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एक अनौपचारिक समालोचन : व्हॉट्स-एपिया रोमांस

शिवना प्रकाशन द्वारा हाल में प्रकाशित नये जमाने की कहानी संग्रह 'व्हॉट्स-एपिया रोमांस' को 'रोमांस कभी खत्म नहीं हो सकता है' से '.. रंगरेलियां मनाते पकड़े गए अपने बाप की ..' तक, एक ही सिटिंग में पढ़ गया। कुछ सिर से ऊपर भी गुजरी, तो फिर-फिर पढ़ा, और जितनी बार पढ़ा, नए अर्थ खुलते गए। वैसे संग्रह में के.रवींद्र के चित्र, कहानियों को समझने की बीच लगने वाले समय में, खजाने की खोज वाले नक्शे से प्रतीत होते हैं। जिसे निहारते हुए अभिव्‍यक्ति को सहजता से अंदर तक अत्‍मसाध किया जा सके। संग्रह के लेखक समीर यादव, किताब में खुद कहते हैं 'इसमें एक दूसरे से अभिव्यक्त होने के लिए जो सहारे हैं न, वही इसके सबसे रोमांचक, बेहद खूबसूरत हिस्सा भी हैं।' इन कहानियों में अभिव्यक्त होती, बगरती, खूबसूरती, समीर की परिकल्पना और उसे शब्दों में ढालने की संवेदनशील 'उदीम' सचमुच कमाल है।

वे एक जगह लिखते हैं कि, व्‍हाट्स एप में अनेक फीचर्स हैं जिसको जानने वाले रोमांस का फीचर बना लेते हैं। मतलब यह कि, तकनीक रूप से सक्षम व्यक्ति व्‍हाट्स एपिया रोमांस को अपने फेवर में करने का माद्दा रखते हैं। जिनको व्‍हाट्स एप के तकनीकी फीचर की ज्‍यादा जानकारी नहीं है उन्हें तो यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए। यह उन्‍हें व्‍हाट्स एप तकनीकी में भी माहिर बना देगी और रोमांस में भी। पूरे किताब में ही, शी सहित मनीषा, मनोज, वत्‍सला, सानिका, महीप, प्रिया, शकुन, गोकुल और समर जैसे पात्र एक दूसरे से चैट करते हुए प्रेम को अपनी-अपनी समझ और अनुभूति से अभिव्यक्त करते हैं। इस कथोपकथन में एक चमत्कृत कर देने वाली कहानी उभरती है जो आधुनिक प्रेम कहानियों का प्रतिनिधित्‍व करती है। इसके साथ ही समीर द्वारा व्यग्रता के क्षणों में लिखे गए व्यवसाय से जुड़े नोट्स व अन्य लघुकथाएं भी इसी तारतम्‍य में पठनीय है।

यह सच है कि समीर में लिखने या लिखे हुए को पढ़कर समझने की तमीज, उन्हें अपने आदरणीय बाबूजी सुकवि बुधराम यादव जी से विरासत में मिली है। सुकवि बुधराम यादव जी छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार हैं, और लोकतत्व से गहरे से जुड़े बेहद संवेदनशील कवि है। उनसे विरासत में प्राप्‍त मेधा ही समीर को लेखन में गंभीर बनाती है। इसीलिए तो पल्लवी कहती है 'समीर प्रेम कहानियां लिखते हुए सबसे सहज होते हैं।' यह सहजता, समीर नें अपने विरासत और पढ़ाकूपन की जुगलबंदी से प्राप्त किया है।

स्‍मार्ट फोन में चेटियाते हुए, रोमांस की आग जब सुलगती है तब क्या होता है आप सब जानते हैं, किंतु इसे सभी अभिव्यक्त नहीं कर पाते। इसे समीर अभिव्यक्त करते हैं, कुछ इस तरह 'हॉं, कुछ हो रहा था कल रात, मगर वह नहीं जो तुम सोच रही। इस मुहब्बत में दोनों तरफ बराबर की लगी है। खयाल का, डर का, भरोसे का, तो छल का भी.. और इनमें फर्क बहुत बारीक है।' मुहब्बत के बीच जो छल है वह 'इसमें मैं कहां' और दूसरी कहानियों में प्रतिध्वनी होती है। ऐसे ही धड़कनों सी कम शब्दों में पूरी कहानी बयां कर देने की कला समीर के इस किताब में हर जगह नजर आती है। उसे गंभीरता से समझने की आवश्‍यकता है किंतु वे स्‍वयं कहते हैं कि, समझता वही है 'लिखो जिसे पढ़ें सब, समझे बस वो'

इस संग्रह की कहानियॉं और उसके पात्र कहॉं से और कैसे हर्फों में उतरी इसके संबंध में वे 'कुछ कहूं..' में लिखते हैं कि ब्‍हाट्स एप के चलन के साथ ही कई किरदार उनके जेहन में विचरने लगे थे। यह आधुनिक समीक्षा शास्त्र के उस अहम तत्‍व की पूर्ति करता है जिसे लोचक 'भोगा हुआ यथार्थ कहते हैं। संग्रह की कहानियों का प्‍लाट, समीर के आस-पास की दुनियां से ही लिए गए है जिससे वो वाकिफ हैं या जिसे उन्‍होंनें महसूस किया है। इस तरह से इसमें संग्रहित कहांनियां, कथाकार के भोगे गए यथार्थ का चित्रण है।

घिसे-पिटे आलोचना के गूढ शब्दों में एक शब्‍द और है 'प्रांजल भाषा', जो रचना का मूल तत्‍व है, यद्धपि व्‍हाट्स-एपियाई कहानियों में इसे खोजना बेमानी है फिर भी भाषा का संस्कार समीर नें अपने पिता से पाया है। भाषा की प्रांजलता और काल-परिस्थितियों के चित्रण में लेखक नें अपनी क्षमता, इसी किताब में कुछ इस तरह सिद्ध किया है-
'.. उफ यह उसकी मंजिल तो नहीं..। जीने पर संभाल कर रखी जा रही सेंडिल की हर एक टिक-टिक राघव के उन्माद को जगा रही थी, उसे नशा सा हो रहा था है। कामना को पहली बार देखते ही जो उसने सोचा था, उसे आज तमील करेगा। टावर का दरवाजा धूप और बारिश से टेढ़ा होकर चौखट पर मिसफिट हो गया था, उस पर टावर की छोटी सी जगह में पुराने लेटर-बाक्स और डाक-बैग छिथरे पढे थे। सांस संभालती कामना की छत पर जाने की अनचाही सी कोशिश, अचानक राघव के कांखों से आ रहे डियो की खुशबू नथुनों में समाने के साथ समाप्त हो गई। उसके गर्दन के मुलायम रेशे बाजुओं के कसाव से सिंदूरी होने लगे। फिर थोड़ी देर सिगरेट की पहचानी सी गंध, थोड़ा ऊपर बालों की पहचानी-सी खुशबू, थोड़ा नीचे गरम होते पसीने की गंध, इन ऊपर-नीचे के पल-पल कम होते दायरे नें उसके हल्के प्रतिरोधों को पूरी तरह खत्म कर एक खास आदिम अहसास से सराबोर कर दिया।' इसी क्रम में आगे 'अधखुले दरवाजे से बाहर की हवा और भीतर से राघव के अनियंत्रित रक्तप्रवाह की जंग का अंत हुआ तो वहां बस कामना की नाभि कस्तूरी की गंध रह गई थी।'
इन छोटी-छोटी कहानियों का अंत भी समीर ने बहुत सलीके से लिखा है, उसी तरह जिस तरह कथादेश, हंस और वागार्थ जैसे प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने वाले, नई कहानी के कथाकार लिखते हैं। जो कहानी को और उसमें निहित मार्मिकता को, देर तक महसूस करने को विवश करते हैं। 'आज मिल न..' का अंत देखें 'प्रिया एक बार फिर मैसेज का जवाब दिए बिना गोकुल को डबडबाई आंखों से ऑफलाइन होते देखती है।' सही है, इस संचार क्रांति के समय में प्रेमचंदी कहानियों के अंत की परम्‍परा को तो सम्‍हाला नहीं जा सकता।

इन कहानियों में शब्‍द समुच्‍चय और कथोपकथन के प्रयोग में समीर की परिकल्‍पना और शब्‍द क्षमता स्‍पष्‍ट नजर आती है। पूरे संग्रह में सहज-सरल भाषा में वे गहरी व प्रभावी बात गूंथते है। जैसे 'उसके कमेंट पर अपनी तकदीर तय करता हूं', 'आखिर वह उसके कॉन्टेक्ट लिस्ट में सेव है', और 'पहले कांटेक्ट लिस्ट में जगह तो बना लूं' या फिर 'पहले व्‍हाट्सएप फ्रैंड तो बन जाऊं'। इसके साथ ही 'इश्क में यकीन किसी शब्द का मोहताज नहीं होता', और 'तुम मेरे खिलाफ हवा में सांस लेने लगी हो', या फिर 'तुम मौजूद तो होते हो, मगर तुम साथ नहीं होते हो'। इसी तरह के कई उल्‍लेखनीय वाक्‍यों से कहानियॉं आगे बढ़ती हैं। इन कहानियों की भाषा नई है, यकीनन भविष्य में यही भाषा हिंदी कहानियों की मूल भाषा बनेगी, क्योंकि समय के साथ ही भाषा भी संस्कारित होती है जिसमें डाट्स, इस्माइली, इमोजी और अंग्रेजी के शब्‍द बहुत तेजी से समा रही है।

इन कहानियों में लोकोक्तियां और मुहावरों का प्रयोग भी समीर ने बखूबी से किया है। चौकिये नहीं, आप यह कह सकते हैं कि मुझे तो नजर नहीं आई। तो साहबान, नए समय की इन कहानियों में नए समय की लोकोक्तियां और मुहावरे ही तो प्रासंगिक होंगे ना? डॉ.परदेशीराम वर्मा की कहानी 'संतरा बाई की शर्त' और कैलाश बनवासी की कहानी 'बाजार में रामधन' में प्रयुक्‍त पारंपरिक लोकोक्तियां इन कहानियों में मत ढूंढिए। इस किताब में वही आधुनिक लोकोक्तियां और मुहावरे ही नजर आयेंगें, जो व्‍हाट्स एप, फेसबुक और ट्विटर में इस्तेमाल की जा रही है। इन कहानियों को पढ़ते हुए, मुझे ऐसा विश्वास है कि, आधुनिक परिवेश में, समय के साथ-साथ आगे बढ़ती हुई हिंदी कहानी इसी रुप में, सामने आएगी। यह भी कि, समीर नई कहानी के इस युग के पहले कहानीकार हैं जो समय की रिदम को पकड़ पा रहे हैं। आधुनिक कथाकारों में कथाकार पंकज सुबीर इन धड़कनों को बखूबी समझते हैं, शायद इसीलिए उन्होंने समीर की इन कहानियों को समझा और अपने प्रकाशन से इसे प्रकाशित करवाया।

किताब के संबंध में यह बेहद अनौपचारिक समालोचन, इस नए जमाने के माध्यम 'गूगल वॉइस टाइपिंग' के फीचर को इस्तेमाल करके, स्मार्टफोन से बोलकर लिखा गया है। इस हिसाब से यह पहली आलोचना मानी जाए और हिंदी आलोचना के इतिहास में दर्ज की जाए।
-संजीव तिवारी
'व्‍हाट्स-एपिया रोमांस' आनलाईन आर्डर देनें के संबंध में यहॉं जानकारी है।
'व्‍हाट्स-एपिया रोमांस' के लेखक समीर यादव से फेसबुक में आप यहॉं मिल सकते हैं।

बैरी बैरी मन मितान होगे रे, हमर देस म बिहान होगे रे

Gayak - Kedar Yadav Geet- Mukund Kaushal Sangeet - Kuman Lal Sao

निंदा सबद रसाल


बात कड़वी जरूर लगेगी, किन्तु आंचलिक साहित्य के विकास और प्रतिष्ठा के लिए यह आवश्यक है। सो, राजन सुनें! हमारे बीच वैचारिक मतभेद जरूर हो सकते हैं किन्तु मनभेद न रहे अतः अंगन्यास करते हुए यह लिख रहा हूँ। हिमांशु देव सहाय करें और देवाधि देव विनय-विवेक देवें।

हरिभूमि द्वारा प्रदेश की भाषा, साहित्य और संस्कृति का सम्मान करते हुए चार पृष्ठों का, पाक्षिक परिशिष्ठ 'चौपाल' निकाला जा रहा है। प्रदेश के लोक अंचलों में इसकी विशाल पाठक संख्या है। इस परिशिष्ट में छपने वाला लेखक अपार लोकप्रियता प्राप्त कर, आर्यावर्त के लेखन बिरादरी में पूजे जाते हैं। तद् अस्मिन् पत्रम्-पुष्पम्-पुंगीफलम् के अधिकारी होते हुए, छपने-छपाने 200-500 का दक्षिणा भी प्राप्त करने लग जाते हैं। साहित्यिक गोष्ठियों में माई पहुना बनाये जाते हैं और तमंचा जैसे ठोठक-ठोठक कर गोठियाने पर भी, प्रखर वक्ता बुलाये जाते हैं। 

ऐसे परिशिष्ट के पुस्तक चर्चा (समीक्षा?) स्तम्भ में, पिछले सप्ताह विवेक तिवारी जी द्वारा लिखी चर्चा जैसे कुछेक लेखकों की चर्चाओं को अपवाद मान ले तो, बहुधा चर्चा, स्तरीय नहीं लगती हैं। यहाँ तक कि परिशिष्ठ संपादक के द्वारा लिखी गई चर्चा भी, ऐसा मेरा मानना "था"। किन्तु ..

आज के हरिभूमि के रविवारीय परिशिष्ठ में डॉ. दीनदयाल साहू द्वारा पुस्तक दीर्घा स्तम्भ में साहित्य अमृत पत्रिका के स्वाधीनता विशेषांक का परिचय पढ़ा, दिल खुश हो गया। कुल जमा ग्यारह लाइनों में दीनदयाल की भाषा, शब्द सामर्थ्य, दृष्टी और मेधा झलक रही है। यानि कि, निंदा की कोई गुंजाइस नहीं। सच्ची में .. बधाई ले ले मेरे यार। अब से चौपाल में तुम खुद पुस्तक चर्चा लिखो, ताकि नए प्रकाशित साहित्य से हम परिचित हो सकें।

हालाँकि, हिन्दी भाषा, भाषागत-व्याकरणिक त्रुटि और उच्चारण दोष तमंचा में विद्दमान है फिर भी, चौपाल परिशिष्ठ या उसके संपादक के सम्बन्ध में तंज कसने का कोई मौका मैं चूकता नहीं हूँ ???? .. आप सही हैं। 

लेखक बिरादरी में निंदा-पुराण में तमंचा जैसे बिरले उजबक लोगों को ही रूचि होती है। जिसमे से कुछ मात्र लेखन में तो कुछ वाक् में निंदा-गॉसिप करते हैं, तो कुछ लोग अपने घर में जुरिया कर निंदा करते-कराते हैं। कुछ लोग फेसबुक-व्हॉट्सएप में तुतारी-कोचक कर या आभा-मारकर निंदा करने का मौका भी लपकते हैं। हम इस आखिरी श्रेणी का निंदक हैंं। .. और तब से हैं जब से यह ज्ञात हुआ है कि, हमारे जैसे लोगों के आँगन-कुटी को छवाने का टेंसन दूसरों का रहता है। 
-तमंचा रायपुरी

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निंदा सबद रसाल

पारंपरिक छत्तीसगढ़ी व्यंजन का ठीहा : गढ़कलेवा

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...