छत्तीसगढ के असुर: अगरिया

जनजातीय समाज के लोग अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से अपनी संस्कृति, परंपरा व प्रकृति को धरोहर की भांति निरंतर सहेजते रहे है, एवं समयानुसार इन्हें सवांरते भी रहे है. आज के विकसित समाज के मूल में इस भूगोल के प्राय: सभी हिस्‍सों में, जनजातीय संस्कृति उनकी परंपरांए उनमें प्रचलित मिथक और विश्‍वास गहराईयों में सुसुप्‍त किन्‍तु जीवंत हैं. छत्तीसगढ सनातन काल से ही इन जनजातीय समाज का बसेरा रहा है जहां संस्कृतियां फली फूली हैं. इन्ही आदिम जनजातियों में से अगरिया ऐसी जनजाति है जिनका जीवन लोहे और आग का लयबद्धत संगीत है.

The  Tribes and Castes of the Central Provinces of India By R.V. Russell   


छत्‍तीसगढ़ सहित भारत के विभिन्‍न क्षेत्र में निवासरत अगरिया लोग अपनी उत्पत्ति को वैदिक काल से संबद्ध मानते हैं. जब समुद्र मंथन हुआ और देवताओं के द्वारा संपूर्ण अमृत अकेले प्राप्त कर लेने हेतु चतुर चाल चले गए तब असुरों नें अमृत घट चुरा लिया था. जिसे छल से स्त्री वेष धर कर विष्‍णु नें वापस प्राप्त किया और भागने लगे तब असुरो के देवता राहु नें उनका पीछा किया जिससे पीछा छुडाने के लिए सूर्य देव नें चक्र से राहु का सिर धड से अलग कर दिया. राहु का धड विष्‍फोट के साथ पृथ्वी पर गिरा और जहां जहां उसके शरीर के तुकडे गिरे वहां वहां पृथ्वी में असुर पैदा हुए. धड विहीन राहु आकाश में भ्रमण करते हुए प्रतिशोध स्वरूप सूर्य को अवसर प्राप्त होने पर ग्रसते रहता है. यही राहु अगरियों का आदि देव है. जो कालांतर में इनके नायक लोगुंडी राजा एवं ज्वालामुखी, करिया कौर हुए जो अपने अलग-अलग रूप में आज भी पूजे जाते हैं.

अगरियों से परे तथ्यात्मक संदर्भों का अवलोकन करने पर वैरियर एल्विन कहते हैं कि ‘उनकी उत्पत्ति अस्पष्‍टता के गर्त में है किन्तु पौराणिक असुरों से अपने आप को जोडने की उनकी धारणा रोचक है.’ लोहे के इतिहास पर यदि नजर डालें तो युद्धों में मारक अश्‍त्रों का उपयोग ई.पू.2000 से 1000 के बीच से आरंभ है. प्राचीन इतिहासकार हेरोडोट्स लिखता है कि जेरेक्सेस की सेना के भारतीय योद्धा लोहे के बडे फलों वाले भाले से सुसज्जित थे. यानी भारतीय लोहे का सफर विदेशों तक तब भी हो रहा था. भारतीय लोहे की गुणग्राह्यता के संबंध में डब्लू.एच.शैफ नें द इस्टन आयरन ट्रेड आफ रोमन एम्परर में लिखते हैं कि प्राचीन रोम में तद्समय ज्ञात सर्वोत्तम किस्म के स्टील का आयात भारत से होता था. अयस्कों को आदिम विधि से पिघलाकर बनाया गया लोहा तद्समय के बहुप्रतिष्ठित समाज के लिए सर्वोत्तम स्टील रहा है. और संपूर्ण विश्‍व में इस सर्वोत्तम स्टील को बनाने वाले भारत के अगरिया रहे हैं.

अरबी इतिहासकार हदरीषी नें भी लोहे के उत्पादन में हिन्दुओं की प्रवीणता को स्वीकारते हैं वे कहते हैं कि हिन्दुओं के बनाए गए टेढे फलों वाली तलवारों को किसी अन्य तलवारों से मात देना असंभव था. उन्होंनें आगे यह भी लिखा कि हिन्दुस्तान में अयस्कों से लौह निर्माण व हथियार निर्माण करने के निजी कार्यशालाओं में विश्‍व प्रसिद्ध तलवारें ढाली जाती थी. एक और इतिहासकार चार्डिन कहता है कि पर्शिया के लडाकों के लिए बनने वाले तलवारों को ढालने के लिए भारतीय लोहे को मिलाया जाता था क्योंकि भारतीय लोहा पर्शियन के लिए पवित्र था और उसे श्रद्धा से देखा जाता था जिसे इतिहासकार डूपरे नें भी स्वीकार किया था.

The Tribes and Castes of the Central Provinces of India By R.V. Russell
अन्य उल्लेखों में फ्रांस का व्यापारी ट्रेवेनियर को गोलकुंडा राज्य के लौह कर्मशालायें बेहद पसंद आई थी जहां तलवारें, भाले, तीर ढलते थे, उसे गोलकुंडा में ढलने वाले बंदूक के पाईप भी बहुत अच्छी गुणवत्ता के नजर आये थे जो बारूदों के प्रभाव से पश्चिमी देशों के बंदूकों की तरह फटते नहीं थे. ये सारे संदर्भ नेट में यत्र-तत्र बिखरे पडे हैं एवं भारतीय पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं किन्तु हमें अपना ध्यान अगरियों पर ही केन्द्रित रखना है इस कारण लोहे पर अन्य जानकारी यहां देनें की ज्यादा आवश्‍यकता नहीं हैं.  .............................

जनजातीय इतिहास के संबंध में रसेल व हीरालाल की दुर्लभ लेखनी इंटरनेट में उपलब्‍ध है जिसे बाक्‍स में दिये गये लिंक से पढा जा सकता है.                                   

अगरिया पर मेरी कलम घसीटी के अंश
संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...