डाली डाली उड उड करके खाए फल अनमोल वृक्षों को किसने उपजाया देख उसे दृग खोल : पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र'

धन धन रे मोर किसान, धन धन रे मोर किसान! मैं तो तोला जानेव रे भईया, तैं अस भुंईया के भगवान ...... भैया लाल हेडाउ के सुमधुर स्‍वर में इस गीत को छत्‍तीसगढ़ी भाषा के प्रेमियों नें सुना होगा। इस गीत के गीतकार थे छत्‍तीसगढ़ी भाषा के सुप्रसिद्ध गीतकार द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र'। ऐसे लोकप्रिय गीत के गीतकार विप्र जी नें तदसमय में छत्‍तीसगढ़ी भाषा को अभिजात्‍य वर्ग के बीच बोलचाल की भाषा का दर्जा दिलाया।
पं.द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' जी का जन्‍म छत्‍तीसगढ़ के संस्‍कारधानी बिलासपुर के एक मध्‍यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में 6 जुलाई सन् 1908 में हुआ. विप्र जी के पिता का नाम पं. नान्‍हूराम तिवारी और माता का नाम देवकी था। विप्र जी, दो भाई और दो बहनों में मंझले थे जिसके कारण वे मंझला महराज के नाम से भी जाने जाते थे। हाई स्‍कूल तक की शिक्षा इन्‍होंनें बिलासपुर में ही प्राप्‍त की फिर इम्‍पीरियल बैंक रायपुर एवं सहकारिता क्षेत्र में कार्य करते हुए सहकारी बैंक बिलासपुर में प्रबंधक नियुक्‍त हुए। सादा जीवन उच्‍च विचार से प्रेरित विप्र जी जन्‍मजात कवि थे, बात बात में गीत गढ़ते थे। ठेठ मिठास भरी बिलासपुरी छत्‍तीसगढ़ी बोलते उन्‍हें जिसने भी सुना है वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा है। कविताओं के साथ ही उन्‍हें संगीत से भी लगाव था वे सुमधुर सितार बजाते थे, हाथरस से प्रकाशित होने वाली संगीत की पत्रिका 'काव्‍य कलाधर' में सितार से सिद्ध की गई उनकी कवितांए मय नोटेसन के प्रकाशित होती थी, नोटेसन खुद विप्र जी तैयार करते थे।
छत्‍तीसगढ़ी लोकाक्षर के संपादक समालोचक व साहित्‍यकार नंदकिशोर तिवारी जी के संपादन में विप्र जी की संपूर्ण रचनाओं का 'विप्र रचनावली' के नाम से प्रकाशन किया गया है। नंदकिशोर तिवारी जी नें विप्र रचनावली में अपने लेख 'अकुंठित व्‍यक्तित्‍व के धनी पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र'' में उनके व्‍यक्तित्‍व एवं रचना संसार के संबंध में लिखा हैं। भविष्‍य में विस्‍तार से विप्र जी के संबंध में जानकारी हम यहां प्रस्‍तुत करेंगें, विप्र जी को आज याद करते हुए उनकी कविताओं के कुछ अंश हम यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं -
छत्‍तीसगढ़ी -
हम गांव ला अपन बढ़ाबोन गा, हम गांव ला अपन बढ़ाबोन गा।
जइसन बनही तइसन ओला, सरग मा सोझ चढ़ाबोन गा।
खेत खार खुबिच कमाके, रंग-रंग अन्‍न उपजाबोन गा,
अपन देस के भूख मेटाबो, मूड़ी ला उंचा उठाबोन गा।
उपन देस के करब बढ़ोतरी, माई-पिल्‍ला कमाबोन गा,
चला रे भईया चली हमू मन, देस ला अपन बढ़ाबोन गा।
कई किसिम के खुलिस योजना, तेमा हाथ बटाबोन गा।
देश प्रेम -
हिन्‍द मेरा वतन, मैं हूँ उसका रतन
इस वतन के लिए जन्‍म पाया हूँ मैं
इसकी धूलि का कण, मेरा है आवरण
इसकी गोदी में हर क्षण समाया हूँ मैं.
भक्तिकालीन चेतना -
यह संसार बसेरा है सखि
विपदा विवश बसेरा है
बंधा कर्म जीवन में जाने
कितने दिनो का डेरा है।
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डाली डाली उड उड करके
खाए फल अनमोल
वृक्षों को किसने उपजाया
देख उसे दृग खोल।

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...