीच भी अज्ञेय जी नें अपनी रचना धर्मिता व अपनी विशिष्ट शैली को बरकरार रखा। अपने बारे में ही शायद उन्होंने “अमरवल्लरी” नामक कहानी में लिखा “प्रेम एक आईने की तरह स्वच्छ रहता है, प्रत्येक व्यक्ति उसमें अपना ही प्रतिबिंब पाता है और एक बार जब वह खंण्डित हो जाता है तब वह जुडता नहीं।” अज्ञेय जी का जीवन अत्यंत संर्घषरत विवादास्पद और कदम कदम पर चुनौतियों से भरा हुआ किन्तु सब कुछ झेल कर आगे बढने वाला रहा है। उन्‍होंनें हिन्दी कविता नई कविता कहानी उपन्यास आलोचना यात्रा संसमरण तथा अन्यान्य दिशाओं में उन्होनें विपुल कार्य किया है तथा उनके चिन्तन की गहराई से हिन्दी साहित्य को जो गरिमा और गौरवपूर्ण कृतियां प्राप्त हुई है उनका महत्व कभी कम होने वाला नही है। मैं ईनकी ही कविता “युद़ध विराम” से उन्हे श्रदधा सुमन अर्पित करता हू :-

“हमें बल दो देशसियोंक्योंकि तुम बल हो,
तेज दो, जो तेजस होओज दो, जो ओजस हो
क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो
हमें ज्योति दो देशवासियों
हमें कर्म कौशल दो,
क्योंकि अभी कुछ नहीं बदला है
अभी कुछ नहीं बदला है”

संजीव तिवारी
(दिसम्बर 1988, संभवत: संदर्भों का नकल करते हुए आलेख लिखने का प्रथम प्रयास; वाक्यांश अज्ञेय जी की कृतियों के संबंध में समय समय पर सारिका व अन्य पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित साक्षातकार व अंशों से लिये गये हैं)

राम बाबू तुमन सुरता करथौ रे मोला : डॉ. पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी


छत्‍तीसगढ के छोटे से कस्‍बे खैरागढ के रामबगस होटल और ददुआ पान ठेले में बैठे खडे बीडी का कश लेते तो कभी मुस्‍का नदी के तट पर शांत बैठे हुए एक सामान्‍य से दिखने वाले व्‍यक्ति की प्रतिभा का अनुमान लगाना मुश्किल था । उसके मानस में पल्वित विचारों का डंका तब भारत के हिन्‍दी साहित्‍य प्रेमी जन मन में व्‍यापक स्‍थान पा चुका था । यह व्‍यक्ति भारत के सर्वमान्‍य व प्रतिष्ठित साहित्‍यक पत्रिका ‘सरस्‍वती’ के संपादक पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी थे ।

तब ‘सरस्‍वती’ हिन्‍दी की एक मात्र ऐसी पत्रिका थी जो हिन्‍दी साहित्‍य की आमुख पत्रिका थी । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के संपादन में प्रारंभ इस पत्रिका के संबंध में सभी विज्ञ पाठक जानते हैं । सन् 1920 में द्विवेदी जी ने पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी की संपादन क्षमता को नया आयाम देते हुए इन्‍हें ‘सरस्‍वती’ का सहा. संपादक नियुक्‍त किया । फिर 1921 में वे ‘सरस्‍वती’ के प्रधान संपादक बने यही वो समय था जब विषम परिस्थितियों में भी उन्‍होंनें हिन्‍दी के स्‍तरीय साहित्‍य को संकलित कर ‘सरस्‍वती’ का प्रकाशन प्रारंभ रखा ।

छत्‍तीसगढ के जिला राजनांदगांव के एक छोटे से कस्‍बे में 27 मई 1894 में जन्‍में पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी की प्राथमिक शिक्षा म.प्र. के प्रथम मुख्‍यमंत्री पं. रविशंकर शुक्‍ल जैसे मनीषी गुरूओं के सानिध्‍य में विक्‍टोरिया हाई स्‍कूल, खैरागढ में हुई थी ।

प्रारंभ से ही प्रखर पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी की प्रतिभा को खैरागढ के ही इतिहासकार लाल प्रद्युम्‍न सिंह जी ने समझा एवं बख्‍शी जी को साहित्‍य श्रृजन के लिए प्रोत्‍साहित किया और यहीं से साहित्‍य की अविरल धारा बह निकली ।

प्रतिभावान बख्‍शी जी ने बनारस हिन्‍दु कॉलेज से बी.ए. किया और एल.एल.बी. करने लगे किन्‍तु वे साहित्‍य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता एवं समयाभाव के कारण एल.एल.बी. पूरा नहीं कर पाये, इस बीच में उनका विवाह मंडला निवासी एक सुपरिटेंडेंट की पुत्री से हो चुका था एवं पारिवारिक दायित्‍व बख्‍शी जी के साथ था । अत: बख्‍शी जी वापस छत्‍तीसगढ आकर सन् 1917 में राजनांदगांव के स्‍कूल में संस्‍कृत के शिक्षक नियुक्‍त हो गए ।

उनकी ‘प्‍लैट’ नामक अंग्रेजी कहानी की छाया अनुदित कहानी ‘तारिणी’ के जबलपुर के ‘हितकारिणी’ पत्रिका में प्रकाशन से तत्‍कालीन हिन्‍दी जगत इनकी लेखन क्षमता से अभिभूत हो गया था । विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में बख्‍शी जी की रचनायें प्रकाशित होने लगी थी जिनमें 1913 में ‘सरस्‍वती’ में ‘सोना निकालने वाली चीटियां’ एवं 1917 में ‘सरस्‍वती’ में ही इनकी मौलिक कहानी ‘झलमला’ ने इनके हिन्‍दी साहित्‍य जगत में दमदार उपस्थिति को सिद्ध कर दिया ।

बख्‍शी जी खैरागढ के विक्‍टोरिया हाई स्‍कूल में अंग्रेजी के शिक्षक भी रहे एवं इन्‍होंने खैरागढ की राजकुमारी उषा देवी और शारदा देवी को शिक्षा में पारंगत भी किया ।

साधारण जीवन जीने वाले स्‍वभावत: एकाकी एवं अल्‍पभाषी बख्‍शीजी का तकिया कलाम था ‘राम बाबू’ , स्‍वाभिमान इनमें कूट कूट कर भरा था । इनके संबंध में डॉ. रमाकांत श्रीवास्‍तव अपने एक लेख में कहते हैं -

कभी किसी समारोह के लिए उनसे एक मानपत्र लिखने के लिए कहा गया । जाने क्‍या बात हुई कि तत्‍कालीन नायब साहब नें आकर उनसे कहा कि उस मानपत्र को संशोधन के लिए रायपुर किसी के पास भेजा जायेगा । बख्‍शी जी नें उस मानपत्र को तुरंत फाड दिया – मेरा लिखा हुआ कोई दूसरा संशोधित करेगा, एसी से लिखा लो । विजयलाल जी बतलाते हैं कि उन्‍हें इतने गुस्‍से में कभी नहीं देखा था । मुझे लगता है कि उनका गुस्‍सा उचित ही था । ‘सरस्‍वती’ के संपादक के रूप में जिसने हिन्‍दी के कितने ही लेखकों की भाषा का परिष्‍कार किया, उस व्‍यक्ति की ऐसी प्रतिक्रिया स्‍वाभावित ही थी । यह तो एक लेखक के स्‍वाभिमान पर प्रश्‍न था ।

पिछले कुछ दिनों से उन्‍हें व उनके संबंध में पढते हुए मुझे लगा बख्‍शीजी मुझे कह रहे हों 'राम बाबू तुमन सुरता करथौ रे मोला !'

आज उनकी पुण्‍यतिथि है बख्‍शी जी को समस्‍त हिन्‍दी जगत 'सुरता' कर रहा है ।

संजीव तिवारी


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बख्‍शी जी के संबंध में उपलव्‍ध पत्र-पत्रिकाओं व पुस्‍तकों मित्रों से फोन के द्वारा जब हमने यह लिख डाला तब इंटरनेट में इस संबंध में सर्च किया तो ढेरों लिंक मिले, जहां इनकी कृतियों का भी उल्‍लेख है । आप भी देखें :-

स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित छत्तीसगढ़ का प्रथम आँचलिक उपन्यास 'धान के देश में' के लिये श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी नें भूमिका भी लिखा ।

कविता कोश में डॉ. पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी के जीवन परिचय में विस्‍तार से लिखा है । उनकी कविता क्रमश: मातृ मूर्ति , एक घनाक्षरी और दो चार भी कविता कोश में उपलब्‍ध हैं ।

कथा यात्रा में आदरणीय रमेश नैयर जी कहते हैं

छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के कथाकारों को हिंदी साहित्य जगत् में विशेष प्रतिनिधित्व श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी द्वारा किए गए ‘सरस्वती’ के संपादन काल में मिला। राजनांदगाँव के श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी स्वयं भी अच्छे कहानीकार थे। उन्होंने सन् 1911 से कहानियाँ लिखना शुरू किया था। बख्शीजी को प्रेमचंद युग का महत्त्वपूर्ण कथाकार माना गया है। बातचीत के अंदाज में कहानी कह जाने की विशिष्ट शैली बख्शीजी ने विकसित की थी। बख्शीजी की मान्यता थी कि छत्तीसगढ़ की समवन्यवादी और परोपकारी संस्कृति की छाप यहाँ के कथाकारों के लेखन पर गहराई से पड़ी। छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधि कथाकारों के एक संकलन का संपादन करते हुए बख्शीजी ने लिखा था, ‘छत्तीसगढ़ की अपनी संस्कृति है जो उसके जनजीवन में लक्षित होती है। छत्तीसगढ़ियों के जीवन में विश्वास की दृढ़ता, स्नेह की विशुद्धि सहिष्णुता और निश्छल व्यवहार की महत्ता है। ये स्वयं धोखा खाकर भी दूसरों को धोखा नहीं देते हैं। गंगाजल, महापरसाद और तुलसीदास के द्वारा भिन्न-भिन्न जातियों के लोगों में भी जो एक बंधुत्व स्थापित होता है, उसमें स्थायित्व रहता है। जाति-भेद रहने पर भी सभी लोगों में एक पारिवारिक भावना उत्पन्न हो जाती है।’

यहां झलमला भी देखें

मनु शर्मा अपनी कृति उस पार का सूरज में कहते हैं

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी किसी घटना, किसी एक रोचक प्रसंग या किसी एक बात से निबंधों की शुरुआत करते हैं। नाटकीयता और कथात्मकता इनके निबंधों को रोचक बनाती है। सहजता इनकी एक अन्य विशेषता है। सियाराम शरण गुप्त ने भी अपने अपने निबंधों में छोटी-छोटी बातों को कहीं संस्मरण और कहीं व्यंग्य के माध्यम से कहा है। यह व्यक्ति-चेतना है। हिंदी में व्यक्ति-व्यंजक निबंध लिखनेवालों की ये दो परंपराएँ हैं। इन्हें व्यक्ति-व्यंजक और ललित कहकर अलग करना उचित नहीं है। ये दोनों एक ही हैं। फिर भी अंग्रेजी के व्यक्ति-व्यंजक निबंधों से हिंदी के व्यक्ति-व्यंजक निबंधों की पहचान अलग है। अंग्रेजी के निबंधकारों की तरह अपने घर-परिवार, इष्ट-मित्र, पसंद-नापसंद का विवरण हिंदी के निबंधकार नहीं देते हैं। वे चुटकी लेते हैं, व्यंग्य करते हैं, किसी विश्वस्त और निकट व्यक्ति की तरह बात करते हैं।


(इंटरनेट के उद्धरण भारतीय साहित्‍य संग्रह एवं अन्‍य साईटों से लिए गये हैं)


संजीव तिवारी

छत्तीसगढी ‘नाचा’ के जनक : दाउ मंदराजी

स्‍वर्गीय दुलार सिंह दाउ जी के मंदराजी नाम पर एक कहानी है । बचपन में बडे पेट वाला एक स्‍वस्‍थ बालक दुलारसिंह आंगन में खेल रहा था । आंगन के ही तुलसी चौंरा में मद्रासी की एक मूर्ति रखी थी । मंदराजी के नानाजी नें अपने हंसमुख स्‍वभाव के कारण बालक दुलार सिंह को मद्रासी कह दिया था और यही नाम प्रचलन में आकर बिगडते-बिगडते मद्रासी से मंदराजी हो गया ।

दाउजी का जन्‍म जन्‍म 1 अप्रैल 1911 को राजनांदगांव से 7 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम रवेली के सम्‍पन्‍न मालगुजार परिवार में हुआ था । उन्‍होंनें अपनी प्राथमिक शिक्षा सन 1922 में पूरी कर ली थी । गांव में कुछ लोक कलाकार थे उन्‍हीं के निकट रहकर ये चिकारा और तबला सीख गये थे । वे गांव के समस्‍त धार्मिक व सामाजिक कार्यक्रमों भे भाग लेते रहे थे । जहां कहीं भी ऐसे कार्यक्रम होते थे तो वे अपने पिताजी के विरोध के बावजूद भी रात्रि में होने वाले नाचा आदि के कार्यक्रमों में अत्‍यधिक रूचि लेते थे ।


इनके पिता स्‍व.रामाधीन दाउजी को दुलारसिंह की ये रूचि बिल्‍कुल पसंद नहीं थी इसलिए हमेंशा अपने पिताजी की प्रतारणा का सामना भी करना पडता था । चूंकि इनके पिताजी को इनकी संगतीय रूचि पसंद नहीं थी अतएव इनके पिताजी नें इनके रूचियों में परिर्वतन होने की आशा से मात्र 24 वर्ष की आयु में ही दुलारसिंह दाउ को वैवाहिक सूत्र में बांध दिया किन्‍तु पिताजी का यह प्रयास पूरी तरह निष्‍फल रहा । आखिर बालक दुलारसिंह अपनी कला के प्रति ही समर्पित रहे । दाउ मंदराजी को छत्‍तीसगढी नाचा पार्टी का जनक कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।


लोककला में उनके योगदान को देखते हुए छत्‍तीसगढ शासन द्वारा प्रतिवर्ष राज्‍य में दाउ मंदराजी सम्‍मान दिया जाता है जो लोककला के क्षेत्र में राज्‍य का सवोच्‍च सम्‍मान है । छत्‍तीसगढ में सन् 1927-28 तक कोई भी संगठित नाचा पार्टी नहीं थी । कलाकार तो गांवों में थे किन्‍तु संगठित नहीं थे । आवश्‍यकता पडने पर संपर्क कर बुलाने पर कलाकार कार्यक्रम के लिए जुट जाते थे और कार्यक्रम के बाद अलग अलग हो जाते थे । आवागमन के साधन कम था, नाचा पार्टियां तब तक संगठित नहीं थी । ऐसे समय में दाउ मंदराजी नें 1927-28 में नाचा पार्टी बनाई, कलाकारों को इकट्ठा किया । प्रदेश के पहले संगठित रवेली नाचा पार्टी के कलाकरों में थे परी नर्तक के रूप में गुंडरदेही खलारी निवासी नारद निर्मलकर, गम्‍मतिहा के रूप में लोहारा भर्रीटोला वाले सुकालू ठाकुर, खेरथा अछोली निवासी नोहरदास, कन्‍हारपुरी राजनांदगांव के राम गुलाम निर्मलकर, तबलची के रूप में एवं चिकरहा के रूप में स्‍वयं दाउ मंदराजी ।


दाउ मंदराजी नें गम्‍मत के माध्‍यम से तत्‍कालीन सामाजिक बुराईयों को समाज के सामने उजागर किया । जैसे मेहतरिन व पोंगवा पंडित के गम्‍मत में छुआ-छूत को दूर करने का प्रयास किया गया । ईरानी गम्‍मत हिन्‍दू-मुस्लिम एकता का प्रयास था । बुढवा एवं बाल विवाह
मोर नाव दमांद गांव के नाम ससुरार गम्‍मत में वृद्ध एवं बाल-विवाह में रोक की प्रेरणा थी । मरारिन गम्‍मत में देवर-भाभी के पवित्र रिश्‍ते को मॉं और बेटे के रूप में जनता के सामने रखा गया था दाउजी के गम्‍मतों में जिन्‍दगी की कहानी का प्रतिबिम्‍ब नजर आता था ।


आजकल के साजों की परी फिल्‍मी गीत गाती है और गम्‍मत की परी ठेठ लोकगीत गाती है ऐसा क्‍यों होता है ? के प्रश्‍न पर दाउजी कहते थे - समय बदलता है तो उसका अच्‍छा और बुरा दोनों प्रभाव कलाओं पर भी पडता है, लेकिन मैनें लोकजीवन पर आधारित रवेली नाच पार्टी को प्रारंभ से सन् 1950 तक फिल्‍मी भेंडेपन से अछूता रखा । पार्टी में महिला नर्तक परी, हमेशा ब्रम्‍हानंद, महाकवि बिन्‍दु, तुलसीदास, कबीरदास एवं तत्‍कालीन कवियों के अच्‍छे गीत और भजन प्रस्‍तुत करते रहे हैं । सन् 1930 में चिकारा के स्‍थान पर हारमोनियम और मशाल के स्‍थान पर गैसबत्‍ती से शुरूआत मैनें की ।


सार अर्थों में दाउजी नें छत्‍तीसगढी नाचा को नया आयाम दिया और कलाकरों को संगठित किया । दाउजी के इस परम्‍परा को तदनंतर दाउ रामचंद्र देशमुख, दाउ महासिंग चंद्राकर से लेकर लक्ष्‍मण चंद्राकर व दीपक चंद्राकर तक बरकरार रखे हुए हैं जिसके कारण ही हमारी सांस्‍कृतिक धरोहर अक्षुण बनी हुई है ।


सापेक्ष के संपादक डॉ. महावीर अग्रवाल के ग्रंथ छत्‍तीसगढी लोक नाट्य : नाचा के अंशों का रूपांतर

संजीव तिवारी

छत्तीसगढ गौरव : रवि रतलामी

छत्तीसगढ, दिल्ली व हरियाणा से एक साथ प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'हरिभूमि' में 13 फरवरी 2008 को सम्पादकीय पन्ने पर यह आलेख प्रकाशित हुआ है जिसकी फोटो प्रति व मूल आलेख हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं :-

“जन्म से छत्तीसगढ़िया, कर्म से रतलामी. बीस साल तक विद्युत मंडल में सरकारी टेक्नोक्रेट के रुप में विशाल ट्रांसफ़ॉर्मरों में असफल लोड बैलेंसिंग और क्षेत्र में सफल वृहत् लोड शेडिंग करते रहने के दौरान किसी पल छुद्र अनुभूति हुई कि कुछ असरकारी काम किया जाए तो अपने आप को एक दिन कम्प्यूटर टर्मिनल के सामने फ्रीलांस तकनीकी-सलाहकार-लेखक और अनुवादक के ट्रांसफ़ॉर्म्ड रूप में पाया. इस बीच कंप्यूटर मॉनीटर के सामने ऊंघते रहने के अलावा यूँ कोई खास काम मैंने किया हो यह भान तो नहीं लेकिन जब डिजिट पत्रिका में पढ़ा कि केडीई, गनोम, एक्सएफ़सीई इत्यादि समेत लिनक्स तंत्र के सैकड़ों कम्प्यूटर अनुप्रयोगों के हिन्दी अनुवाद मैंने किए हैं तो घोर आश्चर्य से सोचता हूँ कि जब मैंने ऊँधते हुए इतना कुछ कर डाला तो मैं जागता होता तो पता नहीं क्या-क्या कर सकता था?” यह शब्द हैं छत्तीसगढ के राजनांदगांव में 5 अगस्‍त 1958 को जन्में भारत के जानेमाने इंटरनेट विशेषज्ञ व तकनीशियन रविशंकर श्रीवास्तव के । हिन्दी इंटरनेट व ब्लाग को भारतीय पृष्टभूमि में लोकप्रिय बनाने वाले अतिसक्रिय नेट टेक्नोक्रैट रवि शंकर श्रीवास्तव बीस सालों तक एमपीईबी में इलेक्ट्रिकल इक्यूपमेंट मैन्टेनेंस इंजीनियर के रूप में कार्य कर चुके हैं वे वहां से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर पिछले सालों से इंफरमेशन टेक्नालाजी के क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्य कर रहे हैं ।

रवि रतलामी हिन्दी को इंटरनेट में स्थापित करने के लिए अपने सामान्य व विशिष्ठ प्रयासों में निरंतर जुटे रहे जिसे वे उंघते और जागते हुए प्रयास कहते हैं । इसी क्रम में इन्होंनें अपने तकनीकी अनुभवों को तकनीकी पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा बांटना शुरू किया जिससे भारत के इंटरनेट व सूचना तकनीकी के क्षेत्र के काम में एक अभूतपूर्व क्रांति आने लगी । इनके सैकडों तकनीकी लेख भारत की प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे । इन्होंने इस क्षेत्र में अपने ज्ञान व शोध कार्यों को निरंतर नया आयाम दिया है । इनके कम्प्यूटर साफ्टवेयरों व इंटरनेट प्रयोगों में हिन्दी भाषा को पूर्णत: स्थापित करने के अपने दृढ निश्चय व प्रतिबद्धता के उद्देश्य के कारण ही लिनिक्स आपरेटिंग सिस्टम के पूर्ण हिन्दीकरण स्वरूप मिलन 0.7 (हिन्दी संस्करण) को जारी किया जा सका एवं गनोम डेस्कटाप के ढेरों प्रोफाईलों का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया गया । लिनिक्स सिस्टम के रवि जी अवैतनिक – कार्यशील सदस्य हैं । कम्प्यूटर में हिन्दी प्रयोग का यह प्रयास भारत के अधिसंख्यक हिन्दी भाषा-भाषी जन के लिए एक नया सौगात है इससे देश में कम्प्यूटर अनुप्रयोगों में काफी वृद्धि हुई है एवं देश में सूचना क्रांति का विकास हिन्दी के कारण संभव होता दिख रहा है क्योंकि ऐसे साफ्टवेयरों के प्रयोग से अंग्रेजी से डरने वाले कर्मचारी एवं सामान्य जन भी कम्प्यूटर के प्रयोग में रूचि दिखलाने को उत्द्धत हुए हैं ।

हिन्दी या स्थानीय भाषा में कम्प्यूटर आपरेटिंग सिस्टम व साफ्टवेयर के विकास से व्यक्ति के मूल में अंग्रेजी के प्रति सर्वमान्य झिझक दूर हो जायेगी क्योंकि हिन्दी या स्थानीय भाषा में संचालित होने व हेल्प मीनू भी उसी भाषा में होने के कारण सामान्य पढा लिखा व्यक्ति भी कम्प्यूटर प्रयोग कर पायेगा । यहां यह बात अपने जगह पर सदैव अनुत्तरित रहेगा कि भारत जैसे गरीब देश में कम्प्यूटर व इंटरनेट में हिन्दी या स्थानीय भाषा के प्रयोग को यदि प्रोत्साहन दिया जाए तो क्या मजदूरों को काम मिलेगा ? भूखों को रोटी मिलेगी ? पर इतना तो अवश्य है कि जैसे टीवी, एटीएम व मोबाईल और मोबाईल नेट पर मीडिया का प्रयोग इस गरीबी के बाद भी जिस तरह से बढा है और लोगों के द्वारा अब इसे विलासिता के स्थान पर आवश्यकता की श्रेणी में रखा जा रहा है । इसे देखते हुए इन सबके आधार में कम्प्यूटर आपरेटिंग सिस्टम व साफ्टवेयरों का हिन्दीकरण व स्थानीय भाषाकरण की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता ।

कम्प्यूटर पर हिन्दी का प्रयोग विगत कई वर्षों से हो रहा है, कहीं कृति देव, चाणक्य तो कहीं श्री लिपि या अन्य फोन्ट-साफ्टवेयर हिन्दी को प्रस्तुत करने के साधन हैं । इन सभी साधनों के प्रयोग करने के बाद ही आपके कम्प्यूटर में हिन्दी के दर्शन हो पाते हैं । इन साफ्टवेयरों को आपके कम्प्यूटर में डाउनलोड करने, संस्थापित करने एवं कहीं कहीं कुजी उपयोग करने या अन्य उबाउ तकनिकी के प्रयोग के झंझट सामने आते हैं और प्रयोक्ता हिन्दी से दूर होता चला जाता है किन्तु यूनिकोड आधारित हिन्दी नें इस मिथक को तोडा है । आज विन्डोज एक्सपी संस्थापित कम्प्यूटर यूनिकोड यानी संपूर्ण विश्व में कम्प्यूटर व इंटरनेट में मानक फोंट ‘मंगल’ हिन्दी को प्रदर्शित करने के सहज व सरल रूप में उभरा है जिसे अन्‍य आपरेटिंग सिस्टमों नें भी स्वीकारा है । जिसके बाद ही यूनिकोडित रूप से लिखे गये हिन्दी को वेब साईटों या कम्प्यूटर में देखने के लिए किसी भी साफ्टवेयर को संस्थापित या डाउनलोड करने की आवश्यकता अब शेष नहीं रही, मानक हिन्दी फोंट विश्व में कहीं भी अपने वास्तविक रूप में प्रदर्शित होने लगा है ।

वेब दुनिया व बीबीसी जैसे हिन्दी पोर्टलों के द्वारा पूर्व में कृति व अन्य फोंटों का प्रयोग किया जाता था जिसे देखने के लिए संबंधित फोंट को डाउनलोड करना पडता था इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए वेबदुनिया नें अपना फोंट यूनिकोडित कर लिया । यूनिकोडित हिन्दी के प्रयोग को अब भारत के पत्रकारों नें भी स्वीकार करना प्रारंभ किया है क्योंकि यह तकनिक समाचारों को सीधे वेब पोर्टल में प्रस्तुति एवं प्रकाशन के लिए सक्षम बनाता है और यह सुविधा स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता कर रहे व्यक्तियों व लेखकों के लिए तो अब अतिआवश्यक हो गया है ।

90 के दसक में जब इंटरनेट नें भारत में पाव पसारना प्रारंभ किया था तब भिलाई स्पात संयंत्र व अन्य स्थानीय संयंत्रों में तकनीकी सहयोग के लिए भिलाई आने वाले विदेशियों के लेपटाप में इंटरनेट कनेक्शन कानफिगर करते हुए हमने देखा है कि जर्मनी एवं जापान जैसे छोटे देश के निवासियों के लेपटाप में कम्प्यूटर आपरेटिंग सिस्टम उनके देश की भाषा में ही होता है । वे बोलते व कार्य करते हैं, अंग्रेजी भाषा में किन्तु कम्प्यूटर का प्रयोग वे अपने देश की भाषा में करते हैं । उस समय हम सोंचा करते थे कि वह दिन कब आयेगा जब भारत में भी हिन्दी आपरेटिंग सिस्टम का प्रचलन हो पायेगा । माईक्रोसाफ्ट व लिनिक्स नें हमारे इस स्वप्न को पूरा करने में सराहनीय कदम उठाया है और इस पर हो रहे प्रयोगों से मन को सुकून मिला है ।

इन सबके नेपथ्य में रवि रतलामी जैसे व्यक्तियों का योगदान है, हिन्दी के प्रयोग को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बढावा देने की प्रक्रिया सामान्य अनुभव से दृष्टिगत भले ही न हो किन्तु हिन्दी नें शनै: शनै: विकास किया है और इसके लिए रवि रतलामी जैसे धुरंधरों नें काम किया है ।

विश्व में हिन्दी भाषा के ताकत को माईक्रोसाफ्ट नें बखूबी पहचाना है इस कारण उसने भी अपने साफ्टवेयरों व आपरेटिंग सिस्टमों को हिन्‍दी में परिर्वतित करना प्रारंभ कर दिया है । माईक्रोसाफ्ट नें हिन्दी पर हो रहे नित नव प्रयोगों में टेक्नोक्रैट रवि शंकर श्रीवास्तव के महत्व को स्वीकारते हुए इंटरनेट के हिन्दीकरण व प्रोग्राम डेवलपमेन्ट के साथ समुदाय की समस्याओं के समाधान के लिए दिये जानेवाले माइक्रोसाफ्ट के मोस्ट वैल्युएबल प्रोफेशनल एवार्ड के लिए उन्हें चुना । एमवीपी संसार भर के 90 से भी ज्यादा देशों से चुने गये ऐसे विशिष्ट तकनीकी लोगों को दी जाने वाली उपाधि है जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से अपने तकनीकी ज्ञान, अनुभव को समुदाय में बाँट कर उन्हें समृद्ध किया है। आम जन के लिए पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा लगातार लेख लिखने, कार्यशालाओं में शिरकत करने के साथ ही रवि नें जून 2004 में ‘रवि रतलामी का हिन्दी ब्लाग’ प्रारंभ किया जिसमें उनके द्वारा नियमित रूप से आम घटनाओं के साथ-साथ हिन्दी कम्यूटिंग व तकनीक से जुड़ी जानकारियों पर लेख लिखे जा रहे हैं । इनके इस ब्लाग से अनगिनत लोगो नें इंटरनेट पर हिन्‍दी का प्रयोग सीखा तकनीकी जानकारियां आम हुई । हिन्दी के इस अतिलोकप्रिय ब्लाग के महत्व का आंकलन इस बात से लगाया जा सकता है कि 2006 में इसे माइक्रोसॉफ्ट भाषा इंडिया ने सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग से नवाजा ।

‘रवि रतलामी का हिन्दी ब्लाग’ के अतिरिक्त रवि रतलामी ‘रचनाकार’ और ‘देसीटून्‍ज’ नाम के साईट में भी हिन्दी के अपने कौशल को प्रस्‍तुत कर रहे हैं । इन दोनों साईटों के संबंध में कहा जाता है कि ‘रचनाकार’ जहाँ पूरी तरह से गंभीर साहित्यिक ब्लॉग है, वहीं ‘देसीटून्‍ज’ में व्यंग्यात्मक शैली के कार्टून्स और केरीकेचर्स से आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएँगे ।‘ हिन्दी साहित्य में रूचि रखने के कारण इन्होंने हिन्दी कविताऍं, गजल व व्यंग लेखन को भी आजमाया है जो अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं । रवि जी कई हिन्दी व अंग्रेजी के तकनीकि पत्रिकाओं में अब भी नियमित स्तभ लेखन करते हैं ।

रवि रतलामी अपने जन्म भूमि छत्तीसगढ की सेवा में भी पिछले कई वर्षों से लगे हुए थे । कम्प्यूटर में हिन्दी अनुप्रयोगों में गहन शोध करते हुए रवि नें छत्तीसगढी भाषा के आपरेटिंग सिस्टम पर भी कार्य किया एवं अंतत: इसे सफलतापूर्वक पूर्ण कर लिया । सरकार एवं जनता के द्वारा छत्तीसगढ में सूचना प्रौद्यौगिकी के बेहतर व सफलतम प्रयोग को देखते हुए यह आपरेटिंग सिस्टम हम छत्तीसगढियों के लिए और भी महत्वपूर्ण हो गया है इससे कम्प्यूटर का प्रयोग सरल हो जायेगा । धान खरीदी, ग्रामपंचायतों में भविष्य में लगने वाले कियोक्स टचस्क्रीन-कम्प्यूटर, च्‍वाईस सेंटरों आदि में अपनी भाषा में संचालित कम्प्यूटर को चलना व समझना आसान हो पायेगा ।

रवि रतलामी के इस योगदान पर छत्तीसगढ की प्रतिष्ठित साहित्य हेतु सर्मपित संस्था सृजन सम्मान द्वारा वर्ष 2007-08 के लिए ‘छत्तीसगढ गौरव सम्मान’ देने की घोषणा की गई है । सृजन सम्मान नें श्री रतलामी के कार्य को सूचना और संचार क्रांति के क्षेत्र में राज्य के 2 करोड़ लोगों की भाषा-छत्तीसगढ़ी के उन्नयन और विकास के लिए परिणाममूलक और दूरगामी प्रभाव वाला निरूपित किया है, जिसकी आज महती आवश्यकता है । हमें रवि रतलामी के प्रयासों पर नाज है क्योंकि विश्व में हिन्दी को कम्प्यूटर पर स्थापित करने में जो योगदान रवि नें किया है उसे चंद शब्दों में बांधा नहीं जा सकता । आज यही योगदान उनके द्वारा छत्तीसगढी के लिए किया जा रहा है जिसका तात्कालिक लाभ एवं आवश्यकता यद्धपि समझ में नही आ रहा हो किन्तु यह एक आगाज है आगे इस तकनीकी व भाषा को अपने प्रगति के कई और सोपान रचने हैं । सृजन के इस शिल्पी की उंगली पकड कर हमें संचार तकनीकी के क्षेत्र में भी समृद्ध बनना है ।
(ब्लाग जगत में उपलब्ध जानकारियों के आधार पर )

संजीव तिवारी

श्री रवि रतलामी जी को सृजन-सम्मान के द्वारा एक प्रतिष्ठापूर्ण समारोह में 'छत्तीसगढ गौरव' सम्मान
दिनांक 17.02.2008 को प्रदान किया जायेगा रवि भाई को अग्रिम शुभकामनायें ।
श्री रवि रतलामी जी 17.02.2008 को सुबह
9 से संध्या 7 तक रायपुर में रहेंगें , निर्धारित कार्यक्रमों के बीच संभावना है कि हम दोपहर 11 से 2 तक उनके साथ रह कर हिन्दी चिट्ठाकारी पर पारिवारिक चर्चा करें एवं इस सम्मान समारोह के सहभागी बनें । रईपुर वाले हमर बिलागर भाई मन घलो संग म रहितेव त अडबड मजा आतीस, त आवत हव ना भाई मन .....

शिक्षा, संस्कृति एवं साहित्य के महान शिल्पी डॉ. पालेश्वर शर्मा

छत्‍तीसगढ प्रदेश के प्रतिष्ठित साहित्‍यकार, भाषाविद, शिक्षाशास्‍त्री, डॉ. पालेश्‍वर शर्मा किसी प्ररिचय के मोहताज नहीं है । हिन्‍दी के लेखक तथ समीक्षक के रूप में प्रख्‍यात होने के बाद, डॉ. शर्मा ने विगत तीन दशकों से अपने लेखन कर्म को छत्‍तीसगढी भाषा, साहित्‍य एवं संस्‍कृति के संवर्धन के लिए समर्पित कर दिया है । हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढी शब्‍दों के साथ और गोष्ठियों और चर्चाओं में प्राध्‍यापकीय मुद्रा में अर्थ पूछना और फिर उत्‍तर देकर सबकों चमत्‍कृत कर ज्ञान के अछूते क्ष्‍ेत्र से परिचित कराना उनकी विशेष प्रतिभा और शब्‍द-शिल्‍पी होने का प्रमाण है ।

छत्‍तीसगढी गद्य का सौंदर्य निर्दिष्‍ट कराने वाले तथा लोक कथात्‍मक कहानियों से छत्‍तीसगढी कला साहित्‍य का समारंभ करने वाले ये ऐसे कथाकार हैं जिन्‍हें लोककथ्‍थकड और शिष्‍ट कथाकार का संधस्‍थल कहा जा सकता है । प्रयास प्रकाशन ने तैंतीस वर्ष पूर्ण उनकी कहानियों को भोजली त्रैमासिक छत्‍तीसगढी पत्रिका में प्रकाशित करके और फिर सुसक झन कुररी । सुरता ले । में संग्रहित करके एतिहासिक कार्य किया । बाद में इनकी अन्‍य कहानियां तिरिया जनम झनि देय शीर्षक से छिपी जिसे एम.ए. अंतिम हिन्‍दी के पाठ्यक्रम में समावेशित किया गया । इसका द्वितीय संस्‍करण अभी हाल में बिलासा कला मंच ने प्रकाशित किया है । लोक कथात्‍मक आंचलिक कहानियां छत्‍तीसगढ के इतिहास और संस्‍कृति की धरोहर है । इन कहानियों की भाषा शैली अत्‍यंत प्रभावोत्‍पादक और मानक छत्‍तीसगढी गद्य के उदाहरण है । डॉ. शर्मा की अन्‍य लोकप्रिय कृति गुडी के गोठ- बात नवभारत में प्रकाशित स्‍तभं का चुनिंदा संकलन है । छत्‍तीसगढी गद्य की आदर्श संस्‍थापना की दृष्टि से तीनों कृतियां अत्‍यंत म हत्‍वपूर्ण है ।

डॉ. शर्मा ने सन् 1973 में छत्‍तीसगढ के कृषक जीवन की शब्‍दावली पर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्‍त की । इसके मुख और पूंछ को जहां छत्‍तीसगढ का इतिहास एवं परम्‍परा के रूप में प्रस्‍तुत किया गया वही मुख्‍यांश को छत्‍तीसगढी हिन्‍दी शब्‍दकोश के रूप में विलासा कला मंच ने छापा । इसके पूर्व के डॉ. रमेशचन्‍द्र महरोत्रा के शब्‍दकोश में रायपुरी शब्‍द अधिक थे । डॉ. शर्मा ने उसे बिलासपुरी के साथ समन्वित कर वृहद विस्‍तृत किया । इस तरह प्रमाणिक शब्‍द शिल्‍पी, कोशकार,इतिहास तथा संस्‍कृति के पुरोधा के रूप में डॉ. शर्मा प्रतिष्ठित हुए । रतनपुर और मल्‍हार छत्‍तीसगढ के पुरातत्‍व के

संग्रहालय हैं । इन पर दो पुस्‍तकें आपने लिखी । मल्‍हार की डिडिनदाई पर पहली बार प्रमाणिक प्रकाश आपने डाला । इसी तरह छत्‍तीसगढ के व्रत, त्‍यौहार पर अरपा पाकेट बुक्‍स की प्रस्‍तुति भी उल्‍लेखनीय कही जा सकती है । छत्‍तीसगढी लोकसाहित्‍य पर तो इनके अनेक लेख प्रकाशित व वार्ताओं के रूप में प्रसारित होकर प्रशांशित हुए हैं । इस तरह डॉ. शर्मा छत्‍तीसगढ के जीवंत इन साइक्‍लोपीडिया हैं ।

समय-समय पर इन्‍हें प्रादेशिक व क्षेत्रीय पुरस्‍कारों व सम्‍मानों से अलंकृत किया गया है । इन्‍हें प्रदेश का सर्वोच्‍च साहित्‍य व संस्‍कृति सम्‍मान भी दिया गया है । डॉ. शर्मा तो कबीर की तरह अलमस्‍त और नागर्जुन की तरह फक्‍कड साहित्‍यकार हैं । इन्‍हें इन सबसे कोई खास सरोकार भी नहीं ।

डॉ. शर्मा लेखन व व्‍याख्‍यान दोनों में पटु है । हिन्‍दी में पहले भी प्राध्‍यापक, निबंधाकर व आलोचक के रूप में आपकी पहचान बना चुके थे । उनका प्रबंध पटल निबंध संग्रह (1969) प्रयास प्रकाशन से प्रकाशित व स्‍नातक स्‍तर पर विद्यार्थियों के लिए पठनीय प्रकाशन प्रमाणित हो चुका है । ऐसे शब्‍दों के जादुगर और छत्‍तीसगढ के माटी पुत्र की अनवरत सेवा-साधना का लाभ प्रदेश को मिल रहा है, यह हम सबके लिए गर्व और गौरव का विषय है ।

आलेख - डॉ. विनय कुमार पाठक बिलासपुर (छत्‍तीसगढ)

परिचय : डॉ. पालेश्‍वर प्रसाद शर्मा

माता : श्रीमती सेवती शर्मा

पिता : पंडित श्‍यामलाल शर्मा

जन्‍मतिथि एवं ग्राम: 1 मई 1928, जांजगीर

शिक्षा: पी.एच.डी. भाषा- विज्ञान (छत्‍तीसगढ के कृषक जीवन की शब्‍दावली)

वर्तमान पता: 35 ए, विद्यानगर, बिलासपुर (छत्‍तीसगढ)

व्‍यवसाय: सी.एम.डी. कालेज में 32 वर्षो तक अध्‍यापन

अन्‍य अनुभाव: एन.सी.सी. मेजर, छात्र-संघ प्रभारी प्राध्‍यापक बीस वर्षो तक, वि.वि. परीक्षाऍं अधीक्षक (25 वर्षो तक) प्रमुख निरिक्षक वि.वि. परीक्षाऍं, छात्र जीवन में धावक, खेलकूद कबड्डी का खिलाडी रहा, कहानी प्रतियोगिताओं में अनेक पुरस्‍कार प्राप्‍त ।

प्रकाशन/प्रसारण: आकाशवाणी से डेढ सौ से अधिक रचनाऍं प्रसारित, समाचार पत्रों में शताधिक रचनाऍं प्रकाशित एवं छत्‍तीसगढ परिदर्शन एवं गुडी के गोठ धारावाहिक नवभारत में निरंतर 125 सप्‍ताह तक प्रकाशित ।

शोध निर्देशन : दस छात्रों को पी.एच.डी. उपाधि के लिए सफल निर्देशन ।

प्रकाशित ग्रंथ : 1. प्रबंध पाटल (निजी निबंध संकलन)

प्रथम संकलन (1955) ,द्वितीय संस्‍करण (1971)

2. सुसक झन कुररी सुरता ले, छत्‍तसीगढी कहानियों का निजी संकलन (1972)

3. तिरिया जनम झनि देय (अपनी कहानियों का संग्रह प्रथम संस्‍करण) एम.ए. हिन्‍दी कक्षा में पाठ्य पुस्‍तक (1990) पाठ्य पुस्‍तक दो संस्‍करण द्वितीय संस्‍करण (2002)

4. छत्‍तीसगढ का इतिहास एवं परंपरा प्रथम संस्‍करण । (म.प्र. हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन द्वारा वागीश्‍वरी पुरस्‍कार से सम्‍मानित)

5. नमस्‍तेअस्‍तु महामाये (1997)

6. गुडी के गोठ (पहला भाग)

7. डिडिनेश्‍वरी पार्वती महिमा (2000)

8. छत्‍तीसगढ के तीज-त्‍यौहार (2000)

9. छत्‍तीसगढ के लोकोक्ति मुहावरे (2001)

10. पं. रमाकांत मिश्र अभिनंदन ग्रंथ (2001)

11. छत्‍तीसगढ हिन्‍दी शब्‍द कोश (2001)

12. सुरूज साखी हे (ललित निबंध)

13. ज्‍योति धाम रतनपुर मां महामाया (2003)

14. छत्‍तीसगढ की खेती किसानी (2003)

14.

संपादित ग्रंथ: : पाठ्य पुस्‍तकें एम.ए. हिन्‍दी कक्षा के लिए

1. छत्‍तीसगढी काव्‍य संकलन (1988)

2. हिन्‍दी कहानी संकलन (1977)

3. रेखाचित्र तथा संस्‍मरण (1978)

(बी.ए. कक्षा के लिए) -

4. रविशंकर वि.वि. घासीदास वि.वि. एम.ए. छत्‍तीसगढ में पाठय रचनाऍं

अभिनंदन ग्रंथ: भारतेंदु साहित्‍य समिति द्वारा अभिनंदित अभिनंदन गंथ.

वर्ष का ग्रंथ : छत्‍तीसगढी हिन्‍दी शब्‍दकोश का संपादन । बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा विद्याकर कवि सम्‍मान (2003) ।

सम्‍मान : मध्‍यप्रदेश हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन द्वारा वागीश्‍वरी पुरस्‍कार, महंत बिसाहू दास स्‍मृति द्वारा छत्‍तीसगढ अस्मिता पुरस्‍कार (गुडी के गोठ) अखिल भारतीय लोक कथा पुरस्‍कार, विलासा कला मंच द्वारा बिलासा साहित्‍य सम्‍मान, तथा भारतेंदु साहित्‍य समिति बिलासपुर, छत्‍तीसगढ साहित्‍य समिति, रायपुर, भिलाई, भाटापारा, समन्‍वय, अमृत लाल महोत्‍सव समिति, गुरू घासीदास वि.वि. बिलासपुर, बालको लोक कला महोत्‍सव समिति द्वारा सम्‍मानित छत्‍तीसगढ लोक कला उन्‍नयन मंच भाटापारा द्वारा छत्‍तीसगढ निबंध प्रतियोगिता में विशेष सम्‍मान पुरस्‍कार आदि । बिलासा कला मंच द्वारा वयोवृद्ध सृजनशील साहित्‍यकार सम्‍मान निधि प्रदत्‍त ।

रोटरी क्‍लब, बिलासपुर वेस्‍ट 2002 का प्रशस्ति पत्र । बाबू रेवाराम साहित्‍य समिति रतनपुर छ.ग. अभिनंदन पत्र, वशिष्‍ठ सम्‍मान 1998 गुरू घासीदास विश्‍व विद्यालय छात्र संघर्ष समिति, बिलासपुर द्वारा सम्‍मान, संरक्षक छत्‍तीसगढ हिन्‍दी साहित्‍य परिषद (छत्‍तीसगढ प्रदेश)

छत्‍तीसगढ शासन द्वारा संस्‍कृत भाषा परिषद् छत्‍तीसगढी भाषा परिषद के मनोनीत सदस्‍य संस्‍कृति विभाग की पत्रिका बिहनिया के परामर्शक ।

रविशंकर वि.वि. बख्‍शी शोध-पीठ द्वारा साधना सम्‍मान (2005)

पदुमलाल पुन्‍नालाल बख्‍शी सृजनशील साहित्‍य साधक सम्‍मान 2005

संस्‍कृति विभाग छत्‍तीसगढ शासन द्वारा पं. सुंदरलाल शर्मा सम्‍मान 2005.

डॉ. पालेश्‍वर प्रसाद शर्मा

विद्या नगर, फोन नं. 223024

बिलासपुर (छत्‍तीसगढी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...