बस्‍तर के पर्याय : गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’

लेखन की दुनियां में बस्‍तर सदैव लोगों के आर्कषण का केन्‍द्र रहा है। अंग्रेजी और हिन्‍दी में उपलब्‍ध बस्‍तर साहित्‍य के द्वारा संपूर्ण विश्‍व नें बस्‍तर की प्राकृतिक छटा और निच्‍छल आदिवासियों को समझने-बूझने का प्रयास किया है। साठ के दसक में छत्‍तीसगढ़ के इस भूगोल को हिन्‍दी साहित्‍य के क्षितिज पर चर्चित करने वाले अप्रतिम शब्‍द शिल्‍पी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ भी ऐसे ही साहित्‍यकार थे। शानी नें तत्‍कालीन बस्‍तर के उपेक्षित यथार्थ को कथा रचनाओं की शक्‍ल दी थी। जवानी की दहलीज में ही शानी के चार उपन्‍यास आठ कथा संग्रह और एक संस्‍मरण का नेशनल बुक ट्रस्‍ट व राजकमल जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशनों से प्रकाशन हुआ था, जिससे शानी की देशव्‍यापी प्रशंसा हुई थी। साहित्‍य के तीनों विधाओं क्रमश: कथा, उपन्‍यास व संस्‍मरण में बस्‍तर का चित्र प्रस्‍तुत करते हुए जो कृतियां उन्‍होंनें लिखीं वे सदैव याद की जायेंगी।
शानी की चर्चित कालजयी कृति काला जल शानी के जिन्‍दगी के प्रारंभिक दिनों के और चढ़ती वय के वैयक्तिक दुख दर्द और पारिवारिक गौरव गाथाओं व फजीहतों का किस्‍सा है। शानी का बचपन बहुत तंगी और बेइंतहा अभावो में बीता था। जगदलपुर में राजमहल के पास ही उनका पुश्‍तैनी मकान था उनकी पारिवारिक पृष्‍टभूमि से ही काला जल उभर कर सामने आया। उस समय वे काफी मानसिक पीड़ा और मनोवैज्ञानिक दबाव में थे, अपनी रचना प्रक्रिया में शायद उपन्‍यास का प्‍लाट तैयार करते हुए वे ई.एम.फास्‍टर की कृति 'ए पैसेज टू इंडिया' को कई बार पढ़ चुके थे जो छतरपुर नगर पर केन्द्रित है। इसी का प्रभाव रहा कि शानी बस्‍तर के जीवन और अपनी पारिवारिक जीवन को दलपत सागर में गूंथ पाये।
शानी नें जगदलपुर में ही मैट्रिक तक की पढ़ाई की और आगे की पढ़ाई के लिए घर की परिस्थिति के कारण रायपुर नहीं जा पाए। अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये उन्‍हें किशोरावस्‍था में ही नगर पालिका में क्‍लर्की करनी पड़ी। अपने इसी मुफलिसी के दिनों में शानी नें लिखना आरंभ किया। सृजनशील मानस के धनी शानी नें जगदलपुर में साहित्‍य प्रेमियों से सतत संपर्क बनाते हुए, जगदलपुर में महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव के जमाने के बाद पुन: साहित्तिक वातावरण निर्मित किया। उनके समय में अनुभवी साहित्‍यकार लाला जगदलपुरी का आर्शिवाद उन्‍हें प्राप्‍त हुआ वहीं बाद में डॉ.धनंजय वर्मा के जगदलपुर महाविद्यालय में बतौर हिन्‍दी प्राध्‍यापक बनकर आने से बालसखा का साथ मिला। उन्‍हीं दिनों नई पौध के रूप में मेहरून्निशा परवेज नें जगदलपुर से अपनी लेखनी का झंडा गाड़ना आरंभ कर दिया था। जगदलपुर महाविद्यालय में आने वाले हिन्‍दी साहित्‍य के व्‍याख्‍याताओं से भी शानी का निरंतर संपर्क बना रहा।
उनके मित्र बतलाते हैं कि यारबाज और साहित्तिक बतरस के प्रेमी शानी जगदलपुर जैसे दूरदराज और सारी दुनिया से कटा-छंटा शालवनो के इस द्वीप में रहते हुए भी अपने घर में तत्‍कालीन हिन्‍दी की लगभग सभी पत्रिकाओं को मंगाते थे। उन पत्रिकाओं को तल्‍लीनता से पढ़ते थे एवं मित्रों से साहित्तिक विमर्श करते थे। उनके पास ढेरों पत्र भी आते रहते थे जिसमें उनके मित्र तदसमय के ख्‍यात साहित्‍यकार अश्‍क, अमृतराय, कमलेश्‍वर, मोहन साकेश और राजेन्‍द्र यादव के पत्र होते थे। अपनी इसी अद्यतन बने रहने की चाहत के कारण वे साहित्तिक हलचलों और तत्‍कालीन साहित्‍य से परिचित बने रहते थे।
मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्‍त शानी बस्‍तर जैसे आदिवासी इलाके में रहने के बावजूद अंग्रेजी, उर्दू, हिन्‍दी और हल्‍बी के अच्‍छे ज्ञाता थे। उन्‍होंनें एक विदेशी समाजविज्ञानी के आदिवासियों पर किए जा रहे शोध पर भरपूर सहयोग किया और शोध अवधि तक उनके साथ सूदूर बस्‍तर के अंदरूनी इलाकों में घूमते रहे। कहा जाता है कि उनकी दूसरी कृति 'सालवनो का द्वीप' इसी यात्रा के संस्‍मरण के अनुभवों में पिरोई गई है। उनकी इस कृति की प्रस्‍तावना उसी विदेशी नें लिखी और शानी नें इस कृति को प्रसिद्ध साहित्‍यकार प्रोफेसर कांतिकुमार जैन जो उस समय जगदलपुर महाविद्यालय में ही पदस्‍थ थे, को समर्पित किया है। शालवनों के द्वीप एक औपन्‍यासिक यात्रा वृत है मान्‍यता हैं कि बस्‍तर का जैसा अंतरंग चित्र इस कृति में है वैसा हिन्‍दी अन्‍यत्र नहीं है। इस कृति के प्रकाशन के बाद तो बस्‍तर और शानी एक दूसरे के पर्याय हो गए जैसे साहित्‍यजगत लमही को प्रेमचंद के नाम से जानते हैं वैसे ही बस्‍तर को शानी के नाम से जाना जाने लगा।
16 मई 1933 को जगदलपुर में जन्‍में शानी नें अपनी लेखनी का सफर जगदलपुर से आरंभ कर ग्‍वालियर फिर भोपाल और दिल्‍ली तक तय किया। वे मध्‍य प्रदेश साहित्‍य परिषद भोपाल के सचिव और परिषद की साहित्तिक पत्रिका साक्षातकार के संस्‍थापक संपादक रहे। दिल्‍ली में वे नवभारत टाईम्‍स के सहायक संपादक भी रहे और साहित्‍य अकादमी से संबद्ध हो गए। साहित्‍य अकादमी की पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्‍य के भी वे संस्‍थापक संपादक रहे। इस संपूर्ण यात्रा में शानी साहित्‍य और प्रशासनिक पदों की उंचाईयों को निरंतर छूते रहे। शानी नें साँप और सीढ़ी, फूल तोड़ना मना है, एक लड़की की डायरी और काला जल जैसे उपन्‍यास लिखे। लगातार विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में छपते हुए बंबूल की छॉंव, डाली नहीं फूलती, छोटे घेरे का विद्रोह, एक से मकानों का नगर, युद्ध, शर्त क्‍या हुआ ?, बिरादरी और सड़क पार करते हुए नाम से कहानी संग्रह व प्रसिद्ध संस्‍मरण शालवनो का द्वीप लिखा। शानी नें अपनी यह समस्‍त लेखनी जगदलपुर में रहते हुए ही लगभग छ:-सात वर्षों में ही की। जगदलपुर से निकलने के बाद उन्‍होंनें अपनी उल्‍लेखनीय लेखनी को विराम दे दिया। बस्‍तर के बैलाडीला खदान कर्मियों के जीवन पर तत्‍कालीन परिस्थितियों पर उपन्‍यास लिखनें की उनकी कामना मन में ही रही और 10 फरवरी 1995 को वे इस दुनिया से रूखसत हो गए ।
संजीव तिवारी


आरंभ में शानी पर पुरानी कड़ी - राजीव काला जल और शानी 

 अन्‍य कडि़यां -
प्रेरणा में डॉ. धनंजय वर्मा का संस्‍मरण सांप और सीढ़ी का खेल
शिरिश कुमार मौर्य के ब्‍लाग में लोर्का की कविताओं का शानी द्वारा अनुवाद
शानी की कहानी ज़नाज़ा गद्य कोश में
शानी का प्रश्‍न - हिन्दी साहित्य ने मुसलमानों को अनदेखा क्यों किया? नामवर का जवाब वाङ्मय में

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...