1800 से पहले भारत में दलित नहीं थे : डॉ.बिजय सोनकर शास्त्री

विगत दिनों दुर्ग में आयोजित एक कार्यक्रम में हिन्दू जीवन दृष्टि एवं पर्यावरण विषय पर प्रकाश डालते हुए वक्ता डॉ.सच्चिदानंद जोशी, कुलपति, कुशाभाउ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय, रायपुर नें कहा कि हमारी हिन्दू संस्कृति में विशिष्ठ वैज्ञानिक एवं पर्यावरणीय चिंतन है. वैज्ञानिक जिस गॉड पार्टिकल की अवधारणा को सिद्ध कर रहे हैं उसे हमारे वेदो नें सदियों पहले ही सिद्ध कर लिया था. उन्होंनें हिन्दू जीवन पद्धति को विभिन्न वैज्ञानिक सिद्धांतों के साथ जोड़ते हुए बताया कि वेदों में तमाम बातें कही गई हैं जिसे विज्ञान अब सिद्ध कर रहा है. उन्होंनें अलबर्ट आंइन्टांईन को कोट करते हुए कहा कि कोई भी विज्ञान धर्म के बिना लंगड़ा है और कोई भी धर्म विज्ञान के बिना अंधा. सभा को संबोधित करते हुए बिरसराराम यादव नें गांव में बादल गरजने पर सब्जी काटने वाले हसिये को आंगन में फेंकने की परम्परा का उदाहरण देते हुए कहा कि हमारी भारतीय पारंपरिक ज्ञान में विज्ञान समाहित है. हमारे चिंतन और व्यवहार का आधर पूर्ण वैज्ञानिक है.

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए 'हिन्दू जीवन दृष्टि एवं वेद व विज्ञान' विषय पर अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत करते हुए डॉ.बिजय सोनकर शास्त्री, अखिल भारतीय प्रवक्ता भारतीय जनता पार्टी नें कहा कि सूर्य और चंद्र की दूरी वैज्ञानिकों नें यदि नहीं नापी होती तो क्या हमारे वेदों में दी गई सूर्य चंद्र की दूरी की सत्यता की जांच हो पाती. उन्होंनें वैज्ञानिकों से आहवान किया कि वे और शोध करें ताकि हमारे वेदों की प्रामाणिकता सिद्ध हो. उन्होंनें सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का उल्लेख करते हुए बताया कि हिन्दू जीवन पद्धति पूर्ण वैज्ञानिक है. हमारी पूजा पद्धति, रीति रिवाज, व्रत त्यौहार सब का वैज्ञानिक आधार है. भारत में कभी भी सामाजिक विषमता नहीं थी, मुस्लिम आक्रांताओं एवं अंग्रेजी फूट डालो की रणनीति नें हमारी संस्कृति पर बार बार आक्रमण किए हैं जिससे कि हमारा समाज बिखरने लगा. उन्हानें भारतीय संस्कृ्ति को सदैव जोड़ने वाला बताया, दलितों की उत्पत्ति के संबंध में उन्होंनें दावे से कहा कि सन् 1800 से पहले भारत में दलित थे ही नहीं, भारत में विदेशी आंक्रांताओं नें दलित पैदा किए. उन्होंने रामायण की पंक्ति ढोर गवांर की तथ्यपरक व्याख्या करते हुए अधिकारी शव्द का अर्थान्वयन किया. यानी ताड़ना देने का अधिकार इन पांचों के पास है.

उन्होंनें एकलव्य कथा का उल्‍लेख करते हुए कहा कि एकलव्‍य नें गुरू द्रोण से अर्जुन के समान होने का वरदान मांगा था. एकलब्‍य नें प्रत्‍यक्षत: इस बात को झुठला दिया था कि पृथ्‍वी में अर्जुन के समान धनुर्धर कोई नहीं है. किन्‍तु अर्जुन सब्‍यसांची धर्नुधर था अर्थात अर्जुन बांयें हांथ की उंगलियों और अंगूठे से धनुष की प्रत्‍यंचा में तीर चलाता था. एकलब्‍य दाहिने हाथ की उंगलियों और अंगूठे से धनुष की प्रत्‍यंचा में तीर चलाता था. द्रोण नें एकलव्‍य का अंगूठा लेकर उसे अर्जुन के समान सव्‍यसांची बनाया. इसके अतिरिक्‍त भारत में दलित, त्यौहार-पर्व-उत्सव में अंतर, मोक्ष-मुक्ति का अर्थ, हिन्दू की परिभाषा आदि विषयों को भी उन्‍होंनें सहज ढंग से समझाया.

कार्यक्रम के आयोजक टोटल लाईफ फाउन्‍डेशन के अध्यक्ष एवं समाज सेवी संतोष गोलछा नें कहा कि हमारी सांस्कृतिक परम्परा, उत्सव एवं त्यौषहार में प्रकृति की अहम भूमिका है. वसुधैव कुटुम्बकम की हमारी अवधारणा ही संपूर्ण वसुधा को व्यापक दृष्टि से एक कुटुम्बं के रूप में प्रस्तुत करती है. हिन्दू संस्कृति हमें नैतिकता सिखा कर हमें मानव बनाती है जिसके कारण ही हममे प्रेम और सहिष्णुता के गुणों के साथ ही आत्म स्वाभिमान का भाव जागृत होता है। उन्होंनें वेद की प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए हनुमान प्रसंग में आए ‘युग सहत्र योजन पर भानु’ को विश्लेषित करते हुए कहा कि इस पद में आए सूर्य की दूरी वर्तमान में वैज्ञानिकों के द्वारा सिद्ध किए गए दूरी से पूरी तरह मिलती है. इस तरह से हमारे वेद पूरी तरह से प्रामाणिक हैं। उन्होंनें भारतीय परम्पराओं का उल्लेख करते हुए कहा कि एक दूसरे को सहयोग करने की रीति भारत में रही है। राजा प्रजा को पुत्र की भांति स्नेह करता था और प्रजा की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति भी देता था इसीलिए भारतीय सनातन परम्परा में प्रजा के द्वारा राजा के विरूद्ध के कभी विद्रोह नहीं हुए।

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...